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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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जैनागमों में परमात्मवाद
लेखक-- जैनधर्मदिवाकर, साहित्यरत्न, जैनागमरत्नाकर,
___ आचार्यसम्राट् परम श्रद्धेय पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज
1.6080
प्रकाशक
प्राचार्य श्री आत्माराम जैन प्रकाशनालय
जैनस्थानक, लुधियाना।
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प्राप्तिस्थान
आचार्य श्री आत्माराम जैन प्रकाशनालय, जैनस्थानक, लुधियाना
वीरसम्वत्
वि०
० स०
मूल्य
प्रथम प्रवेश
029086
परिग्रहण शान्तरक्षिन पत्रालय
*****ENSAD
ान ानाथ
•
...
२४८६
२०१६ आठ आना
मुद्रकराईज आर्ट इलैकट्रिक प्रेस, गली लालूमल, लुधियाना ।
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धन्यवाद
"जैनागमो मे परमात्मवाद" के प्रकाशन मे समस्त व्यय करने की उदारता श्रीमती गौरा देवी जी कर रही है। माता श्री गौरा देवी जी यह प्रकाशन अपने पूज्य पतिदेव
स्वर्गीय लाला नौहरियामल जी जैन की पुण्यस्मृति मे करवा रही है। लाला नौहरियामल जी धार्मिक विचारो के व्यक्ति थे। लाला जी को यह धार्मिक भावना जैनधर्मदिवाकर,प्राचार्यसम्राट,पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज जी के सुशिष्य युगस्रष्टा श्रद्धेय श्री स्वामी खजानचन्द्र जी महाराज के परमानुग्रह से प्राप्त हुई थी। श्रद्धेय महाराज जी की कृपा से ही लाला जी को जैनधर्म की उपलब्धि हुई थी। उन्ही की कृपा से लाला जी सामायिक, नित्यनियम का सदा ध्यान रखा करते थे। धार्मिक, सामाजिक और साहित्यिक कार्यो मे अपने धन का सदा उपयोग करते रहते थे । श्री रामप्रसाद जी, श्री गोवर्धनदास जी, श्री केदारनाथ जी, लाला जी के सुयोग्य पुत्र है । इन मे जो धार्मिकता तथा सामाजिकता दृष्टिगोचर हो रही है, वह सब लाला जी के पुण्य-प्रताप का ही मधुर फल है। ___माता श्री गौरा देवी जी बडी उदार प्रकृति की देवी है। धर्मध्यान की इन को अच्छी लग्न है। दानपुण्य मे सदा अपने धन का सदुपयोग करती रहती है । दो वर्ष हुए, योगनिष्ठ श्रद्धेय श्री स्वामी फूलचन्द्र जी महाराज द्वारा लिखे "नयवाद" का प्रकाशन इन्होने ही करवाया था। प्राचार्यसम्राट् पूज्य श्री
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( ख )
आत्माराम जी महाराज द्वारा विनिर्मित "जैनागमों में परमात्मवाद, का प्रकाशन भी आप ही करवा रही है । आप की इस उदारता के लिए मै आप का धन्यवाद करता हू । और आशा करता हू कि भविष्य मे भी आप इसी भाति साहित्यिक सत्कार्यो मे अपने धन का सदुपयोग करती रहेगी ।
प्रार्थी
मन्त्री -
आचार्य श्री आत्माराम जैन प्रकाशनालय, जैनस्थानक, लुधियाना )
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दिग्दर्शन
वैदिक-परम्परा मे ईश्वर शब्दईश्वर शब्द वैदिक दर्शन का अपना एक पारिभाषिक शब्द है । वैदिक दर्शन के अनुसार उस महाशक्ति का नाम ईश्वर है, जो इस जगत की निर्मात्री है, एक है, सर्वव्यापक और नित्य है । वैदिक दर्शन का विश्वास है कि ससार के कार्यचक्र को चलाने की बागडोर ईश्वर के हाथ मे है, ससार के समस्त स्पन्दन उसी की प्रेरणा से हो रहे है।
वैदिक दर्शन कहता है कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है, वह जो चाहे कर सकता है। कर्तव्य को अकर्तव्य और अकर्तव्य को कर्तव्य बना देना उस के बाए हाथ का काम है । सारा ससार उस की इच्छा का खेल है, उसकी इच्छा के बिना एक पत्ता भी नही कम्पित हो सकता। ससार का उत्थान और पतन उसी के इशारे पर हो रहा है। __वैदिक दर्शन की आस्था है कि अज्ञ होने के कारण जीव अपने सुख और दुःख का स्वय स्वामी नहीं है, इस का स्वर्ग या नरक जाना ईश्वर की इच्छा पर निर्भर है। मनुष्य कुछ नही कर सकता। उसे तो स्वय को ईश्वर के हाथो मे सौप * कर्तु मकर्तु मन्यथा कतुं समर्थ ईश्वर । अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मन सुखदु खयो । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्, स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥
(महाभारत)
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देना चाहिए, ईश्वर की कृपा ही उसकी बिगडो बना सकती है। __ वैदिक दर्शन का कहना है कि भक्त ईश्वर की कितनी भक्ति कर ले,उपासना करले,कितना ही उसका गुणानुवाद करले, पर भक्त भक्त रहेगा और ईश्वर ईश्वर। भक्ति,पूजा,जप,तप त्याग वैराग्य आदि किसी भी प्रकार के अनुष्ठान के आराधन से भक्त ईश्वर नही बन सकता है। ईश्वर र भक्त के बीच मे जो भेद-मूलक फौलादी दीवार खडी है, वह कभी समाप्त नहीं हो सकती है। __इस के अलावा, वैदिक दर्शन विश्वास रखता है कि ससार मे जब अधर्म बढ जाता है, धर्म की भावनाए दुर्बल हो जाती है, पाप सर्वत्र अपना शासन जमा लेता है, तो पापियो का नाश करने के लिए तथा धर्म की स्थापना करने के लिए ईश्वर अवतार धारण करता है। मनुष्य, पशु आदि किसी न किसी रूप में जन्म धारण करता है। यह वैदिक दर्शन के ईश्वर के स्वरूप का सक्षिप्त परिचय है।
जैन-परम्परा और ईश्वर शब्दजैन साहित्य का परिशीलन करने से पता चलता है कि उस मे परमात्मा के अर्थ मे ईश्वर शब्द का कही प्रयोग नही नही मिलता है । जैनदर्शन मे परमात्मा के लिए सिद्ध, बुद्ध, अजर,अमर, सर्वदु खपहीण, निरजन, मुक्तात्मा आदि शब्दो का व्यवहार मिलता है। जैन दर्शन की दृष्टि से ये समस्त शब्द पर्यायवाची है, सामान्यतया एक ही अर्थ के वाचक है। मुक्तात्मा के स्वरूप का विवेचन करते हुए भगवान महावीर ने श्री आचाराग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पञ्चम अध्ययन के
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छठे उद्देशक में फरमाया है
मुक्त आत्मा का स्वरूप प्रतिपादन करने में समस्त शब्द हार मान जाते हैं, वहा तर्क का प्रवेश नही होता है । बुद्धि उसे अवगाहन नहीं करती है। वह मुक्तात्मा प्रकाश-स्वरूप है। वह समग्र लोक का ज्ञाता है। वह न लम्बा है, न छोटा है, न गोल है (गेन्द के आकार का नहीं है), न तिकोना है, न चतुष्कोण है और न परिमण्डल है (वलय-चूडी के आकार का नहीं है)-उस मुक्तात्मा को इन मे से कोई प्राकृति नही है। वह न काला है, न नीला है, न लाल है, न पीला है और न शुक्ल है- उसका कोई रूम नहीं है। वह न सुगन्ध वाला है, न दुर्गन्ध वाला है-उस मे कोई गन्ध नहीं है । वह न तीक्ष्ण (तीखा) है न कदक है न कसायला है, न खट्टा है और न मीठा है-उस मे कोई रस नही है। वह न कर्कश है, न मृदु है, न भारी है, न हलका है, न ठण्ठा है, न गरम है, न स्निग्ध है और न रूक्ष है-उस मे कोई स्पर्श नही है। वह मुक्तात्मा शरीररूप नही है। वह जन्म मरण के मार्ग को सर्वथा पार कर चुका है । वह अनासक्त है-प्रासाक्ति वाला नहीं है। वह न स्त्रो रूप है, न पुरुष-रूप है, न अन्यथा रूप है अर्थात् न नपुसक रूप है और अवेद है-वेद रहित है। वह समस्त पदार्थों का सामान्य और विशेष रूप से ज्ञाता है। उसे समझाने के लिए कोई उपमा नही है, वह अरूपी सत्ता है-रूप रहित सत्ता वाला है। उस अनिर्वचनीय को किसी वचन के द्वारा नही कहा जा सकता है । वह शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श स्वरूप नही है । शब्द के द्वारा वाच्य (जिस के लिए शब्द का प्रयोग किया जाता है)यही पदार्थ होते है, परन्तु मुक्तात्मा इन मे से कुछ नहीं है, अतः वह प्रवक्तव्य है।
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(४) जैनदर्शन मे मुक्तात्मा के अर्थ मे ईश्वर शब्द का व्यवहार नही किया जाता है, तथा जैनदर्शन, वैदिकदर्शन द्वारा माने गए ईश्वर का ईश्वरत्व (जगत्कर्तृत्व आदि) भी स्वीकार नह। करता है । जैनदर्शन का विश्वास है कि परमात्मा सत्यस्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है, आनदस्वरूप है, वीतराग है,सर्वज्ञ है,सर्वदर्शी है। परमात्मा का दृश्य या अदृश्य जगत मे प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई हस्तक्षेप नहीं है, वह जगत का निर्माता नहीं है, भाग्य का विधाता नही है, कर्म-फल का प्रदाता नही है, तथा अवतार लेकर वह ससार मे आता भी नही है।
जेनदर्शन कहता है कि व्यक्ति को अपेक्षा से परमात्मा एक नही है,अनन्तजीव परमात्मपद प्राप्त कर चुके है । परमात्मा अनादि नही है । परमात्मा को अनादि न मानने का इतना ही अभिप्राय है, कि जीव कर्मो को क्षय करने के अन्नतर ही परमात्मपद पाता है। परमात्मा एक जीव को दृष्टि से सादि अनन्त है,अनादि काल से जीव मुक्त हो रहे है,मोर अनन्त काल तक जीव मुक्त होते रहेगे इस दृष्टि से परमात्मा अनादि अनन्त भी है। परमात्मा आत्मप्रदेशो की दृष्टि से सर्वव्यापक नही है। उसके आत्मप्रदेश सीमित प्रदेश मे अवस्थित है, किन्तु उसके ज्ञान से सारा ससार आभासित हो रहा है, इस दृष्टि से (ज्ञान की दृष्टि से) उसे सर्वव्यापक भी कह सकते है । ससार के धन्धे मे उसका कोई हस्तक्षेप नही है। जीव को कर्म करने मे किसी सर्वथा स्वतन्त्र है, परमात्मा जोव कर्म करने मे किसो भी प्रकार की कोई प्रेरणा प्रदान नही करता है। उसे किसी कर्म के करने से वह निषिद्ध भी नहीं करता। जीव जो कर्म करता है,उसका फल जीव को स्वत. ही मिल जाता है। आत्मप्रदेशो से सम्बन्धित कर्म-परमाणु ही कर्म-कर्ता जीव को स्वय अपना फल दे डालते है। मदिरा मदिरासेवी व्यक्ति पर जैसे
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स्वय ही अपना प्रभाव डाल देती है, वैसे हो कर्म-परमाणु जोव को स्वत ही अपने प्रभाव से प्रभावित कर डालते है। परमात्मा का उसके साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई सम्बन्ध नही है । कर्मफल पाने के लिए जोव को परमात्मा के द्वार नह। खटखटाने पडते है । जीव सर्वथा स्वतत्र है, किसी भी दृष्टि से वह परमात्मा के अधीन नही है । सक्षेप मे कह सकते है
राम किसी को मारे नहीं, मारे सो नही राम । आप ही आप मर जायेगा, करके खोटा काम ।।
जनदर्शन की आस्था है कि जीव अपने भाग्य का स्वय निर्माता है, स्वर्ग, नरक मनुष्य की सद्-असद् प्रवृत्तियो का परिणाम है। अपनी नय्या को पार करने वाला भी जीव स्वय ही है और उसे डुबोने वाला भी वह स्वय ही है । इस मे परमात्मा का कोई सम्बन्ध नही है ।
ऊपर की पक्तियो मे यह स्पष्ट हो गया है कि ईश्वर शब्द वैदिक दर्शन का अपना एक पारिभाषिक शब्द है, जैनदर्शन मे उस के लिए कोई स्थान नहीं है। वैदिकदर्शन मे ईश्वर शब्द की जो परिभाषा व्यक्त की गई है, जैनदर्शन उस पर कोई
आस्था नही रखता है । जैनदर्शन तो सर्वोत्तम और सर्वथा निष्कर्म दशा को प्राप्त आत्मा को ही परमात्मा या सिद्ध या बुद्ध
आदि शब्दो के द्वारा प्रकट करता है। ऐसी निष्कर्म आत्मा को वह वैदिक सम्मत ईश्वर के नाम से कभी व्यवहृत नही करता है।
ईश्वर शब्द की व्यापकताईश्वर शब्द की ऐतिहासिक अर्थविचारणा पर विचार करते हुए मालूम होता है कि वैदिकदर्शन के यौवनकाल मे
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( ६ )
ईश्वर शब्द एक विशेष अर्थ मे रूढ था । उस समय जगत्कर्तृत्व आदि विविध शक्तियो की धारक महाशक्ति को ही ईश्वर के नाम से व्यवहृत किया जाता था, किन्तु अन्तिम कुछ शताब्दियों से ईश्वर शब्द सामान्यतया परमात्मा का निर्देशक बन गया है । ईश्वर शब्द का उच्चारण करते ही मनुष्य को सामान्य रूप से परमात्मा का बोध होता है । आज ईश्वर के उच्चारण करने पर जगत् की निर्मात्री, भाग्यविधात्री, कर्मफलप्रदात्री तथा अवतार-ग्रहित्री किसी शक्ति-विशेष का बोध नही होता है । ईश्वर एक है, सर्व व्यापक है, नित्य है, आदि बातो का भी प्राज ईश्वर शब्द परिचायक नही रहा है । आज तो ईश्वर शब्द सीधा परमात्मा का निर्देश करवाता हे । फिर चाहे कोई उसे किसी भी रूप मे स्वीकार करता हो । ईश्वर शब्द सामान्य रूप से परमात्मा का निर्देशक होने के कारण ही प्राजसर्वप्रिय बन गया है । आत्मवादा सभी दर्शनो ने ईश्वर शब्द को अपना लिया है, आत्मवादी सभी दर्शन ईश्वर को आदरास्पद स्वीकार करते है । जैनदर्शन जो सदा अनीश्रवादी कहा जाता रहा है और जिस ने ईश्वर शब्द को कभी अपनाया ही नही है । तथापि आज उस के अनुयायी सहर्ष ईश्वर का नाम लेते है, अपने को ईश्वरवादी कहने मे जरा सोच नही करते है । कारण स्पष्ट है कि ईश्वर शब्द आज वैदिकदर्शन का पारिभाषिक शब्द नही समझा जाता है । अब तो सामान्य रूप से वह परमात्मा का, सिद्ध का, बुद्ध का निर्देशक बन गया है । आज ईश्वर, परमात्मा, सिद्ध, बुद्ध, गाड (God), खुदा आदि सभी शब्द समानार्थक समझे जाते है | सैद्धान्तिक और साम्प्रदायिक दृष्टि से इन शब्दो के पीछे
