Book Title: Jain Agamo me Parmatmavada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 76
________________ (५९) भगवान-रोह | लोकान्त और अलोकान्त, इन दोनों मे एक पहले है, दूसरा पीछे है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। क्योकि ये दोनो शाश्वत है, नित्य है। रोह-भगवन् ! लोकान्त पहले है, *सप्तम अवकाशान्तर पीछे है? या सप्तम अवकाशान्तर पहले है, और लोकान्त पीछे है ? __ भगवान-रोह । लोकान्त और सप्तम अवकाशान्तर इन मे कोई पहले नही है, और कोई पीछे नही है। दोनो ही शाश्वत है, नित्य है। । इसी प्रकार लोकान्त, सप्तम तनुवात, सप्तम घनवात, सप्तम घनोदधि, और सप्तम नरक के सम्बन्ध मे भी समझ लेना चाहिए । इसी प्रकार लोकान्त के साथ आकाश, वात, (तनुवात, घनवात), घनोदधि, पृथ्विए (सात नरक), द्वीप, सागर, वर्ष (भरत आदि क्षेत्र), नैरयिक आदि २४ दण्डक, अस्तिकाय (धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय), समय (सब से सूक्ष्म काल), कर्म (ज्ञानावरणीय आदि अष्ठविध कर्म), छ लेश्याए (कृष्ण, नील आदि), तीन दृष्टियां (सम्यग्दृष्टि, मिथ्या-दष्टि, मिश्र___ *अवकाशान्तर आकाश को कहते है । लोकान्त और सप्तम नरक के मध्य मे स्थित आकाश को सप्तम अवकाशान्तर कहा जाता है। प्रथम नरक का आकाश -प्रथम आकाश-' और दूसरी नरक का आकाश-द्वितीय; इसी क्रम से आगेतीसरी का तीसरा, चौथी का चतुर्थ, पाचवी का पचम, छठी का षष्ठ और सातवी नरक का आकाश सप्तम आकाश कहा जाता है।

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