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है। इसलिए गुण कथंचित् नित्यानित्य ही सिद्ध होते हैं।
गुणों को सहभू,144 अन्वयी,145 और अर्थरूप भी कहा गया है, क्योंकि गुण, . सहभू, अन्वयी और अर्थ ये चारों शब्द पर्यायवाची हैं। अतएव एक ही अर्थ के वाचक हैं।146 इनमें 'सहभू' शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ है, जो एक साथ होते हैं, वे गुण हैं । गुण युगपत् हैं, पर्यायों के समान क्रम-क्रम से, एक के बाद दूसरा इत्यादि क्रम से नही होते हैं।147 गुणों को 'सहभू' या सहभावी148 इसलिए कहते हैं कि जितने भी गण हैं वे सब एक साथ हैं। पर्यायों के समान क्रमवर्ती नहीं हैं। प्रत्येक गुण की त्रिकालभावी जो अनन्त पर्याय हैं वे सब सदा नहीं पाई जाती, किन्तु प्रत्येक समय में जुदी जुदी होने से वे क्रमवर्ती हैं पर गुणों का स्वभाव ऐसा नहीं है। अतीत काल में जितने और जो गुण थे वर्तमान काल में भी उतने और वे ही गुण हैं। इसी प्रकार भविष्य में भी उतने और वे ही गुण रहेंगे, इसलिए गुण 'सहभू' या 'सहभावी' कहे गये हैं। जैसे-जीव के ज्ञानादि गुण।।
जैनाचार्यों ने गुणों को 'अन्वयी' भी कहा है। 'अन्वयी' इस शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा है : 'अन्वय' शब्द में 'अनु' यह पद अव्युच्छिन्न प्रवाह रूप अर्थ का द्योतक है और 'अय' धातु का अर्थ गमन करना है, इसलिए अनु+अय= 'अन्वय' शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ द्रव्य होता है। इस दृष्टि से सदा सत्व, सत्, सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु, अर्थ, विधि-ये सब शब्द सामान्य रूप से एक ही अर्थ के वाचक हैं। इस प्रकार का 'अन्वय' जिनके पाया जाय वे 'अन्वयी' हैं और यह अन्वय गुणों में पाया जाता है, इसलिए गुण 'अन्वयी' कहलाते हैं। वस्तु का स्वभाव होने से गुण स्वतः सपक्ष अर्थात् स्वतःसिद्ध हैं, उन्हें पर्यायों की अपेक्षा नहीं करनी पड़ती है।149 ___अन्वय का अर्थ धारा या परम्परा है। प्रत्येक गुण में यह धारा सदैव पायी जाती है, इसलिए गुण 'अन्वयी' कहलाते हैं। वस्तु के पीछे-पीछे उसकी प्रत्येक अवस्था में साथ रहना अन्वय का अर्थ है। चूँकि यह विशेषता गुणों में पायी जाती है इसी से जैन सिद्धान्त में गुणों को अन्वयी कहा है। गुणों के इस अन्वयी रूप का यही अर्थ है कि वस्तु की प्रत्येक दशा में बराबर अनुस्यूत रहना। जैसे जीव की नर-नारक आदि पर्याय तो आती-जाती रहती है और जीवत्व उन सब में बराबर अनुस्यूत रहता है। अत: जीवत्व जीव का अन्वयी रूप है।
दूसरे शब्दों में जिनसे धारा में एक-रूपता बनी रहती है वे गुण कहलाते हैं। जीव में ज्ञानादि की धारा का, पुद्गल में रूप-रसादि की धारा का, धर्म द्रव्य में गतिहेतुत्व की धारा का, अधर्म द्रव्य में स्थिति हेतुत्व की धारा का, आकाश में अवगाहन हेतुत्व की धारा का और काल द्रव्य में वर्तना हेतुत्व की धारा का कभी 64 :: जैनदर्शन में नयवाद
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