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(७)
किसी का कोई भी पारिभाषिक अभिमत रह रहा हो, किन्तु जनसाधारण इन समस्त शब्दो से सामान्यतया परमात्मा का ही बोध प्राप्त करता है ।
ईश्वर के तीन रूप -
ऊपर की पक्तियो मे स्पष्ट कर दिया गया है, वैदिकदर्शन के यौवनकाल मे ईश्वर शब्द एक विशिष्ट और पारिभाषिक अर्थं का बोधक रहा है, किन्तु अन्तिम शताब्दियो मे इस का वह रूप परिवर्तित हो गया है । अब तो यह सामान्यतया परमात्मा का निर्देशक है । आज सभी आत्मवादी दर्शन ईश्वर को मानते है । कोई आत्मवादी दर्शन ईश्वर को सत्ता से इन्कार नही करता है । सभी इसे सहर्ष स्वीकार करते है ।
सामान्य रूप से सभी आत्मवादी दर्शन ईश्वर को मानते हे, किन्तु सैद्धान्तिक और साम्प्रदायिक दृष्टि से ईश्वर - सम्बन्धी गुणो मे वे थोडा-थोडा मतभेद रखते है । इसी मतभेद को लेकर आज ईश्वर के सम्बन्ध मे तीन विचार-धाराए उपलब्ध होती है । वे तीनो विचारधाराए सक्षेप मे इस प्रकार है
१ - ईश्वर एक है, अनादि है, सर्वव्यापक है, सच्चिदानन्द है, घट-घट का ज्ञाता है, सर्वशक्तिमान है, जगत् का निर्माता है, भाग्य का विधाता है, कर्मफल का प्रदाना है । ससार मे जो कुछ होता है, वह सब ईश्वर के सकेत से होता है । ईश्वर पापियों का नाश करने के लिए तथा धार्मिक लोगो का उद्धार करने के लिए कभी न कभी, किसी न किसी रूप मे ससार मे जन्म लेता है, वैकुण्ठ से नीचे उतरता है और अपनी लीला दिखा कर वापिस वैकुण्ठ धाम मे जा विराजता है ।
ईश्वर का यह एक रूप है, जिसे आज हमारे सनातनधर्मी
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भाई मानते है । ईश्वर का दूसरा रूप नीचे की पक्तियों में पढिए
२ - ईश्वर एक है, अनादि है, सर्वव्यापक है, सच्चिदानन्द है, चट-घट का ज्ञाता है, सर्वशक्तिमान है, ससार का निर्माता है । जीव कर्म करने मे स्वतन्त्र है, उस मे ईश्वर का कोई हस्तक्षेप नही है । जीव अच्छा या बुरा जैसा भी कर्म करना चाहे कर सकता है, यह उस की इच्छा की बात है, ईश्वर का उस पर कोई प्रतिबन्ध नही है किन्तु जीवो को उन के कर्मो का फल ईश्वर देता है । अपनी लीला दिखाने के लिए, पापियो का नाश करने के लिए और धर्मियो का उद्धार करने के लिए ईश्वर अवतार धारण नही करता है, भगवान से मनुष्य या पशु के रूप मे जन्म नही लेता है ।
ईश्वर का यह दूसरा रूप है, जिसे आज कल हमारे आर्य भाई मानते है । ईश्वर का तीसरा रूप भी समझ लीजिए३ - ईश्वर एक ही नही है, ईश्वर अनेक भी है, अनादि ही नही है, सर्वव्यापक ही नही है, अनन्त शक्तिमान है, घट-घट का ज्ञाता है, द्रष्टा है, जगत का निर्माता नही, भाग्य का विधाता नही, कर्मफल का प्रदाता नही, अवतार लेकर ससार मे श्राता नही, जीव कर्म करने में स्वतंत्र है, जीवकृत कर्म के साथ ईश्वर का प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई सम्बन्ध नही है । जीव की उन्नति या अवनति मे ईश्वर का कोई हस्तक्षेप नही है, ग्रहिसा, सयम और तप की त्रिवेणी मे विशुद्ध मनसा, वाचा और कर्मणा गोते लगाने वाला व्यक्ति निष्कर्मता को प्राप्त करके ईश्वर बन जाता है । ईश्वर और जीव मे केवल कर्म - -गत अन्तर है । कर्म की दावार यदि मध्य मे से उठा दी जाए तो जीव मे और ईश्वर मे
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(९) स्वरूप कृत कोई अन्तर नही रहता है, जीव ईश्वर-स्वरूप ही बन जाता है। ____ यह ईश्वर का तीसरा रूप है, जिसे जैन लोग स्वीकार करते है। जेनो की ईश्वर-सम्बन्धी मान्यता के सम्बन्ध मे पीछे भी वर्णन किया जा चुका है।
ईश्वर के सम्बन्ध मे अन्य अनेको रूप भी मिल जाते है। किन्तु मुख्य रूप से आज इन तीनो रूपो का ही अधिक प्रचार एव प्रसार देखने में आता है। इसलिए यहा इन तीनो का ही सक्षिप्त परिचय कराया गया है।
जनागमो मे परमात्मवादआरभ मे कहा जा चुका है कि जैनदर्शन मे परमात्मा के अर्थ मे ईश्वर शब्द का व्यवहार देखने नही आता है। परमात्मा के लिए जेनदर्शन मे सिद्ध, बुद्ध आदि पदो का प्रयोग मिलता है। अब यहा कई एक प्रश्न हमारे सामने आते है कि जैनदर्शन मे सिद्ध, बुद्ध आदि पदो का प्रयोग किस-किस रूप मे पाया जाता है? और कहा-कहा पाया जाता है ? तथा जैनदर्शन परमात्मा को एक कहता है या अनेक? सादि बतलाता है या अनादि? इन प्रश्नोका तथा इस प्रकारके अन्य प्रश्नोका समाधान प्राप्त करने के लिए हमे जैनागम-सागर का मन्थन करना होगा। जैनागमों का गभीर चिन्तन, मनन, निदिध्यासन किए बिना उक्त प्रश्नों का समाधान प्राप्त होना कठिन है । पर यह काम बच्चो का खेल नही है। इस के लिए प्रतिभा चाहिए
और जैनागमो का सम्यक्तया परिज्ञान होना चाहिए । जिस को जैनागमो का पर्याप्त बोध हो, उनके पूर्वापर सम्बन्धो की पूर्णतया जानकारी हो तथा उन मे निराबाध गति से जो
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(१०) विहरण कर सकता हो, ऐसा कोई आगम-ममस महापुरष हो इन प्रश्नो का समाधान कर सकता है। जनसाधारण वे वश का यह काम नहो है। ___ जैन समाज मे श्रागममहारथी महा-पुरुषो की कमी नहीं है। जैनागमो के मर्म को समझने वाले तथा उस के महासागर के तल का स्पर्श करने वाले समाज मे आज भी अनेको पूज्य मुनिराज हैं । किन्तु मालूम होता है कि इस सम्बन्ध मे उन्होने कोई ध्यान नही दिया। यही कारण है कि आज तक किसी ऐसी पुस्तक की रचना नहो हो सकी है, जिस में परमात्मसम्बन्धी
आगम-पाठो का सकलन किया गया हो। वैसे ऐसी पुस्तक होनी अवश्य चाहिए। जैनागमो मे जहा-जहा परमात्मा का वर्णन आता है, जिन शब्दो तथा जिस रूप मे वह वर्णन किया गया है उस सब का सकलन किसी पुस्तक मे अवश्य हो जाना चाहिए। तभी जैनागमो मे वर्णित परमात्म-स्वरूप का जनसाधारण को बोध प्राप्त हो सकता है।
आगमो मे यत्र-तत्र आए हुए परमात्मसम्बन्धी पाठो का सकलन होना चाहिए,ऐसा सकल्प तो जिज्ञासु पाठको के हृदयो मे वर्षों से चक्र लगा रहा है, किन्तु उसे पूरा करने का किसी ने प्रयास नहीं किया। मुझे हार्दिक हर्ष होता है. यह बताते हुए कि हमारे श्रद्धेय आचार्य-सम्राट श्री ने इस दिशा मे प्रयत्न करके उस सकल्प को आज पूरा कर दिया है । आचार्य श्री ने अपने अनवरत स्वाध्याय के बल पर आगमो से प्राय वे सभी पाठ सकलित कर लिये है, जिन मे परमात्मवाद को ले कर कुछ न कुछ कहा गया है, उसके स्वरूप को लेकर चितन किया गया है । उन पाठों का सकलित रूप ही आज हमारे सामने
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'जैनागमो में परमात्मवाद" यह पुस्तिका है । इस पुस्तिका मे परमात्मसम्बन्धी प्राय सभी पाठो को सग्रहीत कर लिया गया है। __“जैनागमो मे परमात्मवाद" मे सर्वप्रथम शास्त्रीय पाठ है, फिर टिप्पणी मे उसकी सस्कृत-च्छाया है । तदनन्तर उस पाठ की सस्कृत-व्याख्या है । तत्पश्चात् उसका हिन्दी में भावार्थ है। मूलपाठ देखने वाले को इस मे मूलपाठ मिलेगा। जो सस्कृत भाषा के विद्वान मूलपाठ के गभोर हार्द को सस्कृत भाषा मे जानने की रुचि रखते है, उनके लिए मूलपाठ की सस्कृत-व्याख्या का इसमे सयोजन किया गया है । जो हिन्दी मे उसे समझना चाहते है, उन के लिए हिन्दी भाषा मे उन पाठो का अनुवाद कर दिया गया है । इस प्रकार इस पुस्तिका को प्रत्येक दृष्टि से उपयोगी और लोकप्रिय बनाने का स्तुत्य प्रयास क्यिा गया है। इस का सभी श्रेय हमारे श्रद्धेय गुरुदेव जैन-धर्म-दिवाकर आचार्य-सम्राट् पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज को ही है। इन्ही के अनवरत परिश्रम का यह सुफल है । शारीरिक स्वास्थ्य ठीक न रहते हुए भी आचार्य श्री ने साहित्य-सेवा मे अपना यह योगदान दिया है, इस के लिए साहित्यजगत आचार्य श्री का सदा के लिए ऋणी रहेगा।
ईश्वर-सम्बन्धी हिन्दी साहित्य मे इस पुस्तक की अपनी विशिष्टि उपयोगिता है । जो व्यक्ति जानना चाहते है कि जैनागमो मे परमात्मा के सम्बन्ध मे कैसा निरूपण किया गया है? और किन-किन शब्दो मे किया गया है? उनको इस पुस्तक मे पर्याप्त सामग्री मिलेगी । और जो लोग यह कहते चले आ रहे है कि जैनदर्शन परमात्मा की सत्ता से इन्कार करता है,
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( १२) या उसके सम्बन्ध मे सर्वथा मौन है, उन लोगों को भी इस पुस्तक मे समुचित समाधान मिल जायेगा, इस पुस्तक के अध्ययन से उन को पता चल जायेगा कि जैनधर्म परमात्मा की सत्ता को सहर्ष स्वीकार करता है, प्रोर प्रामाणिकता के साथ परमात्मा के स्वरूप का प्रतिपादन करता है। इस तरह यह पुस्तक साहित्य-जगत मे महान उपकारक, हितावह प्रमाणित होगी, यह मै दृढता के साथ कह सकता हूं।
परमश्रद्धेय आचार्य सम्राट् श्री के हम आभारी है, जो शारीरिक दुर्बलता के रहते हुए भी साहित्य-सेवा के पुनीत कार्य को चालू रख रहे है। अबतक आचार्य श्री लगभग ६० पुस्तके लिख चुके है। नेत्र-ज्योति की मदता तथा एक कम अस्सी वर्षों को वयोवृद्ध अवस्था हो जाने पर आज भी श्रद्धेय आचार्य-देव इस पुनीत साहित्य-कार्य से विश्राम नहीं ले रहे है । अवसर निकालकर इस कार्य को करते ही रहते है । प्रस्तुत पुस्तिका भो आचार्य-देव की इसी लग्न का सुपरिणाम है । प्राचार्य-देव की इस साहित्यप्रियता, कृपालुता और दयालुता के लिए जितना भो उनका आभार प्रकट किया जाये उतना हो कम।
जनस्थानक, लुधियाना ? कार्तिक शुक्ला १५ २०१६)
-ज्ञानमुनि
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जैनागमों में परमात्मवाद
____ * मङ्गलाचरणम् * अमूर्तस्य चिदानन्द - रूपस्य परमात्मन । निरञ्जनस्य सिद्धस्य, ध्यान स्याद्रूपवर्जितम् ।
इत्यजस्र स्मरन् योगी, तत्स्वरूपावलम्बन ।
तन्मयत्वमवाप्नोति, ग्राह्यग्राहकवजितम् ॥ अनन्यशरणीभूय, स तस्मिन् लीयते यथा। ध्यातृ - ध्यानोभयाभावे, ध्येयमैक्य यथा व्रजेत् ॥
सोऽय समरसीभाव , तदेकीकरण मतम् ।
आत्मा यदपृथक्त्वेन, लीयते परमात्मनि ।। अलक्ष्य लक्ष्य-सम्बधात्, स्थूलात्सूक्ष्म विचिन्तयेत् । सालम्बाच्च निरालम्ब, तत्त्ववित् तत्त्वमजसा ॥
एव चतुर्विधध्यानामृतमग्न मुनेर्मन । साक्षात्कृतजगत्तत्त्व, विधत्ते शुद्धिमात्मन. ।।
- योगशास्त्र, प्रकाश १० परमात्मा का स्वरूप
मूल पाठ *सव्वे सरा णियट्टन्ति, तक्का जत्थ न विज्जइ, मइ तत्थ न गाहिया, ओए, अप्पइट्ठाणस्स खेयन्ने, से न
* सर्वे स्वराः निवर्तन्ते, तर्को यत्र न विद्यते, मतिस्तत्र न ग्राहिका, प्रोजः, अप्रतिष्ठानस्य खेदज्ञः, स न दीर्घो, न ह्रस्वो, न वृत्तो, न
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( २ )
दी, न हस्से, न वट्टे, न तसे, न चउरसे, न परिमडले, न किण्हे, न नीले, न लोहिए. न हालिदे, न सुकिल्ले, न सुरभिगन्धे, न दुरभिगन्धे, न तित्ते, न कडुए, न कसाए, न अबिले, न महुरे, न कक्खडे, न मउए, न गरुए, न लहुए, न सीए, न उण्हे, न निद्धे, न लुक्खे, न काऊ, न रहे, न सगे, न इत्थी, न पुरिसे, न अन्नहा, परिन्ने, सन्ने, उवमा न विज्जए, अरूवी सत्ता, अपयस्स पय नत्थि ।
सेन सद्दे, न रूवे, न गधे, न रसे, न फासे ।
—श्राचारागसूत्र प्रथमश्रुतस्कव अध्याय ५ उद्देश ६ |
संस्कृत - व्याख्या
" सर्वे" निरवशेषा. "स्वराः" ध्वनयस्तस्मान्निवर्तन्ते तद् वाच्य - वाचक-सम्बन्धे न प्रवर्तन्ते, तथाहिह - शब्दा प्रवर्तमाना रूप-रस- गन्धस्पर्शानामन्यतमे विशेषे सकेत - काल - गृहीते तत्तुल्ये वा प्रवर्त्तेरन, नचैतत्तत्र शब्दादिना प्रवृत्तिनिमित्तमस्ति प्रत शब्दानभिधेया मोक्षावस्थेति । न
