Book Title: Jain Agamo me Parmatmavada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 19
________________ ( २ ) दी, न हस्से, न वट्टे, न तसे, न चउरसे, न परिमडले, न किण्हे, न नीले, न लोहिए. न हालिदे, न सुकिल्ले, न सुरभिगन्धे, न दुरभिगन्धे, न तित्ते, न कडुए, न कसाए, न अबिले, न महुरे, न कक्खडे, न मउए, न गरुए, न लहुए, न सीए, न उण्हे, न निद्धे, न लुक्खे, न काऊ, न रहे, न सगे, न इत्थी, न पुरिसे, न अन्नहा, परिन्ने, सन्ने, उवमा न विज्जए, अरूवी सत्ता, अपयस्स पय नत्थि । सेन सद्दे, न रूवे, न गधे, न रसे, न फासे । —श्राचारागसूत्र प्रथमश्रुतस्कव अध्याय ५ उद्देश ६ | संस्कृत - व्याख्या " सर्वे" निरवशेषा. "स्वराः" ध्वनयस्तस्मान्निवर्तन्ते तद् वाच्य - वाचक-सम्बन्धे न प्रवर्तन्ते, तथाहिह - शब्दा प्रवर्तमाना रूप-रस- गन्धस्पर्शानामन्यतमे विशेषे सकेत - काल - गृहीते तत्तुल्ये वा प्रवर्त्तेरन, नचैतत्तत्र शब्दादिना प्रवृत्तिनिमित्तमस्ति प्रत शब्दानभिधेया मोक्षावस्थेति । न त्र्यस्रो, न चतुरस्रो, न परिमण्डलो, न कृष्णो, न नीलो, न लोहितो, न हारिद्रो, न शुक्लो, न सुरभिगन्धो, न दुरभिगन्धो, न तिक्तो, न कटुको, न कषायो, नाम्लो, न मधुरो, न कर्कशो, न मृदुः, न गुरुः, न लघुः न शीतो, नोष्णो, न स्निग्धो, न रूक्षो, न कायवान्, न रुहः, न सगः, न स्त्री, न पुरुषः, नान्यथा, परिज्ञः, सज्ञ, उपमा न विद्यते, रूपिणी सत्ता, प्रपदस्य पदं नास्ति । स न शब्दः, न रूपः, न गन्धः, न रसः, न स्पर्शः ।

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