Book Title: Jain Agamo me Parmatmavada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 125
________________ तिब्बती 11 ( 108) SLINI किन्तु यजुर्वेद के मत्रो द्वारा प्रस्तुत मे हम इतना हो व्यक्त करना चाहते है कि यजुवेद मे भी परमात्मा को अनन्त माना गया है और यजुर्वेदसम्मत परमात्मा के तीन अश अविनाशी मोक्ष मे सदा रहते है, वे कभी वहा से च्युत नही हो पाते। जब यजुर्वेदसम्मत परमात्मा की अनन्तता उसे बद्ध नही होने देती, उसे स्वतत्र बनाए रखती है, तो जैनदर्शन सम्मत परमात्मा की अनन्तता उसे बद्ध या परतत्र या कैदी कैसे बना सकती है ? उत्तर स्पष्ट है-कभी नहीं। गीता मे अकर्तृत्ववाद जैनदर्शन परमात्मा को जगत का निर्माता, भाग्यविधाता, तथा कर्मफलप्रदाता स्वीकार नहीं करता है। जैनदर्शन की यह मान्यता सर्वथा युक्तियुक्त और तर्कसंगत है। इस की छाया हमे भगवद्गीता में भी मिलती है / गीता के पाचवे अध्याय का पाचवा और छठा श्लोक देखिए न कर्तृत्व न कर्माणि, लोकस्य सृजति प्रभु / न कर्मफलसयोग, स्वभावस्तु प्रवर्तते // अर्थात्-ईश्वर जगत का निर्माता नही है, जीवो के कर्मो की रचना नहीं करता है और नाही वह कर्मफल का प्रदाता है / प्रकृति के स्वभाव से ही यह सब बातें हो रही है। नादत्ते कस्यचित्पाप, न चैव सुकृत विभुः। अज्ञानेनावृत ज्ञान, तेन मुह्यन्ति जन्तवः / / अर्थात्-ईश्वर किसो को पाप और पुण्य नही लगाता है, ज्ञान अज्ञान से आवृत हो रहा है, इसी कारण से जीव मोह को प्राप्त हो रहे है।

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