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स्कन्ध बनते हैं अथवा परमाणुओं के मेल से जो व्यणुक आदि अवस्थाएँ होती हैं वे समानजातीय द्रव्य पर्याय हैं और जीव तथा पुद्गल के मेल से जो मनुष्य, पशु आदि पर्याय बनती हैं वे असमानजातीय द्रव्य-पर्याय हैं।
___ गुणों के द्वारा अन्वय रूप एकता के ज्ञान का कारण जो पर्याय है वह गुण पर्याय है। इसके भी दो भेद हैं-स्वभाव पर्याय और विभाव-पर्याय।69
आचार्य कुन्दकुन्द ने भी पर्याय के दो भेद किये हैं-एक स्व-पर सापेक्ष और दूसरी निरपेक्ष।” स्व-पर सापेक्ष पर्याय का ही दूसरा नाम विभाव पर्याय है और निरपेक्ष पर्याय का दूसरा नाम स्वभाव पर्याय है। इसी को पर निमित्तक और स्वनिमित्तक पर्याय कहते हैं। अर्थात् स्वनिमित्तक पर्याय स्वभाव पर्याय है और परनिमित्तक पर्याय विभाव पर्याय है। जीव और पुद्गल को छोड़कर शेष चार द्रव्यों का परिणमन स्व-निमित्तक होता है अत: उनमें सदा स्वभाव पर्याय होती हैं, किन्तु जीव और पुद्गल में स्वभाव तथा विभाव दोनों पर्याय होती हैं। जीव और पुद्गल की जो पर्याय परनिमित्तक होती हैं वह विभाव पर्याय कहलाती हैं और पर का निमित्त दूर हो जाने पर जो पर्याय होती है वह स्वभाव पर्याय कही जाती है। जीव द्रव्य और कर्म रूप परिणत पुद्गल द्रव्य के संयोग से विभाव पर्याय होती है। इन्हीं दोनों द्रव्यों के मेल से यह संसार परम्परा चल रही है। परमाणु पुद्गलद्रव्य की स्वभाव पर्याय है और दो या तीन आदि परमाणुओं के संयोग से उत्पन्न व्यणुक, त्र्यणुक आदि पुद्गलद्रव्य की विभाव पर्याय हैं। इसी तरह कर्मोपाधिरहित सिद्ध या मुक्तावस्था जीव की स्वभावपर्याय है और जीव तथा पुद्गल के संयोग से उत्पन्न हुई देव, मनुष्य आदि पर्याय जीव की विभाव पर्याय हैं। इसी तरह गुण-पर्यायों में भी समझ लेना चाहिए। समस्त द्रव्यों में रहने वाले अपने-अपने अगुरुलघु गुण द्वारा प्रति समय होने वाली छह प्रकार की हानि-वृद्धि रूप पर्याय स्वभाव गुणपर्याय है तथा पुद्गल स्कन्ध के रूपादिगुण और जीव के ज्ञानादिगुण जो पुद्गल के संयोग से हीनाधिक रूप परिणमन करते हैं वह विभाव गुणपर्याय है। जैसे जीव द्रव्य में ज्ञान गुण की केवलज्ञानपर्याय स्वभावपर्याय है किन्तु संसार-दशा में उस ज्ञानगुण का जो मतिज्ञानादि-रूप परिणमन, कर्मों के संयोगवश हो रहा है वह विभावपर्याय है। इस प्रकार द्रव्यपर्याय के स्वभाव पर्याय और विभावपर्याय ये दो भेद कहे गये हैं और गुणपर्याय के भी स्वभाव पर्याय तथा विभावपर्याय ये दो भेद कहे गये हैं। अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय के भेद से भी पर्याय के दो भेद किये गये हैं। अर्थपर्याय सूक्ष्म है, प्रतिक्षण नाश होने वाली है तथा वचनों के अगोचर है और व्यंजनपर्याय स्थूल होती है, चिरकाल तक रहने वाली है, वचनगोचर तथा अल्पज्ञानियों के भी दृष्टिगोचर होती है। इन दोनों के भी स्वभाव और विभाव के भेद से दो-दो भेद
68 :: जैनदर्शन में नयवाद
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