Book Title: Jain Agamo me Parmatmavada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 123
________________ ( १०६) कोई स्वभाव अवश्य होता है, और उस मे वह अवस्थित भी रहता है। वैदिकदर्शनसम्मत परमात्मा को ही ले ले,वैदिकदशन के विश्वासानुसार वह जगत का निर्माण करता है। तो "जगत का निर्माण करना,परमात्मा का स्वभाव बन जाता है। वैदिकदर्शन के अनुसार जगत का निर्माण परमात्मा द्वारा ही होता है, इस लिए अपने स्वभाव मे स्थिर होने से उस जगत्कर्ता परमात्मा को भी बद्ध या परतत्र मानना पड़ेगा। पर जगत्कर्ता परमात्मा की बद्धता वैदिकदर्शन स्वय स्वीकार नही करता है। वस्तुस्थिति भी यही है। स्वभाव-स्थिर किसी एक तत्त्व पर बद्ध या परतत्र शब्द का प्रयोग नही हुआ करता । अत सदा के लिए मुक्ति मे विराजमान रहने के कारण जैनदर्शन के परमात्मा को भी बद्ध या परतत्र नही कहना चाहिए और नाही ऐसा समझना चाहिए। ___ इसके अलावा, वैदिक ग्रन्थो मे भी परमात्मा की अनन्तता को प्रकारान्तर से स्वीकार किया गया है। यजुर्वेद मे ऐसे अनेकों मत्र उपलब्ध होते है जो स्पष्ट रूप से परमात्मा की अनन्तता को अभिव्यक्त कर रहे है। पाठको की जानकारी के लिए हम यजुर्वेद के दो मत्रो को यहा उद्धृत करते है। वे मत्र ये है * एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पूरुष । पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृत दिवि ।। -यजुर्वेद अ० ३१,मत्र ३ * वैदिक यत्रालय, अजमेर से मुद्रित, तृतीयावृत्ति विक्रम सम्वत् १९६९, पृष्ठ १०४२ - - - - -

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