त्र्यस्रो, न चतुरस्रो, न परिमण्डलो, न कृष्णो, न नीलो, न लोहितो, न हारिद्रो, न शुक्लो, न सुरभिगन्धो, न दुरभिगन्धो, न तिक्तो, न कटुको, न कषायो, नाम्लो, न मधुरो, न कर्कशो, न मृदुः, न गुरुः, न लघुः न शीतो, नोष्णो, न स्निग्धो, न रूक्षो, न कायवान्, न रुहः, न सगः, न स्त्री, न पुरुषः, नान्यथा, परिज्ञः, सज्ञ, उपमा न विद्यते, रूपिणी सत्ता, प्रपदस्य पदं नास्ति ।
स न शब्दः, न रूपः, न गन्धः, न रसः, न स्पर्शः ।
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( ३ )
केवलं शब्दानभिधेया, उत्प्रेक्षणीयापि न सभवतीत्याह - सभवत्पदार्थविशेषास्तित्वाध्यवसाय ऊहस्तर्क एवमेव चैतत्स्यात्, स च यत्र न विद्यते तत शब्दाना कुतः प्रवृत्ति स्यात् किमिति तत्र तर्काभाव इति चेदाह - मनन मतिः - मनसो व्यापार: पदार्थचिन्ता सौत्पत्तिक्यादिका चतुर्विधापि मतिस्तत्र न ग्राहिका, मोक्षावस्थाया सकल - विकल्पातीतत्वात्, तत्र च मोक्षे कर्माशसमन्वितस्य गमनमाहोस्विन्निष्कर्मणः १, न तत्र कर्मसमन्वितस्य गमनमस्तीत्येतद्दर्शयितुमाह - " प्रोज: " एकोऽशेष - मलकलाकरहितः, किं च न विद्यते प्रतिष्ठानमोदारिक-शरीरादेः कर्मणो वा यत्र सोऽप्रतिष्ठाणो मोक्षस्तस्य ' खेदज्ञो" निपुणो यदि वा अप्रतिष्ठानो नरकस्तत्र स्थित्यादिपरिज्ञानतया खेदज्ञो, लोक-नाडि- पर्यन्तपरिज्ञानावेदनेन च समस्तलोकखेदज्ञता आवेदिता भवति । सर्वस्वरनिवर्तन च येनाभिप्रायेणोक्तवास्तमभिप्रायमाविष्कुर्वन्नाह - 'स' परमपदाभ्यासी लोकान्तक्रोशषड्भागक्षेत्रावस्थानोऽनन्तज्ञानदर्शनोपयुक्ता सस्थानमाश्रित्य न दीर्घो न ह्रस्वो न वृत्तो, न त्र्यस्रो, न चतुरस्रो, न परिमडलो, वर्णमाश्रित्य न कृष्णो, न नीलो, न लोहितो, न हारिद्रो, न शुल्को, गन्धमाश्रित्य - न सुरभिगन्धो, न दुरभिगन्धो, रसमाश्रित्य न तिक्तो, न कटुको, न कषायो, नाम्ल न मधुरः, स्पर्शमाश्रित्य न कर्कशो, न मृदु, न लघुः, न गुरु., न शीतो, नोष्णो, न स्निग्धो, न रूक्षो, 'न काउ' इत्यनेन लेश्या गृहीता यदि वा न कायवान्. यथा वेदान्तवादिनाम् - एक एव मुक्तात्मा तत्कायमपरे क्षीणक्लेशा अनुप्रविशन्ति प्रादित्य- रश्मय इवाशुमन्तमिति, तथा न 'रुह्' बीज - जन्मनि प्रादुर्भावे "च" - रोहतीति - रुहः न रुहोऽरुहः कर्मबीजाभावादपुनर्भावीत्यर्थ न पुनर्यथा शाक्याना दर्शन - निकारतो मुक्तात्मनोऽपि पुनर्भवोपादानमिति, उक्त च
2
"
दग्धनः पुनरुपैति भवं प्रमथ्य, निर्वाणमप्यनवधारित-भीरुनिष्ठम् ।
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(४)
मुक्त स्वय कृतभवश्व पराथशूर,
स्त्वच्छासन-प्रतिहतेष्विह मोहराज्यम् ॥१॥ तथा च न विद्यते सगोमूतत्वाद्य स्य स तथा, तथा न स्त्री, नपुरुषो, नान्यथेति-न नपु सका केवल सर्वैरात्मप्रदेशै परि-समन्तात विशेषतो जानातीति-परिज्ञः, तण सामान्यत सम्यग् जानाति-पश्यति इति सज्ञा, ज्ञानदर्शनयुक्त इत्यर्थ । यदि नाम स्वरूपतो न ज्ञायते, मुक्तात्मा तथाप्युपमाद्वारेणादित्य गतिरिव ज्ञायत एवेति चेत् तन्न यत उपमीयते सादृश्यात् परिच्छिद्यते यया सोपमा-तुल्यता सा मुक्तान्मनस्तज्ज्ञानसुखयोर्वा न विद्यते,लोकातिगत्वात्तेषा, कुत एतदिति चेदाह-तेषा मुक्तात्मना या सत्ता सा अरूपिणी अरूपित्व च दीर्घादिप्रतिषेधन प्रतिपादितमेव । कि च न विद्यते पदम् – अवस्था विशेषो यस्य सोऽपद तस्य पद्यते-गम्यते येनार्थस्तत्पदम्-अभिधान तच्च नास्ति' न विद्यते वाच्यविशेषाभावात् तथाहि-योऽभिधीयते स शब्द-रूप-गन्ध-रसस्पर्शान्यतरविशेषेणाभिधीयते तस्य च तदभाव इत्येतद्दर्शयितुमाह-यदि वा दीर्घ इत्यादिना रूपादिविशेष-निराकरण कृतम्, इह तु तत्सामान्य-निराकरण कर्तु कामाह-स मुक्तात्मा न शब्दरूपः, न रूपात्मा, न गन्ध , न रस., न स्पर्ग ।
हिन्दी भावार्थमुक्तात्मा का स्वरूप बताने के लिए कोई भी शब्द समर्थ नही है । तर्क की वहा गति नही होती है । बुद्धि वहा तक जा नही सकती है। उसकी कल्पना नही की जा सकती है। वह मुक्तात्मा सकल कर्म रहित, सम्पूर्ण ज्ञानमय दशा मे विराजमान है। वह न लम्बा है, न छोटा है, न गोल है, न त्रिकोण है, न चौरस है, न मण्डलाकार है, न काला है, न नीला है, न लाल है। वह पीला और सफेद भी नहीं है। सुगन्ध और दुर्गन्ध
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( ५ ) वाला नही है । तीक्ष्ण और कटुक नही है । कसैला, 1 खट्टा और मीठा नही है । वह न कठोर है, न सुकुमार है, न हल्का है, न भारी है, न शीत है, न उष्ण है, न स्निग्ध है, न रूक्ष है, न शरीरधारी है, न पुनर्जन्मा है, न आसक्त है, न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुसक है । वह ज्ञाता है, परिज्ञाता है, उसकी उपमा नही है । वह अरूपी है, अवर्णनीय है, शब्दो द्वारा उसका वर्णन नही किया जा सकता है ।
मुक्तात्मा शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श स्वरूप भी नही है ।
मूल पाठ
एक्कतीस सिद्धाइगुणा पण्णत्ता, तजहा - खोणे आभिणिबोहिय - णाणावरणे, खीणे सुयणाणावरणे, खोणे ओहियणाणावरणे, खीणे मणपज्जवणाणावरणे
*
* एकत्रिशत् सिद्ध दिगुणा: प्रज्ञप्ता तद्यथा क्षीणमाभिनिबोधिकज्ञानावरण, क्षीण श्रुतज्ञानावरण, क्षीणमवधिज्ञानावरण, क्षीण मन पर्यवज्ञानावरण, क्षीण केवलज्ञानावरण क्षीण चक्षुर्दर्शनावरण क्षीणमचक्षुर्दर्शनावरण, क्षीणमवधिदर्शनावरण, क्षीण केवलदर्शनावरण, क्षीणा निद्रा, क्षीणा निद्रानिद्रा, क्षीणा प्रचला, क्षीणा प्रचलाप्रचला, क्षीणा स्त्यानद्धि, क्षीण सातावेदनीय, क्षीणमसातावेदनीयं, क्षीण दर्शनमोहनीय, क्षीण चारित्रमोहनीय, क्षीण नैरयिकायुष्क, क्षीण तिर्यगायुष्क, क्षीण मनुष्यायुष्क, क्षीण देवायुष्क, क्षीणमुच्चगोत्र, क्षीण नीचगोत्र, क्षीण शुभनाम, क्षीणमशुभनाम, क्षीणो दानान्त- राय, क्षीणो लाभान्तराय क्षीणो भोगान्तराय, क्षीण उपभोगान्तराय, क्षीणो वीर्यान्तरायः ।
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(६)
खीणे केवलणाणावरणे, खीणे चक्खुदसणावरणे, खीणे अचक्खुदसणावरणे, क्षोणे ओहिदसणावरणे, खीणे केवलदसणावरणे, खीणे णिद्दा, खीणे निद्दानिद्दा, खीणे पयला, खीणे पयलापयला, खीणे थीणद्धी, खीण सायावेयणिज्जे, खीण असायावेयणिज्जे, खीण दसणमोहणिज्जे, खीण' चरित्तमोहणिज्जे, खीण नेरइआउए, खीण तिरिआउए, खीण मण साउए, खीण देवाउए, खीण उच्चागोए, खीण निच्चागोए, खीण सुभणामे, खीण असुभणामे, खीण दाण तराए, खीण लाभतराए, खीण भोगतराए, खीण उवभोगतराए, खीण वीरियतराए।
-समवायाग सूत्र, सभवाय ३१
हिन्दी-भावार्थसिद्धों के ३१ गुण माने जाते है । जैसे कि१. आभिनिबोधिक ज्ञानावरण-मतिज्ञानावरण कर्म का क्षय । २. श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षय । ३ अवधि-ज्ञानावरण कर्म का क्षय । ४ मन पर्यव-ज्ञानावरण कर्म का क्षय । ५ कैवल-ज्ञानावरण कर्म का क्षय । ६. चक्षुर्दर्शनावरण कर्म का क्षय । ७. अचक्षुदर्शनावरण कर्म का क्षय । ८. अवधि-दर्शनावरण कर्म का क्षय । ९. केवल-दर्शनावरण कर्म का क्षय ।
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(७) १०. निद्रा का क्षय। ११ निद्रानिद्रा का क्षय । १२ प्रचला का क्षय १३. प्रचल-प्रचला का क्षय । १४ स्त्यानद्धि का क्षय । १५ सातावेदनीय कर्म का क्षय । १६ असातावेदनीय कर्म का क्षय । १७ दर्शनमोहनीय कर्म का क्षय। १८. चारित्रमोहनीय कर्म का क्षय । १९. नरकायु का क्षय। २०. तिर्यञ्चायु का क्षय । २१. मनुष्यायु का क्षय । २२ देवायु का क्षयं । २३. उच्च गोत्र कर्म का क्षयं । २४ नीच गोत्र कर्म का क्षय । २५. शुभ नाम कर्म का क्षय । २६ अशुभ नाम कर्म का क्षय । २७ दानान्तराय कर्म का क्षय । २८. लाभान्तराय कर्म का क्षय । २९ भोगान्तराय कर्म का क्षय । ३०. उपभोगान्तराय कर्म का क्षय । ३१. वीर्यान्तराय कर्म का क्षय ।
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( 3 )
मूल पाठ
*
कहि पहिया सिद्धा ? कहि सिद्धा पडिट्टिया ?
कहि बोदि चइता ण, कत्थ गतूण सिज्झइ ? || १||
संस्कृत - व्याख्या
/
अथ- प्रश्नोत्तर द्वारेण सिद्धानामेव वक्तव्यतामाह - कहि इत्यादि श्लोकद्वय, क्व प्रतिहता - क्व प्रस्खलिता सिद्धा मुक्ता ? तथा वव सिद्धा. प्रतिष्टिता व्यवस्थिता इत्यर्थ ? तथा क्व बोन्दि-शरीर त्यक्त्वा ? तथा क्व गत्वा सिज्झइ त्ति - प्राकृतत्वात् । से हु चाइत्ति वुच्च इ. इत्यादिवत् सिध्यन्तीति व्याख्येयमिति ।
हिन्दी - भावार्थ प्रतिहत होते है ? अर्थात् निष्कर्म आत्मा करती हुई कहा पर जा कर रुकती है ?
सिद्ध कहा पर ऊपर की ओर गमन सिद्ध कहा पर जा कर ठहरते है ?
सिद्ध कहा पर शरीर छोड़ते है और कहा पर जा कर सिद्धावस्था को प्राप्त करते है ?
मूल पाठ
+
अलोगे पsिहया मिद्धा, लोयग्मे य पडिट्ट्यिा | इह बोन्दि चइता णं, तत्थ गन्तूण सिज्झइ || २ ||
* कुत्र प्रतिहता सिद्धा ?, कुत्र सिद्धाः प्रतिष्ठिता ? कुत्र बोन्दि (शरीर ) च त्यक्त्वा, कुत्र गत्वा सिध्यन्ति ? + अलोके प्रतिहता. सिद्धा, लोकाग्रे च प्रतिष्ठिता: । इह बोन्दि (शरीर ) त्यक्त्वा, तत्र गत्वा सिध्यन्ति ||
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(९)
सस्कृत-व्याख्या अलोके प्रलोका काशास्तिकाये प्रतिहता -स्खलिता सिद्धा-मुक्ता', प्रतिस्खलन चेहानन्तर्यवृत्तिमात्र, तथा लोकाग्रे च पचास्तिकायात्मकलोकमूर्धनि च प्रतिष्ठिता-अपुनरागत्या व्यवस्थिता इत्यर्थ , तथा इहमनुष्यक्षेत्रे बोन्दि-तनु परित्यज्य तत्रेति लोकाने गत्वा सिझइ त्ति सिध्यन्ति निष्ठितार्था भवन्ति ।
हिन्दी-भावार्थ सिद्ध अलोक से प्रतिहत होते है, और लोक के अग्रभाग पर जा कर ठहरते है।
मनुष्य क्षेत्र मे शरीर छोडते है और लोकाग्रभाग पर सिद्धावस्था को प्राप्त होते है।
मूल पाठ * ज सठाण इह भवे, चयतस्स चरिमसमयम्मि । आसी य पएसघण, त सठाण तहि तस्स ॥३॥
सस्कृत-व्याख्या किञ्च-ज सठाण, गाहा व्यक्ता, नवर प्रदेशघनमिति त्रिभागेन रन्ध्रपूरणादिति हि' ति सिद्धि-क्षेत्रे 'तस्स' त्ति सिद्धस्येति ।
हिन्दी-भावार्थ सिद्ध आत्मा का इस मनुष्य क्षेत्र मे जो सस्थान (आकार) होता है, अन्तिम समय मे वह छोटा रह जाता है। छोटा हो
* यत्सस्थान मिहभवे, त्यजत चरमसमये ।
आसीच्च प्रदेशघन, तत्सस्यान तत्र तस्य ।।
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( १० )
1
जाने का कारण यह है कि शरीर मे आत्मप्रदेशो का जो फैलाव होता है, शरीर से बाहिर निकलने पर वह उस रूप मे नही रहने पाता है, तीसरा भाग उस में कम पड जाता है । तीसरा भाग कम हो जाने पर सिद्ध जीव के आत्म प्रदेशो का जो आकार होता है, वही प्रकार मोक्षावस्था मे उस सिद्ध जीव का बना रहता है ।
मूल पाठ
* दोह वा हस्स वा ज चरिमभवे हवेज्ज सठाण । तत्तो तिभागहीण, सिद्धाणोगाहणा भणिया ||४||
संस्कृत - व्याख्या
तथा चाह - 'दीह वा' गाहा, दीर्घं वा पञ्च धनु - शतमान हस्व वा-हस्तद्वयमान वा शब्दात् मध्यम वा यच्चरमभवे भवेत्सस्थान "तत " तस्मात् सस्थानात् त्रिभागहीना त्रिभागेन शुषिरपूरणात् सिद्धानामवगाहना - अवगाहन्ते अस्यामवस्थायामिति श्रवगाहना स्वावस्थैवेति भाव. भणिता उक्ता जिनैरिति ।
हिन्दी- भावार्थ
(मुक्त) का दीर्घ - बडा या हस्व - छोटा उस मे से तीसरा भाग कम कर देने
चरमशरीरी जीव जो सस्थान होता है, पर जो शेष रहता है, वह सस्थान सिद्ध जीवो की अवगाहना (आकार) होती है । हार्द यह है कि चरमशरीरी जीव के शरीर मे नासिकारध्र, कर्ण - रन्ध्र आदि जो आत्मप्रदेशो से
* दीर्घं वा हस्व वा यत् चरमभवे भवेत् संस्थानम् ।
ततः त्रिभागहीन, सिद्धानामवगाहना भणिता ॥
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(११) रहित स्थान रहता है, आत्मा के मुक्त हो जाने पर आत्मप्रदेश उस स्थान मे व्याप्त हो जाते है, परिणामस्वरूप शरीरस्थ उन जीवप्रदेशो का जो आकार रहता है, वह मुक्त दशा मे रहने नहीं पाता है। उस मे न्यूनता आ जाती है और वह न्यूनता भी शरीराधिष्ठित आत्मप्रदेशो के आकार के तीन भागो मे से एक भाग की होती है। इसी लिए ऊपर गाथा मे कहा गया है कि जोव का दीर्घ या ह्रस्व जो सस्थान होता है, उस मे से तीसरा भाग कम कर देने पर अवशिष्ट सस्थान सिद्ध-जीवो मे पाया जाता है।
मल पाठ तिण्णि सया तेत्तीसा, धणू त्ति भागो य होइ बोधवा । एसा खलु सिद्धाण, उक्कोसोगाहणा भणिया ।।५।। - चत्तारि य रयणीओ-रयणि-त्ति भागूणिया य बोद्ध ब्वा । एसा खलु सिद्धाण, मज्झिमओगाहणा भणिया ॥६॥ एक्का य होइ रयणी, साहीया अगुलाइ अट्ठ भवे । एसा खलु सिद्धाण, जहण्णओगाहणा भणिया ।।७।।
