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उसकी उत्पत्ति कहना गलत है । उत्पत्ति तो अविद्यमान कीं ही होती है। अतः अनादिनिधन द्रव्य में काललब्धि आदि के मिलने पर अविद्यमान पर्यायों की ही उत्पत्ति होती है। 174
वस्तुतः द्रव्य अविनश्वर होने के कारण अनादि निधन है। उस अनादि निधन द्रव्य में अपने योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के मिलने पर जो पर्याय विद्यमान नहीं होती उसकी उत्पत्ति हो जाती है। जैसे विद्यमान मिट्टी में घट के उत्पन्न होने का उचित काल आने पर तथा कुम्हार आदि के सद्भाव में घट आदि पर्याय उत्पन्न होती हैं । अतः अविद्यमान पर्याय की ही उत्पत्ति होती है न कि विद्यमान पर्याय की और न ही द्रव्य में पहले से विद्यमान अथवा तिरोहित पर्याय की अभिव्यक्ति । यही जैनदर्शन का अभिमत है ।
उक्त विषय में असत्कार्यवादी न्याय-वैशेषिक दर्शन का भी कथन है कि उत्पत्ति से पूर्वकाल में कार्य अपने कारण में नहीं रहता, तदुपरान्त वह कारण सामग्री से उत्पन्न होता है। अतः कारण और कार्य अत्यन्त भिन्न हैं ।
तात्पर्य यह है कि कार्य की सत्ता उसकी उत्पत्ति से पूर्व कारण में नहीं रहती है, क्योंकि यदि उत्पत्ति से पूर्व कार्य की स्थिति मानी जाएगी तो कारण की फिर क्या आवश्यकता रहेगी? और न उसकी उत्पत्ति का ही प्रश्न उठता है । कार्य यदि उपादान (समवायी) कारण में पहले से ही विद्यमान है तो कारण और कार्य का भेद नहीं हो सकेगा। जैसे यदि मिट्टी में घड़ा पहले से ही था तब कुम्हार को चक्र घुमाने आदि के परिश्रम की क्या आवश्यकता थी तथा मिट्टी और घड़े को एक ही नाम क्यों नहीं दिया गया ? अतः सिद्ध होता है कि यथार्थ में कार्य अपने कारण में विद्यमान नहीं था, किन्तु फिर भी कार्य एक विशेष कारण में ही उत्पन्न होता है, जो स्वाभाविक है। इस प्रकार न्यायदर्शन असत्कार्यवाद की स्थापना करता है। उसके अनुसार जगत् का उपादान कारण नित्य पदार्थ परमाणु है, जो सत् है, किन्तु कार्य असत् है। इस प्रकार न्याय-वैशेषिक दर्शन कारण और कार्य में सर्वथा भेद मानता
है ।
जैनदर्शन इस मान्यता से भी सहमत नहीं है, उसके अनुसार धर्म और धर्मी की विवक्षा से कारण और कार्य में अथवा द्रव्य और पर्याय में भेद किया जाता है, किन्तु वस्तु स्वरूप से उनमें भेद नहीं है। 75
यथार्थतः कारण रूप मिट्टी आदि द्रव्य में और कार्य रूप घटादि पर्याय में धर्म और धर्मी भेद की विवक्षा होने से ही भेद है वास्तव में भेद नहीं है । अर्थात् जब यह कहना होता है कि यह मिट्टी धर्मी है और घटादि पर्याय धर्म है, तभी भेद की प्रतीति होती है, किन्तु वस्तु स्वरूप से धर्म और धर्मी में भेद नहीं किया जा सकता ।
70 :: जैनदर्शन में नयवाद
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