________________
अर्थात् द्रव्यार्थिक नय से कार्य और कारण में अभेद है । इसी तरह गुण - गुणी, पर्याय-पर्यायी, स्वभाव-स्वभाववान् आदि में भी कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद समझना चाहिए। सर्वथा भेद मानना एकान्त है। इससे अनेकान्तात्मक वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि यदि द्रव्य और पर्याय में वस्तुरूप से भी भेद माना जाएगा तो द्रव्य पर्याय से सर्वथा भिन्न एक जुदी वस्तु ठहरेगा और पर्याय द्रव्य से सर्वथा भिन्न एक जुदी वस्तु ठहरेगी। ऐसी स्थिति में बिना पर्याय के द्रव्य और बिना द्रव्य के पर्याय हुआ करेगी। जैसे यदि मिट्टी रूप द्रव्य से घटादि पर्याय सर्वथा भिन्न है तो मिट्टी के बिना भी घट पाया जाएगा। अत: कारण और कार्य में, द्रव्य और पर्याय में वस्तुरूप से भेद नहीं मानना चाहिए ।
इसी प्रकार ज्ञानाद्वैतवादी' बाह्य घट पट आदि पदार्थों को असत् मानता है और एक ज्ञान को ही सत् मानता है। उसके अनुसार अनादि वासना के कारण हमें बाहर में ये पदार्थ दिखाई देते हैं, किन्तु वे वैसे ही असत्य हैं जैसे स्वप्न में दिखाई देने वाली बातें असत्य होती हैं।
ज्ञानाद्वैतवादियों की यह मान्यता भी जैनाचार्यों की दृष्टि में समीचीन नहीं है, क्योंकि यदि सब ज्ञानरूप ही है तो ज्ञेय तो कुछ भी नहीं रहा और जब ज्ञेय ही नहीं रहा तो बिना ज्ञेय के ज्ञान कैसे रह सकता है, क्योंकि जो जानता है उसे ज्ञान कहते है और जो जाना जाता है उसे ज्ञेय कहते हैं । जब जानने के लिए कोई है 'नहीं तो ज्ञान कैसे हो सकता है ?
जो शरीर, मकान वगैरह बाह्य पदार्थ समस्त लोक में प्रसिद्ध हैं उनको भी जो ज्ञान रूप मानता है वह ज्ञान के स्वरूप को ही नहीं जानता । जिनका स्वरूप जानने योग्य होता है उन्हें ज्ञेय स्वरूप कहते हैं । अतः ज्ञान से बाहर जितने भी पदार्थ हैं वे सब ज्ञेयरूप हैं, ज्ञानरूप नहीं हैं । जो उन्हें ज्ञानरूप कहता है वह वास्तव में ज्ञान के स्वरूप को ही नहीं समझता है। यदि वह ज्ञान के स्वरूप से थोड़ा-सा भी परिचित होता तो बाह्य पदार्थों का लोप न करता ।
इस विषय में शून्य कार्यवादी बौद्धों 77 का भी कथन है कि 'असत: सज्जायते' असत् से सत् अर्थात् अभाव से भाव की उत्पत्ति होती है। दूध के अभाव से ही दही की उत्पत्ति होती है, बीज के अभाव से अंकुर उत्पन्न होता है, मृत्पिण्ड के अभाव से घड़ा उत्पन्न होता है और कूटस्थ कारण से कार्य उत्पन्न होता है। अंतः अभाव से ही भाव की उत्पत्ति का अनुमान किया जाता है। दूसरी बात वे यह कहते हैं कि जिस एक या अनेक रूप से पदार्थों का कथन किया जाता है वास्तव में वह रूप है ही नहीं, इसलिए वस्तु मात्र असत् है और जगत् शून्य के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
Jain Education International
नयवाद की पृष्ठभूमि :: 71
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org