-
* त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिशत् धनूषि त्रिभागश्च भवति बोधव्या । एषा खलु सिद्धानामुत्कृष्टा अवगाहना भणिता ॥ चतस्रश्च रतनय रत्निविभागोनिका च बोधव्या । एषा खलु सिद्धाना मध्यमावगाहना भणिता ॥ एका च भवति रनि साधिका अगुलानि अष्ट भवेयु । एषा खलु सिद्धाना जघन्यावगाहना भणिता ।।
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(१२)
सस्कृत-व्याख्या अथावगाहनामेवोत्कृष्टादिभेदत पाह-'तिण्णि सते' त्यादि, इय च पञ्चधनु शतमानाना 'चत्तारि ये' त्यादि तु सप्तहस्तानाम् ‘एगा ये' त्यादि द्विहस्तमानानामिति । इय च त्रिविधाऽप्यूर्ध्वमानमाश्रित्यान्यथा सप्तहस्तमानाना च उपविष्टाना सिद्धयतामन्यथाऽपि स्यादिति । प्राक्षेपपरिहारौ पुनरेवमत्र-ननु नाभिकुलकर पञ्चक्शित्यधिकपञ्चधनु शतमान: प्रतीत एव, तद्भार्यापि मरुदेवी तत्प्रमाणव, 'उच्चत्त चेव कूलगरेहि सममिति वचनात् अतस्तदवगाहना उत्कृष्टावगाहनातोऽधिकतरा प्राप्नोतीति कथ न विरोध ? पत्रोच्यते, यद्यपि उच्चत्व कुलकरतुत्य तद् योषितामित्युक्त, तथापि प्रायिकत्वादस्य स्त्रीणा च प्रायेण पुम्भ्यो लघुतरत्वात् पञ्चैव धनु – शतान्यसावभवत्, वृद्धकाले वा सकोचात् पञ्चधनु शतमाना सा अभवद्, उपविष्टा वाऽमौ सिद्ध ति न विरोध , अथवा बाहुल्यापेक्षमिदमुत्कृष्टावगाहनामान, मरुदेवी त्वाश्चर्यकल्पेत्येवमपि न विरोध , ननु जघन्यत सप्तहस्तोच्छितानामेव सिद्धि प्रागृक्ता, तत्कथ जघन्यावगाहना अष्टागुलाधिकहस्तप्रमाणा भवतीति ?, अत्रोच्यते, सप्तहस्तोच्छि तेषु सिद्धिरिति तीर्थंकरापेक्ष, तदन्ये तु द्विहस्ता अपि कूर्मपुत्रादयः सिद्धा: अतस्तेषा जघन्याऽवसेया, अन्येत्वाहु:-सप्तहस्तमानस्य सवर्तितागोपागस्य सिद्धयतो जघन्यावगाहना स्यादिति ।
हिन्दी-भावार्थ सिद्धो की उत्कृष्ट अवगाहना तीन सौ तेत्तीस धनुष और एक धनुष का तीसरा भाग मानी जाती है।
सिद्धों की मध्यम अवगाहना एक हाथ का तीसरा भाग कम चार हाथ बतलाई गई है।
सिद्धो की जघन्य अवगाहना आठ अगुल अधिक एक हाथ होती है।
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(१३)
मूल पाठ * ओगाहणाए सिद्धा भवत्तिभागेण होइ परिहोणा । सठाणमणित्थथ, जरामरणविप्पमुक्काण ॥८॥
सस्कृत-व्याख्या 'अोगाहणाए' गाहा व्यक्ता, नवरम्, 'अणित्थथ' त्ति प्रमु प्रकारमापन्नमित्थ इत्थ तिष्ठतीति इत्थस्थ न इत्थस्थ अनित्थस्थ न केनचिल्लौकिकप्रकारेण स्थितमिति ।
हिन्दी-भावार्थ जिस अवगाहना (लम्बाई-चौडाई) मे सिद्धात्माए विराजमान होती है, वह मनुष्य-जीवन की अवगाहना से तीसरा भाग कम होती है। जरा (वृद्धावस्था) और मरण से रहित सिद्धजीवो का सस्थान (आकार) अनिश्चित होता है। लोक मे जो सस्थान पाए जाते है, उन मे से किसी विशेष सस्थान का वहा कोई नियम नही होता।
मूल पाठ जत्थ य एगो सिद्धो तत्थ अणता भवक्खयविप्पमुक्का । अण्णोण्णसमवगाढा पुट्टा सव्वे य लोगन्ते । ॥९॥
* अवगाहनाया सिद्धाः भवत्रिभागेन भवतु परिहीना ।
सस्थानमनित्थस्थ, जरा-मरण-विप्रमुक्तानाम् ॥ + यत्र चैक. सिद्धः, तत्रानता भवक्षयविमुक्ताः ।
अन्योन्यसमवगाढाः, स्पृष्टा. सर्वे च लोकान्ते ।।
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(१४)
सस्कृत-व्याख्या अर्थते कि देशभेदेन स्थिता उतान्यथेत्यस्यामाशकायामाह-'जत्थ य' गाहा, यत्र च-यत्रैव देशे एक सिद्धो-नितस्तत्र देशे अनन्ता f म् ? -'भवक्षयविमुक्ता' इति भवक्षयेन विमुक्ता भवक्षयविमुक्ता', अनेन स्वेच्छया भवावतरणशक्तिमत्सिद्धव्यवच्छेदमाह । अन्योन्यसमवगाढा तथाविधाचिन्त्यपरिणामत्वाद्धर्मास्तिकायादिवदिति, स्पष्टा - लग्ना' सर्वे च लोकान्ते, अलोकेन प्रतिस्खलितत्वाद्, अतएव 'लोयग्गे य पइट्ठिया' इत्युक्त मिति ।
हिन्दी-भावार्थ सिद्ध-जीव भवक्षय (जन्म-मरण का नाश) के कारण मुक्त माने जाते है। जहा एक सिद्ध रहता है, वहीं अनन्त सिद्ध आत्माए निवास करती है। ये सब एक-दूसरे का अवगाहन कर रहे हैं, जिन प्राकाशप्रदेशो पर एक सिद्ध विराजमान हे, उन्ही पर अनन्त सिद्ध अवस्थित है। अनेक दीपको के प्रकाश जैसे एक-दूसरे के साथ रहते है, वैसे ही अनन्त सिद्ध-जीवो के आत्मप्रदेश परस्पर अवगाहन को प्राप्त हो रहे है। इस के अतिरिक्त, सभी सिद्धो के आत्मप्रदेश लोक के अन्त का स्पर्श भी कर रहे है।
मूल पाठ * फुसइ अणते सिद्धे सव्वपएसेहि णियमसो सिद्धो। ते वि असखेज्जगुणा देसपएसेहिं जे पुट्ठा ॥१०।। * स्पृशति अनन्तान् सिद्धान्, सर्वप्रदेश. नियमतः सिद्ध. । तेऽपि असंख्येयगुणा. देशप्रदेश ये स्पृष्टा ।
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(१५)
सस्कृत-व्याख्या तथा 'पुसइ' गाहा, स्पृशत्यनन्तान्सिद्धान् सर्वप्रदेशैरात्मसम्बन्धिभि' fणयमसो' ति नियमेन सिद्ध , तथा तेऽप्यसख्येयगुणा वर्तन्ते देश प्रदेशश्च ये स्पृष्टा , केभ्य. ? सर्वप्रदेशस्पृष्टभ्यः, कथम् ?--सर्वात्मप्रदेश स्तावदनन्ता स्पृष्टा , एक सिद्धावगाहनायामनन्तानामवगाढत्वात्, तर्थ कैकदेशेनाप्यनन्ता एवमेकैकप्रदेशेनाप्यनन्ता एव, नवर देशो-द्वयादिप्रदेश:समुदाय , प्रदेशस्तु-निविभागोऽश इति, सिद्धश्चासख्येयदेशप्रदेशात्मक , ततश्च मूलानन्तकमसख्येयैर्देशानन्तकै रसख्यैरेव च पदेशानन्तकगुणित यथोक्तमेव भवतीति ।
हिन्दो-भावार्थ सिद्ध अपने आत्मप्रदेशो से अनन्त सिद्धो को स्पर्श किए हुए है और देश (दो से अधिक) एव प्रदेश (एक आत्मप्रदेश) द्वारा जो स्पर्श किए हुए है, वे उन से असख्यात गुणा है ।
मूल पाठ * असरोरा जीवघणा उवउत्ता दसणे य नाणे य । सागारमणागार लक्खणमेय तु सिद्धाण ।।११।।
सस्कृत-व्याख्या अथ सिद्धानेव लक्षणत पाह-'असरीरा' गाहा, उक्तार्था, सग्रहरूपत्वाच्चास्या न पुनरुक्तत्वमिति ।।
हिन्दी-भावार्थ सिद्ध भगवान अशरीरी है, औदारिक, वैक्रिय आदि पञ्च* अशरीरा जीवघना उपयुक्ता दर्शने च ज्ञाने च। साकारमनाकार लक्षणमेतत् तु सिद्धानाम् ।।
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(१६) विध शरीरो से रहित है, उन के आत्मप्रदेश सघन हे, पोलार से रहित है, दर्शन ओर ज्ञान के उपयोग से युक्त है, वे साकारोपयोग-ज्ञानोपयोग वाले है, तथा निराकारोपयोग-दर्शनोपयोग वाले है । यही सिद्धो का स्वरूप है ।
मूल पाठ * केवलणाणुवउत्ता जाणति सव्वभावगुणभावे । पासति सव्वओ खलु केबलदिट्ठोहि अणताहि ।।१२।।
सस्कृत-व्याख्या ‘उवउत्ता दसणे य णाणे य" त्ति यदुक्त, तत्र ज्ञानदर्शनयोः सर्वविषयतामुपदर्शयन्नाह–'केवल' गाहा, केवलज्ञानोपयुक्ताः सन्त न त्वन्त करणोपयुक्ताः, भावतस्तदभावात्, जानन्ति सर्वभावगुण-भावान्, समस्तवस्तुगुणपर्यायान्, तत्र गुणा – सहवर्तिन', पर्यायास्तु-क्रमवर्तिन इति, तथा पश्यन्ति 'सर्वत. खलु' सर्वत एवेत्यर्थ केवलदृष्टि भिरनन्ताभि -केवलदर्शनैरनन्तरित्यर्थ , अनन्तत्वात् सिद्धानामनन्तविषयत्वाद्वा दर्शनस्य केवलदृष्टिभिरनन्ताभिरित्युक्तम्, इह चादो ज्ञानग्रहण प्रथमतया तदुपयोगस्थाः सिध्यन्तीति ज्ञापनार्थमिति ।
हिन्दी-भावार्थ सिद्ध भगवान केवल ज्ञानोपयोग से सब पदार्थों के गुण और पर्यायो को जानते है, एव अनन्त केवल-दर्शनोपयोग से सभी पदार्थो के गुण और पर्यायो को देखते है।
* केवलज्ञानोपयुक्ता जानन्ति सर्वभावगुणभावान् । पश्यन्ति सर्वतः खलु केवलदृष्टिभिरनन्ताभि ||
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(१७)
मूल पाठ * णवि अत्यि मागु गाण त सोक्ख णवि य सव्वदेवाण । ज सिद्धाण सोवख अव्वाबाह उवगयाण ॥१३॥
सस्कृत-व्याख्या अथ सिद्धाना निरुपमसुखता दर्शयितुमाह-‘णवि अस्थि' गाहा व्यक्ता, नवरम् 'अव्वाबाह' ति विविधा प्राबाधा व्याबाधा तन्निषेधादव्याबाधा तामुपगताना प्राप्तानामिति ।
हिन्दी-भावार्थ नाना प्रकार की बाधाओ-पीडाप्रो से रहित सिद्धो को जो सुख प्राप्त है, वह सुख न सर्वदेवताओ को प्राप्त है और न सब मनुष्यो को।
मूल पाठ |ज देवाण सोक्ख सव्वद्धापिण्डिय अणतगुण । ण य पावइ मुत्तिसुह णताहि वग्गवग्गूहि ॥१४॥
सस्कृत-व्याख्या कस्मादेवमित्याह-'ज देवाण' गाहा, 'यतो' यस्माद्देवानाम्अनुत्तरसुरान्ताना 'सौख्य' त्रिकालिकसुख सर्वाद्धया-प्रतीतानागतवर्त* नाप्यस्ति मानुषाणा तत्सौख्यं नापि च सर्वदेवानाम् ।
यत् सिद्धाना सौख्यमव्यावाधामुपगतानाम् ।। + यद्देवाना सौख्य सर्वाद्धापिण्डितमनन्तगुणम् । न च प्राप्नोति मुक्तिसुखमनन्ताभि वर्गवर्गाभि ॥
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( १८ )
मानकालेन पिण्डित - गुणित सर्वाद्धापिण्डित, तथाऽनन्तगुणमिति, तदेव - प्रमाण किलासद्भावकल्पनयैकैकाकाशप्र देशे स्थाप्यते इत्येव सकललोकालोकाकाशानन्तप्रदेशपूरणेनानन्त भवति, न च प्राप्नोति मुक्ति सुख - नैव मुक्तिसुखसमानता लभते श्रनन्तानन्तत्वात्सिद्धसुखस्य, विविध देवसुखमित्याह - अनन्ताभिरपि 'वर्गवगाभि.' वर्गवर्गर्वेगितमपि तत्र तद्गुणो वर्गो यथा द्वयोर्वर्गश्चत्वारः तस्यापि वर्गो वर्गवर्गों यथा षोडश एवमनन्तशो वर्गितमपि । चूर्णिकारस्त्वाह- अनन्तैरपि वर्गवर्गे - खण्डखण्डे खण्डित सिद्धसुख तदीयानन्तानन्ततमखण्डसमतामपि न लभते इत्यर्थं । ततो नास्ति तन्मानुषादीना सुख यत्सिद्धानामिति प्रकृतम ।
हिन्दी- भावार्थ
देवताओं के त्रैकालिक सुख को एकत्रित कर के यदि अनन्त गुणा किया जाए, तो भी वह मुक्ति-सुख के ग्रनन्तवे भाग की समता नही कर सकता है ।
मूल पाठ
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# सिद्धस्स सुहो रासी सव्वद्धापिण्डिओ जइ हवेज्जा | सोऽनतवग्गभइओ सव्वागासे ण माएज्जा ॥ १५॥ संस्कृत - व्याख्या
सिद्धसुखस्यैवोत्कर्षणाय भङ्गयन्तरेणाह - ' सिद्धस्स' गाहा, सिद्धस्य मुक्तस्य सम्बन्धी 'सुख' सुखाना सत्को 'राशि' समूह. सुखसघात इत्यर्थ:, 'सर्वाद्धापिण्डित' सर्वकालसमयगुणितो यदि भवेद् श्रनेन चास्य कल्पनामात्रतामाह—–सोऽनन्त वर्गभक्तो - अनन्त वर्गापवर्तित सन् समीभूत
* सिद्धस्य सुखो राशिः सर्वाद्धापिण्डितो यदि भवेद् ।
सोऽनन्त वर्गभक्त सर्वाकाशे न मायात् ||
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(१९) एवेति भावार्थ , 'सर्वाकाशे' लोकालोकरूपे न माया, अयमत्र भावार्य - इह किल विशिष्टाह्लाद-रूप सुख गृहयते, ततश्च यत प्रारभ्य शिष्टाना सुख-शब्दप्रवृत्तिस्तमालादमवधीकृत्य एकैकगुणवृद्धितारतम्येन तावदसावाह्लादो विशिष्यते यावदनन्तगुणवृद्ध या निरतिशयनिष्ठा गत8, ततश्चासावत्यन्तोपमातीतैकान्तिकौत्सुक्यविनिवृत्तिरूपः स्तिमिततममहोदधिकल्पश्चरमाह्लाद एव सदा सिद्धाना भवति, तस्माच्चारात् प्रथमाच्चोलमपान्तरालतिनो ये तारतम्येनाह्लादविशेषास्ते सर्वाकाशप्रदेशराशेरपि भूयासो भवन्तीत्यत. किलोक्त-सव्वागासे ण माएज्ज' त्ति, अन्यथा प्रतिनियतदेशावस्थितिः कथ तेषामिति सूरयोऽभिदधतीति ।
हिन्दी-भावार्थ एक सिद्ध के कालिक सुख को भी एकत्रित करके यदि उसे अनत विभागो मे विभक्त किया जाए, तो उस का एक भाग भी सारे आकाश मे नही समा सकता।
मूल पाठ * जह नाम कोइ मिच्छो नगरगुणे बहुविहे वियाणतो । न चएइ परिकहेउ उवमाए तहि असंतीए ।।१६।।
सस्कृत-व्याख्या अस्य च वृद्धोक्तस्याधिकृतगाथाविवरणस्याय भावार्थः- य ए सुखभेदास्ते सिद्ध - सुखपर्यायतया व्यपदिष्टाः, तदपेक्षया तस्य क्रमेणोत्कृष्यमाणस्यानन्ततमस्थानवतित्वेनोपचारात्, तद्राशिश्च किलासद्भावस्थापनया सहस्र समयराशिस्तु शत, सहस्र च शतेन गुणित जात *यथा नाम कोऽपि म्लेच्छ नगरगणान् बहुविधान् विजानन् । न शक्नोति परिकथयित उपमाया तत्र असत्याम् ॥
