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( ५७ ) सप्तम-पथिव्या, अधोवाकाशमिति । सूत्र -सग्रहगाथे के ? 'तत्र 'सोवासे' ति सप्तावकाशान्त राणि 'वाय' त्ति तनुवाता, घनवाता 'घण-उदहि' त्ति घनोदधय सप्त, 'पुढवी' त्ति नरक-पृथिव्या सप्तव दीवा-जबूढीपादयोऽसख्याता असख्येया एव सागरा लवणादयः, 'वास' ति वर्षाणि भरतादीनि सप्तव 'नेरयाई' त्ति चविंशतिदण्डका. 'अत्थिय' त्ति अस्तिकाया. 'पचसमय' त्ति काल-विभागः कर्माण्यष्ट, लेश्या षट्, दृष्टयो-मिथ्यादृष्टयादयस्तित्र , दर्शनानि चत्वारि, ज्ञानानि पच, सज्ञाश्चतस्र , शरीराणि पच, योगास्त्रय, उपयोगी द्वौ, द्रव्याणि षट्, प्रदेशा अनन्ता , पर्यवा अनन्ता एव, 'अद्ध' त्ति अतीनाडा अनागताद्धा सर्वाद्धा चेति, 'कि पुग्वि लोयति' त्ति प्रय सूत्राभिलापनिर्देश. तथैव पश्चिम--सूत्राभिलाप दर्शयन्नाह'पुन्वि भते ! लोयते पच्छा सव्वद्धे' त्ति एतानि सूत्राणि शून्यज्ञानादिवादनिरासेन विचित्र--बाह्याध्यात्मिक--वस्तु-सत्ताभिधानानि ईश्वरादि-कृतत्व-निरासेन चानादित्वाभिधानार्थानीति ।।
हिन्दी-भावार्थ उस काल, उस समय श्रमण भगवान महावीर के शिष्य रोह नामक अनगार थे, जो कि प्रकृति-स्वभाव से भद्र, कोमल, विनीत और उपशान्त थे। क्रोध, मान, माया, लोभ को उन्होने कमजोर बना दिया था, वे मृदुता के भण्डार थे, गुप्तेन्द्रिय थे, सरलता और विनीतता के निधि थे, वे भगवान महावीर के सन्निकट कुछ मस्तक को झुकाए हुए खड़े होकर, तथा ध्यान रूप कोष्ठक को प्राप्त कर के सयम और तप के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विहरण कर रहे थे। एक बार उन्हे लोक, अलोक आदि के सम्बन्ध मे जिज्ञासा उत्पन्न हुई, तदनन्तर वे भगवान महावीर की सेवा में आए