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में परप्रत्ययापेक्ष उत्पाद और व्यय भी होता रहता है, क्योंकि क्षण-क्षण में गति आदि के विषय भिन्न-भिन्न होते हैं और विषय भिन्न होने से उसके कारणों को भी भिन्न होना चाहिए।
पुनः प्रश्न उपस्थित होता है कि क्रियावान् जलादि ही मछली आदि की गति आदि में निमित्त होते हैं तो फिर निष्क्रिय धर्मादि द्रव्य जीवादि की गति आदि में हेतु कैसे हो सकते हैं?
इसका भी समाधान है कि ये द्रव्य केवल जीवादि की गति आदि में सहायक होते हैं, प्रेरक नहीं। जैसे चक्षु रूप के देखने में निमित्त मात्र होता है, लेकिन जो नहीं देखना चाहता है या जिसका मन विक्षिप्त है, उसको देखने की प्रेरणा, नहीं करता। इसलिए धर्मादि द्रव्यों का निष्क्रियत्व होने पर भी जीवादि की गति आदि में हेतु होने में कोई विरोध नहीं है।
उक्त छः द्रव्यों में से काल द्रव्य को छोड़कर शेष पाँच द्रव्यों को 'पंचास्तिकाय' कहते हैं। जो द्रव्य सत्ता रूप होकर बहप्रदेशी हो उन्हें 'अस्तिकाय' कहते हैं। ये पाँचों द्रव्य सदा विद्यमान रहते हैं, इसलिए इन्हें 'अस्ति' कहते हैं और जैसे काय (शरीर) बहुप्रदेशी होता है उसी प्रकार कालद्रव्य को छोड़कर शेष पाँचों द्रव्य भी बहु प्रदेशी होते हैं। इसलिए इन्हें 'काय' कहते हैं। इस प्रकार पाँचों द्रव्यों की 'अस्तिकाय23 संज्ञा है। 'अस्तिकाय' में दो शब्द हैं-'अस्ति' और 'काय'। 'अस्ति' का अर्थ होता है 'है' जो अस्तित्व सूचक है और 'काय' शब्द का अर्थ होता है 'शरीर' जैसे शरीर बहुप्रदेशी होता है वैसे ही काल के सिवाय शेष पाँच द्रव्य भी बहुप्रदेशी हैं इसलिए इन्हें 'अस्तिकाय' कहते हैं। ‘अस्तिकाय' की व्युत्पत्ति भी इसी प्रकार की गयी है- 'अस्ति विद्यते कायः बहुप्रदेशत्वं यत्रासौ अस्तिकायः'। काल द्रव्य अस्ति (विद्यमान) तो है, किन्तु वह एक प्रदेशी होने से 'काय' नहीं, अतएव उसे 'अस्तिकाय' नहीं कहतें; क्योंकि उसके कालाणु असंख्य होने पर भी परस्पर में सदा अबद्ध रहते हैं, न तो वे आकाश के प्रदेशों की तरह सदा से मिले हुए एक और अखण्ड हैं और न पुद्गल परमाणुओं की तरह कभी मिलते और कभी बिछुड़ते ही हैं, इसलिए वे काय नहीं कहे जाते। जैसे-रत्नों की राशि हार में एक साथ लगा देने पर भी प्रत्येक रत्न अलग-अलग रहता है उसी प्रकार लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक-एक कालाणु पृथक्-पृथक् है। लोकाकाश के प्रदेश असंख्यात होने के कारण कालद्रव्य भी असंख्यात द्रव्य हैं। अर्थात् प्रत्येक कालाणु स्वतन्त्र द्रव्य है, इसलिए वह बहुप्रदेशी अस्तिकाय नहीं कहा
56 :: जैनदर्शन में नयवाद
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