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जाएगा। 101 अत: धर्म और अधर्म द्रव्य ही गमन और स्थिति में कारण हैं, आकाश नहीं, इस प्रकार भगवान् जिनेन्द्र ने भव्य श्रोताओं को लोक का स्वभाव बतलाया है 1 102
उक्त कथन का यही निष्कर्ष है कि लोकाकाश में जीव और पुद्गलों के गमन के लिए धर्मद्रव्य, स्थिति के लिए अधर्मद्रव्य तथा अवगाहन के लिए आकाश द्रव्य को ही पृथक् और स्वतन्त्र रूप से मानना होगा। अकेला आकाश द्रव्य तीनों कार्य नहीं कर सकता। ऐसा मानने पर ही लोक की मर्यादा और स्थिति सम्भव है।
वैशेषिक दर्शन आकाश का लक्षण शब्द मानता है ।102 इस विषय न्याय दर्शन का कहना है कि शब्द एक गुण है, गुण ही नहीं विशेष गुण है। प्रत्येक गुण किसी द्रव्य में रहता है, कोई भी गुण ऐसा नहीं है जिसका आश्रय कोई द्रव्य न हो, तब शब्द का आश्रय भी कोई द्रव्य होना चाहिए। अतः शब्द का आश्रयभूत द्रव्य आकाश है। इसके अनुसार ही आकाश का लक्षण 'शब्द' किया गया है। इसके अतिरिक्त अवकाशदान से भी आकाश की सिद्धि होती है। आकाश न हो तो सभी मूर्त द्रव्य सम्पिण्डित अवस्था में एक हो जाएँगे और प्रवेश, निष्क्रमण आदि क्रियाएँ भी असम्भव हो जाएँगी। आकाश एक, विभु (व्यापक) और नित्य है, 103 किन्तु जैनदर्शन शब्द को आकाश का लक्षण या गुण न मानकर पुद्गल द्रव्य की पर्याय मानता है। जैसा कि पुद्गलद्रव्य के कथन में ऊपर विवेचन किया जा चुका है। हाँ, आकाश को एक, व्यापक और नित्य द्रव्य अवश्य माना है।
सांख्यदर्शन प्रकृति या प्रधान के विकार को आकाश कहता है, 104 किन्तु जैनदर्शन के अनुसार आकाश को प्रकृति या प्रधान का विकार भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि एक ही प्रकृति के घट, पट, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश आदि विकार सम्भव नहीं हैं। मूर्तिक- अमूर्तिक, रूपी - अरूपी, व्यापक अव्यापक एवं सक्रिय - निष्क्रिय आदि रूप से विरुद्ध धर्म वाले एक ही प्रकृति के विकार सम्भव नहीं हो सकते हैं।
इसी प्रकार वैशेषिकदर्शन पूर्व, पश्चिम आदि व्यवहार का कारण दिग्द्रव्य को भी एक स्वतन्त्र द्रव्य मानता है;104 किन्तु जैनदर्शन द्वारा उसका अन्तर्भाव इस आकाश द्रव्य में कर लिया गया है। इस कारण यदि दिशा को एक स्वतन्त्र द्रव्य माना जाए तो पूर्वदेश, पश्चिमदेश, उत्तरदेश आदि व्यवहारों से एक 'देशद्रव्य' की सत्ता भी स्वतन्त्र रूप से स्वीकार करनी होगी ।
50 :: जैनदर्शन में नयवाद
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