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द्वारा उसका ग्रहण नहीं हो सकता था, क्योंकि अमूर्तिक आकाश का गुण भी अमूर्तिक ही होगा तो फिर अमूर्तिक शब्द को मूर्तिक कर्णेन्द्रिय कैसे ग्रहण कर सकती है? इस प्रकार युक्ति से विचार करने पर यही सिद्ध होता है कि शब्द अमूर्तिक आकाश का गुण नहीं है किन्तु मूर्तिक पुद्गल द्रव्य की ही पर्याय है। अतः पौद्गलिक है। शब्द के पौद्गलिकत्व की सिद्धि अनुभव द्वारा भी होती है। शब्द टकराता भी है कुएँ, गुफा वगैरह में आवाज करने से वह टकराता है और उसकी प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है। निश्छिद्र बन्द कमरे में आवाज करने पर वह वहीं गूंजती रहती है, बाहर नहीं निकलती है। शब्द रोका भी जाता है, ग्रामोफोन के रिकार्ड, टेलीफोन आदि इसके उदाहरण हैं। शब्द गतिमान भी है। आधुनिक विज्ञान भी शब्द में गति मानता है। स्कूल में लड़कों को प्रयोग द्वारा बतलाया जाता है कि शब्द ऐसे आकाश में गमन नहीं कर सकता जहाँ किसी भी प्रकार का 'मैटर' न हो। और अब तो ऐसे वैज्ञानिक यन्त्र तैयार हो गये हैं जिनके द्वारा शब्द तरंगें देखी जा सकती हैं। अतः शब्द अमूर्त आकाश का गुण न होकर पौद्गलिक है, मूर्तिक है।
शब्द के भेद-प्रभेद-शब्द के दो भेद हैं-1. भाषात्मक और 2. अभाषात्मक। 1. भाषात्मक शब्द दो प्रकार का है-1. अक्षरात्मक और 2. अनक्षरात्मक।
(1) जो विविध प्रकार की भाषाएँ संस्कृत, प्राकृत, देशभाषाएँ आदि बोलचाल में आती हैं, जिनमें ग्रन्थ रचे जाते हैं, वे अक्षरात्मक शब्द हैं।
(2)द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों के जो ध्वनिरूप शब्द उच्चरित होते हैं तथा अरहंत देव की दिव्यध्वनि, ये अनक्षरात्मक शब्द हैं। दिव्यध्वनि कण्ठ, ताल आदि स्थानों से अक्षररूप होकर नहीं निकलती है, किन्तु सर्वांग से ध्वनि रूप उत्पन्न होती है, इसलिए अनक्षरात्मक है।
(2) अभाषात्मक शब्द के भी दो भेद हैं-1. वैनसिक, 2. प्रायोगिक ।
(1) वैस्रसिक शब्द-मेघ आदि की गर्जन, जो बिना किसी के प्रयोग से स्वाभाविक हो, वैस्रसिक शब्द है।
(2) प्रायोगिक शब्द-जो दूसरे के प्रयोग से हो, वे चार प्रकार के हैं-1. तत, 2. वितत, 3. घन और 4. सुषिर।
(1) तत-चमड़े से मढ़े हुए मृदंग, ढोल, भेरी, नगाड़ा, तबला, दर्दुर आदि का शब्द तत है।
38 :: जैनदर्शन में नयवाद
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