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(२०) लक्ष, गुणन च कृत सर्व-समयसम्बन्धिना सुखपर्यायाणा मीलनाथ, तथाऽनन्तराशिः किल दश तद्वर्गश्च शत, तेनापतित लक्ष जात सहस्रमेव, अत पूज्यरुक्त समीभूत एवेति भावार्थ इति,यच्चेह सुखराशेर्गुणनमपवर्तन च तदेव सम्भावयाम -यत्र किलानन्तराशिना गुणितेऽपि सति अनन्तवर्गेणानन्तानन्तकरूपेणातीव महास्वरूपेणापतिते किञ्चिदवशष्यते, स राशिरतिमहान, ततश्च सिद्ध -सुखराशिमहानिति बुद्धिजननार्थ शिष्यस्य तस्यैव वा गणितमार्गे व्युत्त्पत्तिकरणार्थमिन्नि । अन्य पुनिरमा गाथामेव व्याख्यान्ति-सिद्धसुखपर्यायराशि. नभ प्रदेशाग्रगणितनभ. प्रदेशाग्र - प्रमाण , तत्परिमाण त्वात्सिद्धसुखपर्यायाणा, सद्धिापिण्डित -सर्वसमयसम्बधी सकलित. सन्, स चानन्तै. अनन्तशो इत्यर्थ , वर्ग--वर्गमूलभक्त -अपवर्तित अत्यन्त लघूकृत इत्यर्थ , यथा किल सर्वसमयसम्बधी सिद्ध सुख राशि. पञ्चषष्ठिसहस्राणि पञ्च शतानि षत्रिशच्चेति (६५५३६) स च वर्गणापत्ति त. सन् जाते द्वे शते षट्पञ्चाशदधिके सोऽपि स्वर्गापवर्तितो जाता षोडश तत्श्चत्वार. ततो द्वावित्येवमतिलघुकृतोऽपि सर्वाकाशे न मायाद्, एतदेवाह 'सव्वागासे न माएज्ज' त्ति । अथ सिद्धसुखस्यानुपमता दृष्टान्तेनाह-'जह' गाह पूर्वार्धं व्यक्त 'न चएई' त्ति न शक्नोति परिकथयितु नगरगुणानरण्यमागतोऽरण्यवासिम्लेच्छेभ्यः, कुत इत्याह-उपमाया त्वत्र नगरगुणेष्वरण्ये वाऽसत्यामिति, कथामक पुनरेवम्म्लेच्छः कोऽपि महारण्ये, वसति स्म निराकुल. । अन्यदा तत्र भूपालो, दुष्टाश्वेन प्रवेशित ॥१॥ म्लेच्छेनासौ नृपो दृष्टः, सत्कृतश्च यथोचितम् । प्रापितश्च निज देश, सोऽपि राज्ञा निजं पुरम् ॥२॥ ममायमुपकारीति, कृतो राज्ञातिगौरवात् । विशिष्टभोगभूतीना, भाजन जन - पूजितः ॥३॥
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(२१) तत प्रासाद - शृ गेषु, रम्येषु काननेषु च । वृतो विलासिनोसाथैर्भु क्ते, भोग-सुखान्यसौ ॥४॥ अन्यदा प्रावृष प्राप्तौ, मेघाडम्बरमण्डितम् । व्योम दृष्ट्वा ध्वनि श्रुत्वा, मेघाना स मनोहरम ॥५॥ जातोत्कण्ठो दृढ जातोऽरण्यवासगम प्रति । विजितश्च राज्ञाऽपि प्राप्तोऽरण्यमसौ तत ॥६॥ पृच्छन्त्यरण्यवासास्त, नगर तात! कोदृशम ? स स्वभावान् पुर सर्वान्, जानात्येव हि केवलम ॥७॥ न शशाक तका (तरा) तेपा, गदितु स कृतोद्यम । वने वने चराणा हि, नास्ति सिद्धोपमा यत (तथा) ॥८॥
हिन्दी-भावार्थ जैसे कोई म्लेच्छ (अरण्यवासी) नगर के बहुत से गुण। को जानता हुआ भी वहा उपमा के अभाव के कारण उन्हे कह नही सकता।
मूल पाठ * इय सिद्धाण सोक्ख अणोवम पत्थि तस्स ओवम्म । किचि विसेसेणेत्तो ओवम्ममिण सुणह वोच्छ ।।१७।।
सस्कृत-व्याख्या अथ दार्टान्तिकमाह - ‘इय' गाहा, 'इति' एवम् अरण्ये नगरगुणा इवेत्यर्थ , सिद्धाना सौख्यसनुपम वर्तते, किमित्थमित्याह--यतो नास्ति तस्यौपम्य, तथापि बालजनप्रतिपत्त ये किञ्चिद्विशेषेणाह- एत्तो' त्ति *इति सिद्धाना सौख्यमनुपम नास्ति तस्य औपम्य । किचित् विशेषेण इत औपम्यमिद शृणुत, वक्ष्यामि ॥
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(२२) आर्षत्वादस्य-सिद्धिमुखस्य इतो वाऽनन्तरम् औपन्य-उपमानम् (इद) वक्ष्यमाण शृणुत वक्ष्ये इति ।
हिन्दी-भावार्थ इसी प्रकार सिद्धो का सुख उपमा रहित है। इसकी कोई उपमा नही है।
सिद्धो का सुख उपमा के द्वारा कथन नहीं किया जासकता है, यह सत्य है, तथापि जनसाधारण के लिए सिद्धो के सुख को दृष्टान्त द्वारा बतलाया जायेगा। उसे सुनो।
मूल पाठ * जह सव्वकामगुणिय पुरिसो भोत्तुण भोयण कोइ। तण्हाबुहाविमुक्को अच्छेज्ज जहा अमियतित्तो ।।१८।। इय सव्वकालितत्ता अतुल निव्वाणमुवगया सिद्धा। सासयमव्वाबाह चिट्ठन्ति सुही सुह पत्ता ।।१९।।
सस्कृत-व्याख्या 'जह' गाहा, 'यथे' त्युदाहरणोपन्यासार्थ , 'सर्वकामगुणित' सजातसमस्तकमनीयगुण, शेष व्यक्तम्, इह च रसनेन्द्रियमेवाधिकृत्येष्टविषयप्राप्त्या औत्सुक्यनिवृत्त्या सुखप्रर्शन सकलेन्द्रियार्थावात्याऽशेषोत्सुक्यनिवृत्त्युपलक्षणार्थम्, अन्यथा बाधान्तरसम्भवात् सुखार्थाभाव इति ।
* यथा सर्वकामगुणितं पुरुषो भुक्त्वा भोजन कोऽपि । तृष्णाक्षुधाविमुक्त आस्ते यथा अमृततृप्तः ।। इति सर्वकालतृप्ता अतुल निर्वाणमुपगता सिद्धा. । शाश्वतमव्यावाध तिष्ठन्ति सुखिनः सुख प्राप्ता ॥
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(२३) 'इय' गाहा “इय' एव सर्वकालतृप्ता शाश्वदभावात् अतुल निर्वाणमुपगताः सिद्धा, सर्वदा सकलौत्सुक्यनिवृत्त , यतश्चैवमत 'शाश्वत' सवकालभावि 'अव्याबाध' व्याबाधावजित सुख प्राप्ता सुखिनस्तिष्ठन्तीति योग , सुख प्राप्ता इत्युक्ते सुम्बिन इत्यनर्थकमिति चेत्, नैव दु खाभावमात्रमुक्तिसुखनिरासेन वास्तव्यसुखप्रतिपादनार्थत्वादस्य, तथाहि-अशेषदोषक्षयत शाश्वतमव्याबाधसुख प्राप्ता सुखिन. सन्तः तिष्ठन्ति, न तु दु खाभावमात्रान्विता एवेति ।
हिन्दी-भावार्थ जैसे कोई पुरुष सब प्रकार के सुन्दर गुणो से युक्त भोजन को खाकर अमृत से तृप्त हुए व्यक्ति के समान पिपासा और क्षुधा से रहित हो जाता है, इसी तरह सदा तृप्त रहने वाले, उपमारहित, निर्वाण (शान्ति) को प्राप्त हुए सिद्ध शाश्वत (नित्य) और बाधा-रहित सुख को प्राप्त करके सुखी बने रहते है।
मल पाठ * सिद्ध त्ति य बुद्ध त्ति य पारगय त्ति य परपरगय त्ति ।
उम्मुक्ककम्मकवया अजरा अमरा असगा य ।।२०।।
सिद्धा इति च बुद्धा इति च पारगता इति च परम्परागता इति । उन्मुक्त कर्मकवचा अजरा अमरा असगाश्च ॥ निस्तीर्णसर्वदु खा जाति-जरामरण-बधन-विमुक्ता । अव्याबाध सुखमनुभवन्ति शाश्वत सिद्धा.।। अतुलसुखसागरगता अव्याबाधमनुप प्राप्ता । सीमनागतामद्धा तिष्ठन्ति सुखिन सुख प्राप्ता ॥
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( २४ )
णिच्छिण्णसव्वदुक्खा जाइजरामरणबधणविमुक्का । अव्वाबाह सुख अणुहोति सासय सिद्धा ॥ २१ ॥ अतुल सुहसागरगया अव्वाबाह अणोवम पत्ता । सव्वमणागयमद्ध चिट्ठति सुही सुह पत्ता ||२२|| संस्कृत - व्याख्या
साम्प्रत वस्तुत सिद्धपर्यायशब्दान प्रतिपादयन्नाह - 'सिद्ध त्ति य' गाहा, सिद्धा इति च तेषा नाम कृतकृत्यत्वाद् एव बुद्धा इति केवलज्ञानेन विश्वावबोधात्, पारगता इति च भवार्णवपारगमनात् परपरगय त्ति - पुण्यबीजसम्यक्त्वज्ञानचरण क्रमप्राप्त युपाययुक्तत्वात् परम्परया गता परम्परगता उच्यन्ते, उन्मुक्त कर्मकवचा. सकलकर्मवियुक्वात्, तथा अजरा वयसोऽभावात्, अमरा ग्रायुषोऽभ वात् असगाश्च सकलक्लेशाभावादिति । 'णिच्छिण्ण' गाहा 'अतुल' गाहा व्यक्तार्थे एवेति । हिन्दी- भावार्थ
सिद्ध, बुद्ध, पारगत, परम्परगत, उन्मुक्तकर्म कवच, अजर अमर, असग ये सब सिद्ध जीवो के पर्यायवाचक शब्द है । सिद्ध कृतकृत्य को कहते है । केवल ज्ञान के द्वारा विश्व को जानने वाले बुद्ध कहलाते है । ससार रूपी समुद्र से पार हुए को पारगत कहा जाता है । सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति, पुन सम्यग् ज्ञान की प्राप्ति, तदनन्तर सम्यक् चारित्र की प्राप्ति, इस परम्परा द्वारा जिस ने मोक्ष को प्राप्त किया है, उसे परम्परगत कहते है । सब प्रकार के कर्मो से रहित उन्मुक्त-कर्म-कवच, जरा आदि अवस्थाओ से रहित अजर, आयु से रहित अमर और सब प्रकार के क्लेशों से रहित असग कहलाते है ।
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( २५ )
सिद्ध सब प्रकार के दुखो से रहित हो चुके है । जन्म, जरा और मृत्यु के बबन से विमुक्त है। बाधारहित और शाश्वत सुख का अनुभव करते है ।
सिद्ध भगवान् उपमा रहित सुख के सागर मे निमग्न है । बाधारहित तथा उपमारहित सुख को प्राप्त करके सदा के लिए सुखी बने रहते है ।
मूल पाठ
* दत्थि ण लोए त सव्व दुपडोयारं तंजहा - जीवा चेव अजीवा देव, तसा चेव, थावरा चेव, सजोणिया चेव अजोणिया चेव, साउया चेव, अणाउया चेव, सइन्दिया चेव, अणिन्दिया चेव, सवेयगा चेव, अवेयगा चेव, सख्वी चेव, अरूवी चेव, सपोग्गला चेव अपोग्गला चेव ससार-समावन्नगा चेव, अससारमावन्नगा चेव, सासया चेव, असासया चेव ।
- स्थानागसूत्र स्थान २, उद्देशक १
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* यदस्ति लोके तत्सर्वं द्विप्रत्यवतार तद्यथा - जीवाश्चैव श्रजीवाइचैव त्रसाश्चैव स्थावराश्चैव, सयोनिकाश्चैव अयोनिकाश्चैव, सायुष्काश्चैव श्रनायुष्काश्चैव सेन्द्रियाश्चैव अनिन्द्रियाश्चैव, सवेदकाश्चैव श्रवेदकाश्चैव सरूपिनश्चैव श्ररूपिनश्चैव सपुद्गलाश्चैव प्रपुद्गलाश्चैव, संसारसमापन्नकाञ्चैव श्रससारसमापन्नकाश्चैव, शाश्वताश्चैव अशाश्वताश्चैव ।
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( २६)
सस्कृत-व्याख्या 'जदत्थी' त्यादि सहितादिचर्च पूर्ववत् 'यद्' जीवादिक वस्तु अस्ति विद्यते णमिति वाक्यालङ्कारे,क्वचित् पाठो-'जदत्थि च ण' त्ति तत्रानुस्वार आगमिक च-शब्द पुनरर्थ एव च अस्य प्रयोगः अस्त्यात्मादिवस्तु-पूर्वाध्ययनप्ररूपितत्वात्, यच्चास्ति 'लोके' यश्चास्ति कायात्मके लोक्यते-प्रमीयते इति लोक इति व्युत्पत्त्या लोकालोकरूपे बा तत सर्व निरवशेष द्वयो' पदयो स्थानयो पक्षयोविवक्षितवस्तुतद्विपर्ययलक्षणयोरवतारो यस्य तद् द्विपदावतारमिति । 'दुपडोयार' त्ति क्वचित पठ्यते, तत्र द्वयो प्रत्यवतारो यस्य तद् द्विप्रत्यवतारमिति, स्वरूपवत प्रतिपक्षवच्चेत्यर्थ 'तद्यथे' त्यदाहरणोपन्यासे 'जीवच्चेव, अजीववच्चेव त्ति' जीवाश्चैवाजीवाश्चंव प्राकृतत्वात् सयुक्तपरत्वेन ह्रस्व , चकारी समुच्चयाथों एवकारोऽवधारणे, तेन च राश्यन्तरापोहमाह, नो जीवाख्य राश्यन्तरमस्तीति चेब, नैवम् सर्व-निषेधकत्वे नो-शब्दस्य नो जीवशब्देनाजीव एव पतीयते. देशनिषेधकत्वे तु जीवदेश एव प्रतीयते न च देशो देशिनोऽत्यन्त व्यतिरिक्त इति जीव एवासाविति, 'च्चेय' इति वा एवकारार्थ 'चिय च्चेय' एवार्थ इति वचनात् ततश्च जीवा एवेति विवक्षितवस्तु अजीवा एवेति च तत्प्रतिपक्ष इति, एव सर्वत्र अथवा यदस्ति अस्तीति यत् सन्मात्र यदित्यर्थः, तद् द्विपदावतार द्विविधं-जीवाजीवभेदादिति शेष तथैव । अथि त्रसेत्यादिकया नव सूत्र्या जीवत्वस्यैव भेदात् सत्प्रतिपक्षानुपदिश्यति-तसे चेवे' त्यादि तत्र वसनाम-कर्मोदितस्त्रस्यन्तीति त्रसा:-द्वीन्द्रियादय' स्थावरनामक र्मोदयात् तिष्ठन्त्येवशीलाः स्थावरा. पृथिव्यादयः, सह योन्या-उत्पत्तिस्थानेन सयोनिका'-ससारिणस्तद्विपर्यासभूताः अयोनिका:-सिद्धा: सहायुषा वर्तन्त इति सायुषस्तदन्येऽनायुष -सिद्धा, एव सेन्द्रिया'-ससारिण , अनिन्द्रिया.-सिद्धादय., सवेदका: स्त्रीवेदाधुदयवन्तः प्रवेदका सिद्धा
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(२७) दय', सह रूपेण-मूर्त्या वर्तन इति समासान्ते इन् प्रत्यये सति सरूपिण सस्थानवर्णादिमन्त सशरीरा इत्यर्थ, न रूपिणोऽरूपिणो-मुक्ता', सपुद्गला -कर्मादिपुद्गलवन्तो जीवा , सिद्धा , ससार-भव समापन्नका - आश्रिता ससारसमापन्नका -ससारिण नदितरे सिद्धाः शाश्वताः सिद्धा जन्ममरणादिरहितत्वाद्, प्रशाश्वता - ससारिण. तद्युक्तत्वादिति ।
हिन्दी-भावार्थ ससार मे जो कुछ है, उसे दो विभागो मे विभक्त किया जा सकता है । जैसे कि-- जीव ओर अजीव ।
जीव के दो-दो भेद होते है। जैसे कि-त्रस और स्थावर । सयोनिक (उत्पत्तिशील) और अयोनिक (उत्पत्तिर हित-सिद्ध), आयु वाले और आयु रहित (सिद्ध),-सेन्द्रिय इन्द्रियों वाले और प्रनिन्द्रिय-इन्द्रियो से रहित (सिद्ध), सवेदक-स्त्री, पुरुष आदि वेद से युक्त और अवेदक-वेद से रहित (सिद्ध) सरूपी-रूप, रस, गन्ध आदि से युक्त और अरूपी-रूप, रस आदि से रहित (सिद्ध), सपुद्गल-पुद्गल युक्त और अपुद्गल-पुद्गल से रहित (सिद्ध), ससारसमापन्नक-ससार मे रहने वाले और अससारसमापन्नक-जन्ममरण रूप ससार से विमुक्त (सिद्ध), शाश्वतनित्य (सिद्ध) और अशाश्वत-ससारी ।
मूल पाठ * अत्थि ण भते | अकम्मस्स गती पण्णायति ? हन्ता अस्थि । कहन्न भते ! अकम्मस्स गती पण्णायति? गोयमा । निस्सगयाए निरगणयाए गतिपरिणामेण
*अस्ति भदन्त । अकर्मणो गति प्रज्ञायते ? हन्त अस्ति ।
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(२८) बन्धणछेयणयाए निरधणयाए पुब्बप्पआगेण अकम्मस्स गती पण्णत्ता। कहन्न भते । निस्सगयाए निरगणयाए गइपरिणामेण बधणछेयणयाए निरधणयाए, पुव्वप्पओगेण अकम्मस्स गती पण्णायति ? से जहानामए-केइ पुरिसे सुक्क तुम्ब निच्छिड्ड निस्वहय ति आणुपुब्बीए परिकम्मेमाणे २ दब्भेहि य कुसेहि य बेढेइ २ अहि मट्टियालेवेहि लिपइ २ उण्हे दलयति भूति २ सुक्क समाण अत्थाहमतारमपोरसियसि उदगसि पक्खिवेज्जा, से नूण गोयमा ! से तुबे तेसि अट्ठण्ह मट्टियालेवेण गुरुयत्ताए भारियत्ताए गुरुसभारियत्ताए सलिलतलमतिवइत्ता अहे धरणितलपइट्ठाणे भवइ हता भवइ । अहेण से तुबे अट्ठण्ह मट्टियालेवेण परिक्खएण धरणितलमतिवइत्ता उप्पि सलिलतलपइट्ठाणे भवइ ?, हन्ता भवइ, कथन्नु भदन्त ! अकर्मणः गति प्रज्ञायते ? गौतम ! नि सगतया, नीरागतया, गति-परिणामेन, बन्धन-छेदनतया, निरिन्धनतया, पूर्वप्रयोगेन अकर्मण गति प्रज्ञप्ता । कथन्नु भदन्त | नि.सगतया, नीरागतया, गनिपरिणामेन, बन्धन-छेदनतया, निरिन्धनतया, पूर्वप्रयोगेन अकर्मण. गति. प्रज्ञायते ? तद्यथानाम, कोऽपि पुरुष शुष्कान् अलाबून् निछिद्रान्, निरुपहतान् इति पानुपूर्व्या परिकर्मयन् २ दर्भेश्च कुशैश्च वेष्टयति २ अष्टभि मृत्तिकालेपैः लिम्पति २ उष्णे ददाति भूयोभूय शुष्के सति प्रस्ताधे अतारे अपौरुषेये उदके प्रक्षिपेत् । तन्नून गौतम | सा आबू तेषामष्टाना मृत्ति कालेपाना गुरुतया भारितया गुरुसभारितया
