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नहीं पाये जाते हैं। इसलिए अरूपी हैं, किन्तु पुद्गल द्रव्य रूपी अर्थात् मूर्तिक है। 20 यहाँ यद्यपि पुद्गल द्रव्य को रूपी कहा गया है पर रूप के साहचर्य से रस, गन्ध तथा स्पर्श का भी ग्रहण हो जाता है। क्योंकि जहाँ रूप है वहाँ रस, गन्ध और स्पर्श अवश्य होंगे, जहाँ रस है वहाँ रूप, गन्ध तथा स्पर्श भी अवश्य होंगे, जहाँ गन्ध हैं वहाँ रूप, रस तथा स्पर्श भी अवश्य होगा, इसी प्रकार जहाँ स्पर्श होगा वहाँ रूप, रस और गन्ध भी अवश्य होगा । उदाहरणार्थ - आम के फल को लिया जा सकता है। आम का पका हुआ फल है। इसमें पीला रूप, मीठा रस, सुगन्ध तथा कोमल स्पर्श ये चारों गुण एक साथ ही पाये जाते हैं। इनमें धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य एवं आकाशद्रव्य ये तीन द्रव्य, जीव तथा पुद्गल की तरह अनेक भेद स्वरूप न होकर एक-एक अखण्ड द्रव्य हैं। 21 जीवद्रव्य अनन्त हैं, पुद्गल द्रव्य अनन्तानन्त है और काल द्रव्य असंख्यात (अणु रूप ) हैं । धर्म, अधर्म और आकाश ये द्रव्य निष्क्रिय भी हैं। 22 एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने को क्रिया कहते हैं। इस प्रकार की क्रिया इन द्रव्यों में नहीं पायी जाती है इसलिए ये निष्क्रिय हैं; क्योंकि धर्म तथा अधर्मद्रव्य समस्त लोकाकाश में तिल में तेल की तरह व्याप्त हैं एवं आकाश द्रव्य भी लोक और अलोक दोनों में सर्वत्र व्याप्त है, इसलिए अन्य क्षेत्र का अभाव होने से इनमें क्रिया होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
यहाँ यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि यदि धर्म आदि द्रव्य निष्क्रिय हैं तो इनका उत्पाद नहीं बन सकता, क्योंकि उत्पाद क्रिया-पूर्वक ही होता है । जैसे— घटादिक का उत्पाद क्रिया-पूर्वक ही देखा जाता है । उत्पाद के अभाव में विनाश भी सम्भव नहीं हैं। अतः धर्मादि द्रव्यों को उत्पाद - व्यय और ध्रौव्य युक्त कहना ठीक नहीं है अर्थात् इनमें उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य युक्त द्रव्य का लक्षण घटित नहीं हो सकता और ऐसी स्थिति में ये द्रव्य नहीं कहलाएँगे ।
इस प्रश्न का सयुक्तिक समाधान यह है कि यद्यपि धर्म आदि द्रव्यों में क्रिया-निमित्तक उत्पाद नहीं है फिर भी इनमें दूसरे प्रकार का उत्पाद पाया जाता है । उत्पाद दो प्रकार का है, स्वनिमित्तक और परप्रत्यय। यह दोनों ही प्रकार का उत्पाद धर्म आदि द्रव्यों में होता रहता है। जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक द्रव्य में अनन्त अगुरुलघु गुण स्वीकार किये गये हैं। इन गुणों में छह स्थान पतित वृद्धि और हानि स्वभाव से ही होती रहती है। अर्थात् छह प्रकार की वृद्धि और छह प्रकार की हानि के द्वारा परिवर्तन होता रहता है । यही स्वनिमित्तक उत्पाद और व्यय है। मनुष्य, पशु आदि की गति, स्थिति और अवकाश-दान में हेतु होने के कारण धर्मादि द्रव्यों
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नयवाद की पृष्ठभूमि :: 55
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