Book Title: Jain Agamo me Parmatmavada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 78
________________ (६१) भगवान-रोह । दोनो शाश्वत है, नित्य है, इन मे कोई पहले-पीछे नही है। इसी प्रकार सप्तम तनुवात के साथ घनोदधि, पथ्वी आदि से लेकर सर्वाद्धा तक, इन सब का सयोजन कर लेना चाहिए। वर्णनक्रम मे सब से पहले लोकान्त को रखा है, फिर अलोकान्त, पुन सप्तम आकाश को, इसी प्रकार उस के अनन्तर तनुवात, घनवात, घनोदधि आदि है, और अन्त मे सर्वाद्धा है। सर्वत्र प्रश्नोत्तरो मे ऊपर के बोल के साथ क्रमश. नीचे के बोलो को जोडा गया है। जैसे लोकान्त को अवकाशान्तर आदि से लेकर सर्वाद्धा तक, इन सभी के साथ जोडा गया है, तथा अवकाशान्तर को तनुवात आद से लेकर सर्वाद्धा तक,के साथ जोडा गया। इसी प्रकार ऊपर के बोल के साथ नीचे के सव बोलो को क्रमश जोड देना चाहिए, इसी क्रम से ऊपर के बोलो को छोडकर नीचे के बोलो के साथ शेष सभी बोलो का सयोजन करते चले जाना चाहिए। अन्त मे प्रश्नावली अद्धा तक चली जाती है। मूल पाठ * जे वि य ते खदया ! जाव कि अणते सिद्धे ? त चेव जाव । दवओ ण एगे सिद्धे सअन्ते,खेत्तओ ण सिद्ध * येऽपि च ते स्कन्दक | यावत् किमनन्तः सिद्ध.? तच्चैव यावद् द्रव्यत:-एक सिद्ध. सान्तः, क्षेत्रत:-सिद्धो असख्येयप्रदेशिकः असख्येयप्रदेशावगाढ', अस्ति पुनः तस्यान्त । कालत.-सिद्ध सादिरपर्यवसित., नास्ति पुन. तस्यान्तः । भावत.--सिद्धा. अनन्ता.

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