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( २९) एव खलु गोयमा ! निस्सगयाए निरगणयाए, गइपरिणामेण अकम्मस्स गई पण्णायति । कहन्न भते । बधणछेदणयाए अकम्मस्स गई पण्णत्ता?, गोयमा ? से जदानमाए-कलसिबलियाइ वा मुग्गसिबलियाइ वा भाससिबलियाइ वा सिबलिसिबलियाइ वा ए रडमिजियाइ वा उण्हे दिन्ना सुवका समाणो फुडित्ता ण एगन्नमत गच्छइ एव खलु गोयमा । ०। कहन्न भन्ते । निरधणयाए अकम्मस्स गति पण्णत्ता ? गोयमा | से
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सलिलतलमतिव्रज्य प्रधो धरणीतलप्रतिष्ठाना भवति ? हन्त भवति । अध सा अलाब अष्टाना मृत्तिकालेपाना परिक्षयेण धरणीतलमतिव्रज्य उपरि सलिलतलप्रतिष्ठाना भवति ? हन्त भवति । एव खलु गौतम | नि सगतया, नीरागतया गतिपरिणामेन अकर्मण गति प्रज्ञायते । कहान भदन्त | बधनछेदनसया अकर्मणो गति प्रज्ञप्ता ? गौतम ! तदयथानाम-कलायफलिका वा मुद्गफलिका वा मासफलिका वा सिंबलिफलिका वा एरण्ड फलिका वा उष्ण दत्ता शुष्का सती स्फुटित्वा एकान्तमत गच्छति । एव खलु गौतम । ० । कथन्नु भदन्त ! निरिन्धनतया प्रकर्मणो गति प्रज्ञप्ता ? गौतम । तदयथानाम-धूमस्य इन्धनविप्रमुक्तस्य कुल विस्रसया नियाघातेन गति प्रवर्तते । एव खलु गौतम ' ० । कथन्न भदन्त । पूर्व-प्रयोगेन अकर्मणो गति प्रज्ञप्ता ? गौतम | तदयथानामकाण्डस्य कोदण्डविप्रमुक्तस्य लक्ष्याभिमुखी निर्व्याघातेन गति प्रवर्तते । एव खलु गौतम ! नि सगतया नीरागतया यावत् पूर्वप्रयोगेन अकर्मणो गति: प्रज्ञप्ता।
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( ३० )
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जहानामए धूमस्स इणविप्पमुक्कस्स उड्ढं वोसनाए निव्वाघाएण गती पवत्तति एव खलु गोयमा ! | कहन्न भते । पुव्वप्पओगेण अकम्मस्स गती पण्णत्ता ?, गोयमा ! से जहानामए कण्डस्स कोदण्डविप्पमुक्कस्स लक्खाभिमुही निव्वाधाएण गति पवत्तइ । एव खलु गोयमा ! नीसगयाए निरगणया जाव पुव्वापओगेण अकम्मस्स गती पण्णत्ता |
— व्याख्याप्रज्ञप्ति ७ शतक १ उद्देश्शक, सू० २६५
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संस्कृत - व्याख्या
'गई पण्णायइ' त्ति गति प्रज्ञायते अभ्युपगम्यते इति यावत् 'निस्सगयाए' त्ति निसगतया कर्ममलापगमेन 'निरगणयाए' ति नीरागतया मोहापगमेन 'गतिपरिणामेण' त्ति गतिस्वभावतया अलाबुद्रव्यस्यैव 'बघणछेयणाए' त्ति कर्मबधनछे दनेन एरण्डफलस्येव 'निरधणता' ति कर्मेन्धनविमोचनेन धूमस्येव 'पुव्वप्पोगेण' त्ति सकर्मताया गतिपरिणामवत्त्वेन बाणस्येवेति । एतदेव विवृण्वन्नाह - 'कहन्न' मित्यादि, निरुवहय, त्ति वातादयनुपहत 'दब्भेहि य' त्ति दर्भे समूलैः 'कुसेहि य' त्ति कुरौ दर्भेरेव छिन्नमूलै, 'भूइ भूइ' त्ति भूयोभूय. 'अत्थाहे' त्यादि इह मकारी प्राकृतप्रभावत. अस्ताघेतएवानवतारेऽतएव अपौरुषेये, अपुरुषप्रमाणे 'कलसिबलियाइ वा ' कलाभिधान्यफलिका 'सिबलि' त्ति वृक्षविशेष. 'एरण्डमिजिया' एरण्डफलम् । एगतमन्त गच्छइ' एक इत्येवमन्तो निश्चयो यत्रामावेकान्त एक इत्यर्थः । अतस्तमन्त भूभाग गच्छति, इह च बीजस्य गमनेऽपि (यत्) कलायसिंबलिकादेरिति यदुक्त तत्तयोरभेदोपचारादिति ।
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(३१)
'उड्ढ वीससाए' त्ति ऊर्ध्व विस्रमया स्वभावेन 'निव्वाघाएण' त्ति कटाद्याच्छादनाभावात् ।
हिन्दो-भावार्थ हे भदन्त | कर्म-रहित की गति होती है ? हा, गौतम | होती है। हे भदन्त | कर्म-रहित की गति किस प्रकार होती है ?
हे गौतम | कर्ममल से रहित होने के कारण, राग-द्वेष से रहित होने के कारण, गति-स्वभाव होने के कारण, कर्मबंधन का नाश होने से, कर्मरूप इन्धन के जल जाने से, पूर्व-प्रयोग* के कारण कर्म रहित जीव की गति होती है ।
कर्म-रहित जीव की गति को एक उदाहरण से समझिए। जैसे कोई पुरुष शुष्क, निश्छिद्र, अखण्डित, अलाबू-तुम्बक को क्रमश दर्भ (दूब) और कुशा से लपेटता है, फिर माटी के आठ लेपो से उसे लीपता है, तदनन्तर उसे धूप मे रखकर सूखाता है । उस के अच्छी तरह सूख जाने के पश्चात् अथाह से रहित, न तैरे जा सकने वाले, पुरुष से भी अधिक गहरे पानी मे उसे डाल देता है। वह तुम्बक माटी के उन आठ लेपो के गुरु, भारी और अत्यन्त भारी होने के कारण सलिलतल को उल्लघन कर के नीचे पृथ्वी-तल पर जाकर ठहर जाता है कितु जल के द्वारा माटी के लेपो के उतर जाने पर वह तुम्बक पृथ्वीतल से ऊपर उठता हुआ अन्त मे पानी के ऊपर आ
देखा गया है कि वाण को चलाने के लिए सर्वप्रथम बल लगाया जाता है, उस बल के प्रयोग से फिर वह वाण आगे सरकता है। वैसे ही निष्कर्म आत्मा शरीर से बलपूर्वक निकलता है, उसी बल के प्रयोग से आत्मा मे आगे गति होती है, इसी बलप्रयोग को पूर्वप्रयोग कहा जाता है।
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( ३२ )
जाता है । इसी प्रकार हे गौतम । कर्म-मल के दूर होने से, राग द्वेष से रहित हो जाने से और गति स्वभाव से कर्मरहित जीव की गति होती है ।
हे भदन्त । कर्म - बन्धन से रहित होने के कारण कर्मरहित जीव की गति किस प्रकार होती है ?
हे गौतम । जैसे कलाय की फली, मूगी की फली, माष की फली, सिम्बल की फली और एरण्ड की फली धूप में रख देने पर सूख जाती है, सूख कर फट जाती है, तब उस के वीज एकान्त मेजा पडते है । इसी प्रकार कर्मरहित जीव की गति होती है।
हे भदन्त | कर्मरूप इन्धन के जल जाने से कर्मरहित जीव की गति किस प्रकार होती है ?
हे गौतम ! जैसे इन्धन से रहित धूम्र की स्वभाव से ऊर्ध्व गति होती है, उसी प्रकार कर्मरहित जीव की भी गति होती है।
भदन्त ! पूर्व प्रयोग के द्वारा कर्मरहित जोव की गति किस प्रकार होती है ?
हे गौतम! जैसे धनुष से छोडे हुए, लक्ष्य की ओर जाने वाले बाण की बेरोकटोक गति होती है । इसी प्रकार कर्मरहित जीव की भी गति होती है ।
मूल पाठ
* ते ण तत्थ सिद्धा हवति सादीया अपज्जवसिया असरीरा जीवघणा दसणनाणोवउत्ता निट्टियट्ठा निरेयणा * ते तत्र सिद्धा भवन्ति सादिका, अपर्यवसिता: अशरीरा,
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( ३३
नीरया णिम्मला वितिमिरा विसुद्धा सासयमणागयद्ध काल चिट्ठति । से केणट्ठेण भते । एव वुच्चइ-ते ण तत्थ सिद्धा भवन्ति सादीया अपज्जवसिया जाव चिट्ठन्ति ?, गोयमा । से जहानामए बीयाण अग्गिदड्ढाण पुणरवि अकुरुप्पत्ती ण भवइ, एवामेव सिद्धाण कम्मबीए दड्ढे पुणरवि जम्मुप्पत्ती न भवइ, से तेणट्ठेण गोयमा । एव वुच्चइ --- ते ण तत्थ सिद्धा भवति सादीया अपज्जवसिया जाव चिट्ठन्ति ।
- प्रोपपातिक सूत्र सिद्धाधिकार
संस्कृत - व्याख्या
'ते ण तत्थ सिद्धा हवति' त्ति ते पूर्वोद्दिष्टविशेषणा मनुष्याः 'तत्र' लोकाग्रे निष्ठितार्थाः स्युरिति, अनन च यत्केचन मन्यन्ते, यदुत - रागादिवासनामुक्त चित्तमेव निरामयम् ।
सदाऽनियतदेशस्थ, सिद्ध इत्यभिधीयते ॥ १ ॥ यच्चापरे मन्यन्ते -
·
जीवधना, दर्शनज्ञानोपयुक्ता, निष्ठितार्था निरेजना, नीरजस, निर्मला, वितिमिरा, विशुद्धा शाश्वतीमनागताद्धा काल तिष्ठन्ति । तत् केनाथन भदन्त । एवमुच्यते-ते तत्र सिद्धा भवन्ति सादिकाः, पर्यवसिता यावत्तिष्ठन्ति ? गौतम ! तद्यथानाम बीजानामग्निदग्धाना पुनरपि कुरोत्पत्तिर्न भवति, एवमेव सिद्धाना कर्मबीजे दग्धे पुनरपि जन्मोत्पत्तिर्न भवति । तत्तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते - ते तत्र सिद्धा भवन्ति सादिका पर्यवसिता यावत् तिष्ठन्ति ।
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( ३४ )
गुणसत्त्वान्तरज्ञानान्निवृत्त-प्रकृति- क्रिया । मुक्ता. सर्वत्र तिष्ठन्ति, व्योमवत्तापवर्जिताः ॥ १ ॥ तदनेन निरस्त यच्चोच्यते - सशरीरतायामपि सिद्धत्वप्रतिपादनाय, यदुत -
अणिमाष्टविध प्राप्यश्वर्य कृतिन सदा । मोदन्ते निर्वृतात्मानस्तीर्णाः परमदुस्तरम् ॥१॥
इति तदपाकरणायाह — 'अशरीरा' प्रविद्यमान - पञ्चप्रकारशरीराः, तथा 'जीवघण' त्ति योगनिरोधकाले रन्ध्रपूरणेन त्रिभागोनाऽवगाहना सन्ता जीवधना इति, 'दसणनाणोवउत्त' त्ति ज्ञान साकार, दर्शनम् - अनाकार तयो. क्रमेणोपयुक्ता ये ते तथा 'निट्ठियट्ठे' त्ति निष्ठितार्था - समाप्तसमस्तप्रयोजना. 'निरेयण' त्ति निरेजना - निश्चला : 'नीरय' त्ति नीरजसो - बध्यमानकर्मरहिताः नीरया वा - निर्गतोत्सुक्या, 'निम्मल' त्ति निर्मला पूर्वबद्धकर्मविनिर्मुक्ताः द्रव्यमलवर्जिता वा 'वितिमिर ' त्ति विगताज्ञाना' 'विसुद्ध' त्ति कर्मविशुद्धिप्रकर्षमुपगता 'सासयमणागयद्ध काल चिट्ठति' शाश्वतीम् - अविनश्वरी सिद्धत्वस्याविनाशाद्, अनागताद्धा भविष्यत्काल तिष्ठन्तीति 'जम्मुप्पत्ती' त्ति जन्मना -कर्मकृतप्रसूत्या उत्पत्तिर्या सा तथा, जन्मग्रहणेन परिणामान्वररूपात्तदुत्पत्तिभवतीत्याह, प्रतिक्षणमुत्पादव्यय ध्रौव्य - युक्तत्वात्सद्भावस्येति ।
हिन्दी- भावार्थ
सिद्ध जीव मुक्ति मे विराजमान है, वे मुक्ति मे जाने की अपेक्षा से सादि है, मुक्ति से कभी वापिस नही आते है, इसलिए अनन्त है औदारिक, वैक्रिय आदि पञ्चविध शरीरो से रहित हैं, पोलार से रहित आत्मप्रदेश वाले है, दर्शन और ज्ञान रूप उपयोग के धारक है, कृतकृत्य है कम्पन से रहित है, कर्मरूप रज और मल से रहित है, अज्ञान रूप अन्धकार से रहित है,
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(३५)
सब प्रकार की विशुद्धि से युक्त है, अनन्त भविष्यत्काल तक मुक्ति मे विराजमान रहने वाले है।
हे भगवन् । मुक्ति मे विराजमान सिद्धो को सादि, अनन्त आदि कहने का क्या कारण है ?
हे गौतम | जैसे अग्नि से दग्ध बीजो मे पुन अकुरोत्पत्ति नही होने पाती है, इसी प्रकार कर्म-बीज के दग्ध होने पर सिद्धो की भी पुन जन्मोत्सत्ति नही होती है। इसीलिए कहा गया है कि मुक्ति मे विराजमान सिद्ध सादि अनन्त, अशरीरी, जीवधन प्रादि शब्दों से व्यवहृत होते है।
मूल पाठ * जीवा ण भते । सिज्झमाणा करयमि सघयणे सिज्झति ? गोयमा । वइरोसभनारायसघयणे सिज्झति ।
हिन्दो-भावार्थ गौतम स्वामी बोले-भगवन् | सिध्यमान (सिद्धि को प्राप्त हो रहे) जीव किस सहनन मे सिद्ध होते है ?
भगवान बोले-गौतम ! वजर्षभनाराच नामक सहनन मे सिद्ध होते है।
* जीवा भदन्त ! सिध्यन्त' कतरस्मिन् सहनने मिध्यन्ति ? गौतम वर्षभनाराचसहनने सिध्यन्ति ।
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मूल पाठ * जीवा ण सिझमाणा कयरमि सठाणे सिज्झति ? गोयमा ! छण्ह सठाणाण अण्णतरे सठाण सिज्झति ।
हिन्दो-भावार्थ गौतम स्वामी बोले-भगवन् ! सिध्यमान (सिद्ध को प्राप्त हो रहे) जीव किस सस्थान में सिद्ध होते है ?
भगवान बोले-गौतम | छह सस्थानो में से किसी भी एक सस्थान मे सिद्ध होते है।
मूल पाठ + जीवण भते । सिज्झमाणा कयरम्मि उच्चत्ते सिज्झन्ति ? गोयमा ! जहण्णेण सत्तरयणीओ उक्कोसेण पञ्चधणुस्सए सिज्झन्ति ।
सस्कृत-व्याख्या 'जहण्णण सत्तरयणीए' त्ति सप्तहस्ते उच्चत्वे सिध्यन्ति महावीरवत्, 'उक्कोसेण पचधणुस्सए' त्ति ऋषभस्वामिवद् एतच्च द्वयमपि तीर्थंकरापेक्षयोक्तम्, अतो द्विहस्तप्रमाणेन कूर्मापुत्रेण न व्यभिचारो, न वा मरुदेव्या सातिरेकपञ्चधनु शतप्रमाणयेति ।
* जीवा भदन्त सिध्यन्त. कतरस्मिन् सस्थाने सिध्यन्ति ? गौतम | षण्णा सस्थानानामन्यतरस्मिन् सस्थाने सिध्यन्ति ।
जीवा भदन्त ! सिध्यन्तः कतरस्मिन् ऊच्चत्वे सिध्यन्ति ? गौतम जघन्येन सप्तरत्नयः, उत्कर्षेण पञ्चधनुश्शते सिध्यन्ति ।
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( ३७)
हिन्दी-भावार्थ गोतम स्वामी बोले-भगवन् । सिध्यमान जीव कितनी ऊचाई मे सिद्ध होते है ?
