Book Title: Jain Agamo me Parmatmavada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 122
________________ परिशिष्ट न० २ यजुर्वेद मे परमात्मा की अनन्तता जैनदर्शन का विश्वास है कि कर्मो का आत्यन्तिक नाश कर लेने पर जीव मुक्ति को प्राप्त कर लेता है, परमात्मा बन जाता है, और फिर सदा के लिए मुक्ति मे ही वह विराजमान रहता है, उससे कभी वापिस नही आता है। दूसरे शब्दो मे, जैनदर्शन की दृष्टि से परमात्मा सादि-अनन्त है । परमात्मस्वरूप को जीव ने प्राप्त किया है, इस लिए वह सादि है, और परमात्मस्वरूप उस का सदा के लिए बना रहेगा, उस से कभी वह च्युत नहीं होगा, इसलिए वह अनन्त है। परमात्मा की इस अनन्तता को लेकर कुछ लोग जनदर्शन पर कई तरह के ऊलजलूल आक्षेप करते है। वे कहते है कि जैनदर्शन का परमात्मा कैदी है, मुक्ति की कैद मे वह सदा के लिए पडा रहता है, इसलिये वह बद्ध है, उसे स्वतन्त्र नहीं कहा जा सकता । लोगो का ऐसा कहना, समझना सर्वथा भ्रान्ति-पूर्ण है, क्योकि परमात्मा का अपने रूप मे स्थिर रहना, निजस्वभाव मे रमण करना, उसकी बद्धता या परतत्रता का कारण नहीं कहा जा सकता । बद्धता या परतत्रता का कारण परवशता होती है। स्वभाव-स्थिरता को कभी बद्धता या परतत्रता का रूप नही दिया जा सकता। यदि केवल स्वभाव-स्थिरता को ही बद्धता का प्रतीक मान लिया जायगा, फिर तो ससार का कोई भी तत्त्व स्वतन्त्र नही कहा जा सकता । क्योकि वस्तु का अपना कोई न

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