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(2) निश्चय काल-वर्तना जिसका लक्षण है वह निश्चयकाल कहलाता है। लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर रत्नों की राशि की तरह जुदे जुदे जो काल के अणु स्थित हैं, उन कालाणुओं को निश्चय काल कहते हैं और वे कालाणु असंख्यात द्रव्य हैं।1० चूँकि लोकाकाश के प्रदेश असंख्यात हैं और एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु स्थित है, अत: वे कालाणु असंख्यात द्रव्य हैं। अर्थात् जितने लोकाकाश के प्रदेश हैं उतने ही काल द्रव्य हैं। काल द्रव्य कालाणु ही हैं उन कालाणुओं के निमित्त से ही संसार में प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। उन्हीं के निमित्त से प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व कायम है। ___ वह काल द्रव्य अनन्त समय वाला है।' यद्यपि वर्तमान काल एक समय मात्र ही है तथापि भूत-भविष्यत् की अपेक्षा अनन्त समय वाला है। जैसा वर्तमान समय है ऐसे ही अतीत अनन्त समय हो गये हैं और आगे अनन्त समय होंगे। 'समय' काल द्रव्य की एक पर्याय है। अतीत, अनागत और वर्तमान सब मिलाकर वे अनन्त होती हैं, इसलिए काल द्रव्य अनन्त समय वाला कहा गया है। काल द्रव्य के सबसे छोटे हिस्से को 'समय' कहते हैं। मन्द-गति से चलने वाला पुद्गल का एक परमाणु आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश पर जितने काल में पहुँचता है उतना काल एक समय है। इन समयों के समूह को ही आवलि, घड़ी, घंटा, दिन-रात आदि कहा जाता है और यह सब व्यवहार काल है। व्यवहारकाल निश्चय काल द्रव्य की पर्याय है। यह व्यवहारकाल सौर मण्डल की गति और घड़ी-घण्टा वगैरह के द्वारा जाना जाता है तथा इसके द्वारा ही निश्यचकाल अर्थात् काल द्रव्य के अस्तित्व का अनुमान किया जाता है। यह कालद्रव्य अपनी द्रव्यात्मक सत्ता रखता है और वह धर्म, अधर्म द्रव्यों के समान समस्त लोकाकाश में स्थित है तथा यह भी अन्य द्रव्यों के समान उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य लक्षण से युक्त है। रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि से रहित होने के कारण आकाश की तरह ही अमूर्तिक और अदृश्य है। यह धर्म और अधर्म द्रव्य के समान लोकाकाश व्यापी एक द्रव्य नहीं है और न ही आकाश के समान एक अखण्ड द्रव्य है, किन्तु प्रत्येक लोकाकाश के प्रदेश पर एक-एक कालाणु के स्थित रहने के कारण अनेक है। इस कालद्रव्य के कारण ही वस्तु में पर्याय-परिवर्तन होता है।
कालद्रव्य के उपकार या कार्य-वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये काल द्रव्य के उपकार या कार्य हैं।112
(1) वर्तना-जो द्रव्यों को वर्तावे उसे वर्तना कहते हैं। अथवा प्रत्येक द्रव्य के एक-एक समयवर्ती परिणमन में जो स्वसत्ता की अनुभूति होती है उसे वर्तना
52 :: जैनदर्शन में नयवाद
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