भगवान बोले- गौतम | जघन्य (कम से कम) सात हाथ की ऊचाई मे और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) पाच सौ धनुष की ऊचाई मे जीव सिद्ध होते है।
मूल पाठ * जीवाण भते । सिज्झमाणा कयरम्मि आउए सिज्झन्ति? गोयमा जहण्णेण साइरेगट्ठवासाउ उक्कोसेण पूक्कोडियाउए सिज्झन्ति ।
सस्कृत-व्याख्या 'साइरेगट्ठवासाउए' त्ति सातिरेकाण्यष्टौ वर्षाणि यत्र तत्तथा तच्च तदायुश्चेति तत्र सातिरेकाष्टवर्षायुषि, तत्र किलाष्टवर्षवयाश्चरण प्रतिपद्यते, ततो वर्षे अतिगते केवलज्ञानमुत्पादय सिध्यतीति । 'उक्कोसेण पुवकोडाउए' त्ति पूर्वकोट्यायुर्नर पूर्वकोटया अन्ते सिध्यतीति न परत ।
हिन्दी-भावार्थ गौतम स्वामी बोले-भगवन् | सिध्यमान जीव कितनी आयु मे सिद्ध होते है ?
भगवान बोले-गौतम | जघन्य कुछ अधिक आठ वर्ष की * जीवा भदन्त ! सिध्यन्त' कतरस्मिन् आयुषि सिध्यन्ति? गौतम जघन्येन सातिरेकाष्टवर्षायुष्का उत्कर्षेण पूर्वकोटिकायुष्का सिध्यन्ति ।
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( ३८ )
आयु
वाले तथा उत्कृष्ट करोड पूर्व की आयु वाले जीव सिद्ध
होते है ।
मूल पाठ
* अत्थि ण भते ! इमीसे रयणप्पहाए पुढवीए अहे सिद्धा परिवसन्ति ? जो इट्ठे समट्ठे, एव जाव अहे समाए ।
संस्कृत - व्याख्या
'ते ण तत्थ सिद्धा भवती' त्ति प्राक्तनवचनाद् यद्यपि लोकाग्र सिद्धाना स्थानमित्यवसीयते तथापि मुग्धविनेयस्य कल्पितत्रिविधलोकाग्रनिरासतो निरुपचरितलोकाग्रस्वरूप विशेषावबोधाय प्रश्नात्तरसूत्रमाह'प्रत्थि ण' मित्यादि व्यक्त, नवर यदिद रत्नप्रभाया श्रधस्तदेव लोकानमिति तत्र सिद्ध परिवसन्तीति प्रश्न:, तत्रोत्तर - नायमर्थ समर्थ इति, एव सर्वत्र ।
हिन्दी - भावार्थ
गौतम स्वामी बोले- भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभा नामक पृथ्वी (नरक) के नीचे सिद्ध रहते है ?
भगवान बोले - गौतम । रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे सिद्ध नही रहते है । इसी प्रकार यावत् सातवी पृथ्वी के नीचे भी सिद्ध नही रहते है |
* प्रस्ति भदन्त 1 अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्या. अध सिद्धा. परिवसन्ति ? नायमर्थ. समर्थः एव यावत् अध. सप्तम्याः ।
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( ३९ )
1
* अत्थि ण भते । सोहम्मस्स कम्पस्स अहे सिद्धा परिवसन्ति ? णो इणट्ठे समट्ठे, एव सव्वेसि पुच्छा । ईसाण स्स, सणकुमारस्स जाव अच्चुयस्स गविज्जविमाणाण अणुत्तरविमाणाण ।
हिन्दी - भावार्थ
1
गौतम स्वामी ने पूछा भगवन् । क्या सिद्ध सौधर्म नामक प्रथम देवलोक के नीचे रहते है ?
भगवान ने कहा- गौतम । नही रहते है ।
जिस प्रकार प्रथम देवलोक के सम्बन्ध मे पृच्छा की गई है, उसी प्रकार ईशान, सनत्कुमार यावत् प्रच्युत, ग्रेवैयक विमान तथा अनुत्तर विमानो के सम्बन्ध मे भी पृच्छा की गई और भगवान ने सब के सम्बन्ध मे " नही रहते है" यही उत्तर दिया ।
मूल पाठ
+ अत्थि भते ! ईसीप भारा पुढवोए अहे सिद्धा परिवसन्ति ? णो इणट्ठ समट्ठे ।
* अस्ति भदन्त । सौधर्मस्य कल्पस्य श्रध सिद्धा परिवसन्ति ? नायमर्थ समर्थ, एव सर्वेषा पृच्छा । ईशानस्य, सनत्कुमारस्य यावदच्युतस्य ग्रैवेयकविमानानाम्, अनुत्तर विमानानाम् ।
+ अस्ति भदन्त । ईषत्प्राग्भाराया पृथ्व्या अध सिद्धा परिवसन्ति ? नायमर्थः समर्थ. ।
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। ४०)
हिन्दी-भावार्थ गौतम स्वामी बोले-भगवन् । ईषत्प्राग्भारा (सिद्धशिला) के नीचे क्या सिद्ध रहते है ? भगवान बोले-गौतम ! नही रहते है।
मूल पाठ *से कहि खाइ ण भते । सिद्धा परिवसन्ति ?
गोयमा ! इमीसे रयणप्पहाए पुढवीए बहुसमरमाणज्जाओ भूमिभागाओ उड्ढ चदिम-सूरिय-गहगण-णक्खत्त-तारा-भवणाओ बहूइ जायणसयाइ बहूइ जोयणसहस्साइ बहूइ जोयणसयसहस्साइ बहूओ जोयणकोडीओ बहूओ जोयणकोडाकोडोओ उड्ढतर उप्पइत्ता सोहम्मीसाण-सणकुमार-माहिद--बभ--लत्तगमहासुक्क-सहस्सार-आणय--पाणय-आरणच्चुय तिण्णि य अट्ठारे गेविज्जविमाणावाससए वीइवइत्ता विजयवेजयत-जयन्त--अपराजिय-सव्वट्ठसिद्धस्स य महाविमाणस्स सव्व-उप-रिल्लाओ थूभियग्गाओ दुवालसजोयणाइ अबाहाए एत्थ ण ईसीपब्भारा णाम पुढवी पण्णत्ता पणयालीस जोयण-सय-सहस्साइ आयाम-विक्ख
* अथ कुत्र भदन्त | सिद्धा परिवन्ति ? गौतम | अस्य रत्नप्रभाया पृथिव्या बहुसमरमणीयाद् भूमिभागाद् ऊर्ध्वं चन्द्रमस्-सूर्य-ग्रह-गण
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(४१) भेण एगा जोयणकोडी बायालीस सयसहस्साइ तीसं च सहस्साइ दोण्णी य अउणापण्णे जोयणसए किचिविसेसाहिए परिरएण, ईसिपब्भारा य ण पुढवीए बहुमज्झदेसभाए अट्ठ जोयणिए खेत्ते अट्ठ जोयणाइ बाहल्लेण, तयाणतर च ण मायाए-मायाए पडिहाएमाणीपडिहाएमाणी सव्वेसु चरिमपेरतेसु मच्छियपत्ताओ तणुयतरा अगुलस्स असखेज्जइभाग बाहल्लेण पण्णत्ता।
ईसीपब्भाराए ण पुढवीए दुवालस णामधेज्जा पण्णत्ता तजहा-ईसी इ वा, इसीपब्भारा इवा, तणू इ वा, तण-तणू इ वा, सिद्धी इ वा, सिद्धालए इ वा, मुत्ति इ वा. मुत्तालए इ वा, लोयग्गे इ वा, लोयग्गभिया इ वा, लोयग्गपडिवुज्झणा इवा, सव्व-पाण-भूयजीव-सत्त-सुहावहा इ वा।
-
नक्षत्र-तारा-भवनेभ्यो बहूनि योजनशतानि बहूनि यौजन-सहस्राणि, बहूनि योजन-शत-सहस्राणि, बह्वी योजनकोटी, बह्वी योजनकोटाकोटी ऊर्वतरमुत्पत्य सौधर्मेशान-सनत्कुमार-माहेन्द्र-ब्रह्म-लान्तक-महाशुक्रसहस्रार-पानत-प्राणत-भारणाच्यतान् त्रीणि च अष्टादश अवेयकविमानावास-शतानि व्यतिव्रज्य विजय-वैजयन्त-जयन्त-अपराजितसर्वार्थसिद्धस्य च महाविमानस्य सर्वोपरितनाया स्तूपिकायाया द्वादशयोजनानि अबाधया अत्र ईषत्प्राग्भारा नाम पृथ्वी प्रज्ञप्ता, पञ्चचत्वारिंशद्योजन-शतसहस्राणि पायामविष्कभेण एका योजनकोटिः द्वि चत्वा
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(४२) ईसीपब्भारा ण पुढवी सेया सख-तल-विमलसोल्लिय-मुणाल-दग-रय --तुसार--गोक्खोर--हारवण्णा उत्ताणय---छत्त--सठाण---सठिया सव्वज्जुण-- सुवण्णमई अच्छा सहा लव्हा घट्ठा मट्ठा णीरया णिम्मला णिप्पका णिक्ककडच्छाया समरीचिया सुप्पभा पासादोया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, ईसीपब्भाराए ण पुढवीए सीयाए जोयणमि लोगते, तस्स जोयणस्स जे से उवरिल्ले गाउए, तस्स ण गाउअस्स जे से उवरिल्ले छभागिए, तत्थ ण सिद्धा भगवतो
-
रिंशत् शतसहस्राणि त्रिशच्च सहस्राणि द्वे च एकोनपञ्चाशद योजनशतानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिरयेण ईषत्प्राग्भाराया पृथिव्या बहुमध्यदेशभागे प्रष्टयोजनके क्षेत्रे अष्टयोजनानि बाहल्येन तदानन्तर च मात्रया-मात्रया परिहीयमाना-परिहीयमाना सर्वेषु चरमपर्यन्तेषु मक्षिकापत्रात् तनुकतरा अगुलस्यासख्येयभागा बाहल्येन प्रज्ञप्ता । ___ ईषत्प्राग्भाराया. पृथिव्या द्वादश नामधेयानि प्रज्ञप्नानि तद्यथा-ईषद् इति वा, ईषत्प्राग्भारा इति वा, तनू इति वा, तनूतनू इति वा, सिद्ध इति वा, सिद्धालय इति वा, मुक्तिरिति वा, मुक्तालय इति वा लोकाअमिति वा, लोकाग्रस्तूपिका इति वा, लोकाग्रप्रतिबोधना इति वा, सर्व-प्राण-भूत-जीव-सत्त्व-सुखावहा इति वा । ईषत्प्राग्भारा पृथिवी श्वेता शखतलविमल-सोल्लिय-मृणाल-दक-रज:-तुषार-गोक्षीर-हारबर्णा, उत्तान-छत्र-सस्थानसस्थिता सर्वार्जुनसुवर्णमयी अच्छा, श्लक्ष्णा, मसृणा, घृष्टा, मृष्टा, नीरजा, निर्मला, निष्पका, निष्ककट-च्छाया, समरीचिका,
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( ४३) सादीया अपज्जवसिया अणेग-जाइ-जरा-मरण-जोणिवेयण--ससारकल कली-भावपुणब्भव-गब्भ-वास-वसहीपवच-समइक्कता सामयमणागयमद्ध चिट्ठन्ति ।मू०४३।
-प्रौपपातिक सूत्र सिद्धाधिकार
सस्कृत-व्याख्या ‘से कहि खाइ ण भते ।' त्ति इत्यत्र सेत्ति-तत कहि ति-क्व देशे खाइ ण ति–देशभाषा वाक्यालकारे 'बहुसमे' त्यादि बहुसमत्वेन रमणीयो य स तया तस्मात् 'अबाहाए' ति अबाधया-अन्तरेण 'ईसिपब्भार' त्ति ईषद्-अल्पो न रत्नप्रभादिपृथिव्या इव महान प्राग्भारो-महत्त्व यस्या सा ईषत्प्राग्भारा । नामधेयानि व्यक्तान्येव, नवर 'ईसित्ति' वा-ईषत्-अल्पा पृथिव्यन्तरापेक्षया, इति शब्द उपप्रदर्शने, वा शब्दा विकल्पे, 'लोयग्गपडिबुज्झणा इ व' त्ति लोकानमिति प्रतिबुध्यते अवसीयते यया राा तया, 'सव्व-पाण-भूय-जीव-सत्तसूहावह'त्ति इह प्राणा-द्वीन्द्रियादय भूता-वनस्पतय जीवा.-पञ्चेन्द्रिया पृथिव्यादयस्तु-सत्त्व : एतेषा च पृथिव्यादितया तत्रोत्पन्नाना सा सुखावहा शीतादिदु खहेतूनामभावादिति, 'सेय' ति श्वेता, एतदेवाह - 'आयसतल-विमल-सोल्लिय--मुणाल-दग-रय-तुसार--गोक्खीर
सुप्रभा, प्रासादीया, दर्शनीया, अभिरूपा प्रतिरूपा, ईषत्प्राग्भाराया' पृथिव्याः श्वेताया योजने लोकान्त, तस्य योजनस्य यत्तद् उपरितन गव्यत, तस्य गव्यूतस्य य स उपरितन षड्भागिकः, तत्र सिद्धा भगवन्त सादिका अपर्यवसिता अनेक-जाति-जरा-मरण-योनि-वेदना-ससारकलकलीभाव-पुनर्भव-गर्भवास-वसति-प्रपचसमतिक्रान्ताः, शाश्वतीमनागतामद्धा तिष्ठन्ति ।
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( ४४ )
हार - वण्ण' त्ति व्यक्तमेव, नवरम्, प्रादर्शतल दर्पणतल क्वचिच्छङ्खतलमिति पाठ आदर्शतलमिव विमला या सा तथा, 'सोल्लिय' त्ति कुसुमविशेष, 'सव्वज्जुण सुवण्णमई' त्ति श्रर्जुनसुवर्ण-श्वेतकाञ्चन, अच्छा आकाशस्फटिकमिव 'सह' त्ति श्लक्ष्णपरमाणुस्कन्धनिष्पन्ना श्लक्ष्णतन्तु निष्पन्न पटवत् 'लण्ड' त्ति मसृणा घुण्टितपटवत् 'घट्ट' त्ति घृष्टेव घृष्टा खरशानया पाषाणप्रतिमावत् 'मट्ठ' त्ति सृष्टेव मुष्टा सुकुमारशानया प्रतिमेव शोधिता वा प्रमार्जनिकयेव, अत एव 'णीरय' त्ति नीरजा – रजोरहिता 'णिम्मला' कठिनमलरहिता 'णिप्पक' त्ति निष्पका - आर्द्र मलरहिता अकलका वा 'णिक्ककडच्छाय' त्ति निष्ककटा-निष्कवचा निरावरणेत्यर्थ. छाया - शोभा यस्या सा तथा 'अकलकशोभा वा, 'समरीचिय' त्ति समरीचिका - किरणयुक्ता, अतएव 'सुप्पभ' त्ति सुष्ठु प्रकर्षेण च भाति शोभते या सा सुप्रभेति 'पासादीय' त्ति प्रासादो-मन प्रमोद प्रयोजन यस्या. सा प्रासादीया 'दरसणिज्ज' त्ति दर्शनाय - चक्षुव्यपाराय हिता दर्शनीया, ता पश्यच्चक्षुर्न श्राम्यतीत्यर्थः, 'अभिरूव' त्ति प्रभिमत रूप यस्याः सा अभिरूपा, कमनीयेत्यर्थः, 'पडिरूव' त्ति द्रष्टारं द्रष्टार प्रति रूप यस्या सा प्रतिरूपा, 'जोयणमि लोगते' त्ति इह योजनमुत्सेधागुलयोजनमवसेय तदीयस्यैव हि क्रोशषडभागस्य सत्रिभागस्त्रयस्त्रिंशदधिकधनु शतत्रयी प्रमाणत्वादिति, 'अणेगजाइ--जरा-मरण-- जोणिवेयण' अनेकजातिजरामरणप्रधानयोनिषु
दना यत्र स तथा त 'ससार - कलकलीभाव - पुणब्भव - गब्भ-वासवसही - पवचमइक्कता' ससारे कलङ्कलीभावेन श्रसमञ्जसत्वेन ये पुनर्भवा: - पौन पुन्येनोत्पादा गर्भवासवसतयश्च - गर्भाश्रयनिवासास्तासा यः प्रपचो - विस्तर, स तथा तमतिक्रान्ता. - निस्तीर्णा, पाठान्तरमिदम्, " प्रणेग - जाइ - जरा - मरण - जोणि ससार -- कलकली - भाव- पुणब्भवगब्भवास-वसहिपवचसमइक्का' त्ति अनेक जाति - जरामरण - प्रधाना
"
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( ४५ )
यो यत्र स तथा स चासौ ससारश्चेति समास, तत्र कललीभावेन य पुनर्भवेन – पुनः पुनरुत्पत्त्या गर्भवासवसतीना प्रपञ्चस्त समतिक्रान्ता ये ते तथा । ( अभयदेवसूरिकृत वृत्ति )
हिन्दी- भावार्थ
श्री गौतम स्वामी ने पूछा - हे भगवन् । सिद्ध कहा पर रहते है
?
