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आगम और अनुभव से सिद्ध नहीं होती। जैनदर्शन के अनुसार शब्द मूर्तिक है। यदि वह आकाश का गुण होता तो गुणी आकाश की ही तरह अमूर्तिक एक, नित्य और व्यापक होता और मूर्त कर्णेन्द्रिय के द्वारा उसका ग्रहण नहीं हो सकता था। क्योंकि अमूर्तिक को मूर्तिक इन्द्रिय कैसे जान सकती है? इसी प्रकार वह शब्द दीवाल आदि मूर्तिक पदार्थों के द्वारा भी नहीं रुक सकता ।
आज विज्ञान से भी सिद्ध किया जा चुका है कि शब्द की गति इच्छानुसार चाहे जिधर को जा सकती है और आवश्यकता अथवा निमित्त के अनुसार उसको रोक कर भी रखा जा सकता है। जैसे कि ग्रामोफोन की चूड़ी में चाहे जैसा शब्द रोक कर रखा जा सकता है और उसको चाहे जब व्यक्त किया जा सकता है। टेलीग्राम वायरलेस - बेतार के तार द्वारा इच्छित दिशा और स्थान की तरफ उसकी गति की जा सकती है। इस प्रकार विज्ञान, युक्ति, आगम और अनुभव से सिद्ध होता है कि शब्द अमूर्तिक आकाश का गुण नहीं, किन्तु मूर्तिक पुद्गल का ही परिणाम है। इसी प्रकार बन्ध आदि भी सभी पुद्गल के ही परिणाम हैं।
पुद्गल के कार्य - शरीर, वचन, मन और प्राणापान (श्वासोच्छ्वास) ये पुद्गल द्रव्य के कार्य या उपकार हैं।2 सांसारिक जीवन सम्बन्धी समग्र व्यवहार पुद्गल द्रव्याश्रित है । वस्त्रादि भोगोपभोग सामग्री का हमारे दैनिक जीवन में निरन्तर उपयोग होता रहता है, इनके अतिरिक्त और भी अनेक अगणित कार्य हैं जिन पर हमारा जीवन तथा समस्त संसार निर्भर है। इन सभी पर विचार किया जाए तो सभी पौद्गलिक ही हैं, इसलिए जैनदर्शन में ये पुद्गल द्रव्य के कार्य या उपकार कहे गये हैं। मोहवश भ्रमित होकर जीव इनसे सम्बन्धित होता है ।
2-3 धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य
जैनदर्शन द्वारा मान्य जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों में से जीव, आकाश और काल इन तीन को तो वेदान्त, न्याय-वैशेषिक, सांख्ययोग आदि सभी जैनेतर आस्तिक दर्शनों ने स्वीकार किया है। पुद्गल तत्त्व को भी ये सभी दर्शन प्रकृति, परमाणु आदि के रूप में स्वीकार करते हैं, किन्तु धर्म और अधर्म द्रव्य को कोई भी दर्शन नहीं मानता। केवल जैनदर्शन ही इन्हें द्रव्य रूप में स्वीकार करता है।
धर्म और अधर्म द्रव्य में धर्म तथा अधर्म शब्द से पुण्य-पाप को या शुभाशुभ कर्म को अथवा न्याय-वैशेषिकादि दर्शनों के द्वारा माने हुए गुण विशेष को नहीं समझना चाहिए, किन्तु ये दोनों जैनदर्शन के पारिभाषिक शब्द हैं, जो द्रव्यवाचक हैं, गुणवाचक नहीं है। पुण्य-पाप आत्मा के परिणाम विशेष हैं या कर्म के भेद हैं
44 :: जैनदर्शन में नयवाद
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