________________
बिना भाषा के प्रास्ताविक अर्थ को नहीं समझा जा सकता । ज्ञेय पदार्थ अखण्ड है तथापि उसे जानने पर ज्ञेयपदार्थ के जो भेद (अंश) किये जाते हैं उसे निक्षेप कहते हैं और उस अंश को जानने वाले ज्ञान को नय कहते हैं । निक्षेप नय का विषय या ज्ञेय है और नय निक्षेप का विषयी या विषय करने वाला या ज्ञायक है। दोनों में विषय - विषयी या ज्ञेय - ज्ञायक सम्बन्ध है । वाच्य और वाचक का सम्बन्ध तथा उसकी क्रिया नय से जानी जाती है। नय गुण- सापेक्ष और सविपक्ष होता है, किन्तु निक्षेप उपचार से केवल गुणों का आक्षेप करने वाला होता है। तात्पर्य यह है कि जहाँ कोई पदार्थ सामने हो उसमें गुण- पर्याय आदि देखकर उनकी अपेक्षा रखते हुए उसका प्रतिपादन किया जा रहा हो वहाँ तो नय का व्यापार समझना चाहिए और जहाँ कोई पदार्थ ही सामने न हो केवल कल्पनाओं द्वारा वस्तुभूत गुणों की अपेक्षा न करके उसका प्रतिपादन किया जा रहा हो वहाँ निक्षेप का व्यापार समझना चाहिए। जैसे - कल्पना मात्र से ही किसी को इन्द्र कह देना, भले ही वह भूखा मरता हो। लोक में जितना ही शब्द व्यवहार होता है उसका विभाग द्वारा वर्गीकरण कर देना ही निक्षेप का काम है। नय विषयी है, किन्तु निक्षेप शाब्दिक विषयविभाग का प्रयोजक है। निक्षेप केवल यह बतलाता है कि हमने जिस शब्द या वाक्य का प्रयोग किया है वह किस विभाग में सम्मिलित किया जा सकता है; किन्तु नय उस शब्द प्रयोग में जो आन्तरिक मानस परिणाम कार्य कर रहा है उसका उद्घाटन करता है। वह बतलाता है कि उस शब्द का प्रयोग किस दृष्टिकोण से . समीचीन है। इस प्रकार नय और निक्षेप में यही मौलिक अन्तर है ।
(4) निक्षेपों में नय योजना — उक्त चारों निक्षेपों में से नाम, स्थापना और द्रव्य - ये तीन निक्षेप द्रव्यार्थिक नय के विषय हैं और भाव निक्षेप पर्यायार्थिक नय का विषय है। तात्पर्य यह है कि द्रव्यार्थिक नय का विषय द्रव्य - अन्वय होता है और नाम, स्थापना तथा द्रव्य ये तीनों निक्षेप सामान्य- द्रव्य रूप हैं, इनका सम्बन्ध तीन काल से होता है इसलिए ये द्रव्यार्थिक नय के विषय हैं। भाव में अन्वय नहीं होता है, वह विशेष (पर्याय) रूप है, उसका सम्बन्ध केवल वर्तमान पर्याय से होता है; इसलिए वह पर्यायार्थिक नय का विषय है । इतनी विशेषता है कि नाम को सादृश्य सामान्यात्मक माने बिना शब्द - व्यवहार की प्रवृत्ति नहीं हो सकती है, इसलिए नाम निक्षेप द्रव्यार्थिक नय का विषय है और जिसकी जिसमें स्थापना की जाती है उसमें एकत्व का अध्यवसाय किये बिना स्थापना नहीं बन सकती है इसलिए स्थापना भी द्रव्यार्थिक नय का विषय है।
आचार्य सिद्धसेन दिवाकर, 234 विद्यानन्द स्वामी, 235 पूज्यपाद, 236 अकलंकदेव237
तत्त्वाधिगम के उपाय :: 149
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org