भगवान बोले - हे गौतम । इस रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रत्यन्त समतल एव रमणीय भूमिभाग से ऊपर चन्द्रमा, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और ताराम्रो के भवन है । उन से सैकडो, हजारो, लाखो, करोडो, कोटाकोटियो योजन ऊपर जाकर सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत नामक देवलोक है । इन से ऊपर तीन सौ १८ ग्रैवेयक विमान है । इन से उपर विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित, सर्वार्थसिद्ध ये महाविमान है । सर्वार्द्धसिद्ध महाविमान की ऊपर की स्तूपिका के अग्रभाग से १२ योजन की दूरी पर ईषत्प्राग्भारा (सिद्धशिला) नामक पृथ्वी है, जो कि ४५ लाख योजन की लम्बी और इतनी ही चौडी है । इसकी परिधि (घेरा) एक करोड बयालीस लाख, तीस हज़ार दो सौ उनचास योजन से कुछ अधिक है । ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के सममध्यप्रदेश मे आठ योजन का क्षेत्र आठ योजन की मोटाई वाला है । इस से आगे क्रमश थोडी-थोडी हीन होती हुई अन्त मे मक्षिका के पख से भी अधिक तनुतर (सूक्ष्मतर ) तथा अगुल के असख्यातवें भाग जितनी इस की मोटाई रह जाती है ।
ईषत्प्राग्भारा पृथिवी को १२ नामो से व्यवहृत किया जाता है । वे नाम इस प्रकार है.
1
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( ४६ ) १. ईषत्, २ ईषत्प्रारभारा, ३ तनू, ४. तनूतनू, ५ सिद्धि, ६ सिद्धालय. ७ मुक्ति, ८ मुक्तालय, ९ लोकाग्र १० लोकाग्रस्तूपिका, ११ लोकाग्रप्रनिबोधना, . १२ सर्वप्रागभूत-जोव-पत्त्व-सुखावहा ।
ईषत्प्राग्भारा पृथिवो श्वेत है, शखतल के समान विमल-निर्मल है, सोल्लिय (पुष्पविशेष), मृणाल-कमलनाल, दकरज-पानी की झाग, तुषार-अोसविन्दु, गोक्षीर-गाय का दूध, हार (मोतियो का हार के समान श्वेत वर्ण वाली है। छत्र को उलटा करके रखने से उस का जो आकार बनता है, वही आकार ईषत्प्राग्भारा पृथिवी का होता है। ईषत्प्राग्भारा पृथिवी सारी की सारी श्वेत सुवर्णमयी है, वह स्वच्छ है. श्लक्ष्ण-चिकनी है, मसृण है-इस्तरी किए हुए वस्त्र के समान कोमल है, घृष्ट है-घिसे हुए पाषाण के समान स्पर्श वाली है, मष्ट है-चीकनी है, चमकदार है, नीरज है-धूलिरहित है, निर्मल है-मलरहित है, निष्पक है, कीचड-रहित है। ___ईषत्प्रभागभारा पृथिवी स्निग्धछाया वाली है, किरणो से युक्त है, अच्छा-प्रभा, कान्ति वाली है, चित्ताकर्षक है, दर्शनयोग्य है, सुन्दर है, अत्यन्त सुन्दर है।
ईषत्प्राग्भारा पृथिवी के एक योजन ऊपर लोकान्त है। उस योजन के ऊपर के कोस के छठे भाग मे सिद्ध भगवान विराजमान है। वे सिद्ध सादि, अनन्त, जन्म, जरा, मृत्यु और योनि (उत्पत्तिस्थान) की अनेकविध वेदना से रहित है । ससार के कलकलीभाव (विषमता), पुनर्भव-पुन पुन उत्पन्न होना,
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(४७)
गर्भावास-गर्भ मे निवास करना, इन सब प्रपचो से वे रहित है । सिद्ध भगवान भविष्यत् काल मे सदा के लिए मोक्ष मे विराजमान रहेगे।
मूल पाठ * अत्थि एग धुव ठाण, लोगग्गमि दुरारुह । जत्थ नत्थि जरा मच्चू, वाहिणो वेयणा तहा ।।
- उत्तराध्ययन सूत्र अ० २३/८१ __ सस्कृत-व्याख्या अस्त्टेकमद्वितीय ध्रुव शाश्वतं स्थान लोकाने 'दुरारुह' त्ति दुखेनारुह्यतेऽध्यास्यते इति दुरारोहम् । दुरापेणैव सम्यग्दर्शनादित्रयेन तस्य प्राप्यत्वात् । यत्र न मन्ति जराऽऽदीनि प्रतीतानि, वेदना शरीरादिपीडा ततश्च व्याध्यभावत क्षेमत्व, जरा-मरणाभावतः शिवत्व, वेदनाऽभावतोऽनाबाधत्बमुक्तमिति यथायोग भावनीयम् ।
हिन्दी-भावार्थ लोक के अग्रभाग मे एक ध्र व-नित्य स्थान है, जिस पर आरोहण करना अत्यन्त कठिन है। उस स्थान मे अवस्थित जीवो को न जरा-बुढापा है, न मृत्यु है, न व्याधिया है और न नाही वेदनाए होती है।
* अस्त्येकं ध्रुव स्थान, लोकाने दुरारोह । यत्र नास्ति जरा मृत्यु , व्याधयो वेदनास्तथा ॥
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(४८)
मूल पाठ * निव्वाण ति अबाह ति सिद्धी लोगग्गमेव य । खेम सिव अणावाह, ज तरति महेसिणो ।
सस्कृत-व्याख्या निर्वाति कर्माग्निविध्यापनाच्छीतीभवन्त्यस्मिन्निति निर्वाण इति शब्द स्वरूपप्रदर्शको यत्रापि नास्ति तत्राग्यध्याहार्य तत 'उच्यते इत्यध्याहृत्य' निर्वाणमिति यदुच्यते, अबाधमिति यदुच्यते, सिद्धिरिति यदुच्यते, लोकाग्रमिनि यदुच्यत इति व्याख्येयम् । क्षेम शिवमनाबाधमिति च प्राग्वत् । यदिति यत् स्थान 'विभक्तिव्यत्ययाद्' यत्र स्थाने वा तरन्ति प्लवन्ते गच्छन्तीत्यर्थो महर्षयो महामुनय. ।
हिन्दी-भावार्थ जिस स्थान को महर्षि लोग प्राप्त करते है, उस स्थान को निर्वाण, अबाध, सिद्ध, लोकाग्र, क्षेम, शिव और अनाबाध कहा जाता है।
मूल पाठ + त ठाण सासयवास, लोगग्गमि दुरारुह । ज सम्पत्ता न सोयन्ति, भवोहन्तकरा मुणी ॥
-उत्तराध्ययन प्र. २३-८४
* निर्वाणमिति अबाधमिति सिद्धिः लोकाग्रमेव च ।
क्षम शिवमनाबाध, यत्तरन्ति महर्षयः ॥ + तत्स्थान शाश्वतवास, लोकाग्रे दुरारोह । यत् सम्प्राप्ता न शोचन्ति, भवौधान्तकरा. मुनय ॥
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(४९)
सस्कृत-व्याख्या नत् स्थानम् 'उक्तमिति प्रक्रमः' । 'बिन्दोरलाक्षणिकत्वात्' शाश्वतवास नित्यावस्थित ध्रुवमिति यावत् । लोकाग्रे दुरारुहम् 'उपलक्षणत्वाज्जरादय भाववच्च' यत् सम्प्राप्ता न शोचन्ते । कीदृशा. सन्तः ? इत्याह-भवा नारकादयस्तेषामोघ पुन पुनर्भावरूप प्रवाहस्तस्यान्तकरा पर्यन्तविधायिनो भवौघान्तकरा मुनय इति ।
हिन्दी-भावार्थ उस स्थान मे जीव सदा के लिये रहते है, वह स्थान लोक के अग्रभाग पर स्थित है, दुरारोह है, उस पर आरोहण करना कठिन है, उस स्थान को प्राप्त करने वाले जीव कभी शोक को प्राप्त नही होते है तथा भवपरम्परा का अन्त करने वाले मुनि उसे प्राप्त करते है।
मूल पाठ * सिद्धा णं भन्ते । कि वड्ढति, हायति, अवट्ठिया ? गोयमा ! सिद्धा वड्ढति, णो हायति, अवट्ठिया ।
-भगवतीसूत्र शतक ५. उ०८
हिन्दी-भावार्थ भगवान गौतम बोले-भगवन् ! क्या सिद्ध बढते है ? घटते है अथवा अवस्थित रहते है, अर्थात् न बढते है और न घटते
भगवान महावीर बोले-गौतम ! सिद्ध बढते है, घटते नही * सिद्धा भदन्त ! कि वर्धन्ते, हीयन्ते, अवस्थिता: ? गौतम ! सिद्धा वर्धन्ते, नो हीयन्ते, अवस्थिताः। ।
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( ५० )
और अवस्थित भी रहते है ।
मूल पाठ
केवइय काल वड्ढति ?
* सिद्धा ण भते ! गोयमा ! जहणेण एक्क समय, उक्कोसेण अटठसमया ।
हिन्दी - भावार्थ
भगवान गौतम बोले- भगवन् । सिद्ध कितने काल तक बढ़ते हैं ?
भगवान महावीर बोले- गौतम । कम से कम एक समय तक और अधिक से अधिक आठ समय तक 1
मूल पाठ
+ सिद्धा ण भते । केवइय काल अवट्टिया ? गोयमा ! जहणेण एक्क समय, उक्कोसेण छम्मासा । हिन्दी- भावार्थ
भगवान गौतम बोले-भगवन् । सिद्ध कितने काल तक अवस्थित रहते है ?
भगवान महावीर बोले- गौतम ! कम से कम एक समय तक और अधिक से अधिक छह मास तक ।
* सिद्धा भदन्त ! कियन्त काल वधन्ते ?
गौतम ! जघन्येन एक समयमुत्कर्षेण भ्रष्ट समयान् । + सिद्धा भदन्त ! कियन्त्र कालमवस्थिताः ?
गौतम ! जघन्येन एक समयमुत्कर्षेण षण्मासात् ।
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५१)
मूल पाठ * सिद्धा ण भते । कि सोवचया, सावचया, सोवचयसावचया, णिरुवचयणिरवचया ?
गोयमा । सिद्धा सोवचया, णो सावचया, णो सोबचयसावचया, णिरुवचयणिरवचया ।
हिन्दी-भावार्थ भगवान गौतम बोले-भगवन् ! सिद्ध क्या सोपचय-वृद्धि वाले है, सापचय है-हानि वाले है, सोपचयसापचय है-वृद्धि और हानि वाले है, तथा निरुपचय-निरपचय है-वृद्धि तथा हानि वाले नही है ? ____ भगवान महावीर बोले- गौतम ! सिद्ध सोपचय है, सापचय नही है, सोपचय-सापचय नहीं है तथा निरुपचय-निरपचय है।
मूल पाठ + सिद्धा णं भन्ते ! केवइय काल सोवचया ? गोयमा! जहण्णेण एग समय, उक्कोसेण अट्ठसमया। * सिद्धा भदन्त ! किं सोपचयाः, सापचयाः, सोपचयसापचयाः, निरुपचयनिरपचयाः ? गौतम । सिद्धा. सोपचया. नो सापचया , नो सोपचय-सापचया., निरुपचयनिरपचया.. + सिद्धा भदन्त । कियन्तं काल सोपचया:? _ गौतम ! जघन्येन एक समयमुत्कर्षण मष्टसमयान् ।
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( ५२ )
भगवान गौतम बोले- भगवन् । सिद्ध कितने काल तक सोपचय - वृद्धि वाले होते है ?
भगवान महावीर बोले- गौतम ! कम से कम एक समय तक और अधिक से अधिक आठ समय तक ।
मूल पाठ
* सिद्धा ण भते । केवइय काल णिरुवचयणिरवचया ? गोयमा ! जहणेण एग समय, उक्कोसेण छम्मासा । हिन्दी- भावार्थ
भगवान गौतम बोले- भगवन् । सिद्ध कितने काल तक निरुपचय - निरपचय है, एक साथ वृद्धि, हानि से रहित है ।
भगवान महावीर बोले- गौतम | कम से कम एक समय तक और अधिक से अधिक छह मास तक । अर्थात् इतने काल तक सिद्ध अवस्थित रहते है ।
* परमात्मा अनादि है *
मूल पाठ
+ तेण कालेणं तेणं समएण समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तेवासी रोहे णामं अणगारे पगइ - भद्दए पगइ-मउए पगइ-विणीए पगइ - उवसंते पगइ - पयणुकोह -
* सिद्धा भदन्त ! कियन्तं काल निरुपचयनिरपचया: ? गौतम ! जघन्येन एक समयमुत्कर्षेण षण्मासान् ।
+ तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्ते
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माण-माया-लोभे मिउ-मद्दव-सपन्ने अल्लीणे भद्दए विणीए समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूर-सामते उड्ढजाणु अहोसिरे झाण-कोट्ठोवगए सजमेण तवसा अप्पाण भावेमाणे विहरइ । तए ण से रोहे णाम अणगारे जायसड्ढे जाव पज्जुवासमाणे एव वदासी
पुव्वि भते ! लोए, पच्छा अलोए ? पुब्वि अलोए पच्छा लोए ?
रोहा | लोए य अलोए य पुवि पेते, पच्छापेते । दोवि एए सासया भावा अणाणुपुव्वी एसा रोहा ! ।
पुव्वि भते ! जीवा, पच्छा अजीवा पुन्वि? अजीवा पच्छा जीवा ? जहेव लोए य अलोए य तहेव जीवा य वासी रोहो नाम अनगार प्रकृति-भद्रक , प्रकृतिमृदुक , प्रकृतिविनीत , प्रकृति-उपशान्तः, प्रकृतिप्रतनु-क्रोध-मान-माया-लोभ , मृदुमार्दवसम्पन्न , आलीन , भद्रक', विनीतः, श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अदूरसामन्ते ऊर्ध्वजानुः, अधःशिरा, ध्यानकोष्ठोपगत. सयमेन तपसा प्रात्मान भावयन् विहरति । तत स रोहो नाम अनगारो जातश्रद्धः, यावत् पर्युपासमान एवमवदत्. पूर्व भदन्त ! लोक , पश्चाद् अलोक.?, पूर्वमलोक., पश्चाल्लोक. ? ___ रोह | लोकश्च अलोकश्च पूर्वमपि एतौ, पश्चादपि एतौ । द्वावपि एतौ शाश्वतौ भावौ । अनानुपूर्वी एषा रोह !
पूर्व भदन्त । जीवा , पश्चाद् अजीवा ? पूर्वमजीवा पश्चाज्जीवा? यथैव लोकश्च अलोकश्च, तथैव जीवाश्च, अजीवाश्च । एव भव
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अजीवा य, एवं भवसिद्धिया य अभवसिद्धिया य सिद्धो असिद्धो सिद्धा असिद्धा।
पुवि भते ! अडए, पच्छा कुक्कुडो ?, पुवि कुक्कुडो पच्छा अडए ?
रोहा | से ण अडए कओ? भयव ! कुक्कुडिओ। सा ण कुक्कुडी कओ?, भते । अडयाओ। एवामेव रोहा से य अडए सा य कुक्कुडी, पुब्वि पेते पच्छा पेते । दुवेते सासया भावा, अणाणुपुव्वी एसा रोहा !
पुवि भते। लोयंते, पच्छा अलोयते?, पुव्विं अलोयंते, पच्छा लोयते ? रोहा | लोयते अलोयते य जाव अणाणुपुवी एसा रोहा । सिद्धिकाश्च, प्रभवसिद्धिकाश्च, सिद्धि , प्रसिद्धि :, सिद्धा, असिद्धा:, पूर्वं भदन्त । अडक, पश्चात् कुक्कुटी, पूर्व कुक्कुटी, पश्चाद् अडकम् ? रोह । तद् अंडक कृत ? भगवन् । कुक्कटीतः, सा कुक्कटी कुतः ? भदन्त ! अडकत । एवमेव रोह । तच्च अण्डक सा च कुक्कुटी, पूर्वमपि एते, पश्चादपि एते, द्वावपि तो शाश्वतौ भावौ, अनानुपूर्वी एषा रोह । पूर्व भदन्त ! लोकान्त ? पश्चादलोकान्त ? पूर्वमलोकान्त, पश्चाल्लोकान्तम् ? रोह । लोकान्तञ्चालोकान्त च याबद् अनानुपूर्वी एषा रोह । पूर्व भदन्त । लोकान्त, पश्चात् सप्तममवकाशान्तर ? पृच्छा, रोह ' लोकान्त च मप्तममवकाशान्तरं पूर्वमपि दावपि एतौ यावदनानुपूर्वी एषा रीह ' एव लोकान्त च सप्तमश्चं तनुवातः, एव धनवात , घनोदधि , सप्तमा पृथ्वी, एवं लीकान्तमेककेन संयोजयितव्य
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( ५५ ) पुवि भते ! लोयते, पच्छा सत्तमे उवासतरे? ,पुच्छा। रोहा ! लोयन्ते य सत्तमे उवासन्तरे पुब्वि पि दोवि एते जाव अणाणुपुव्वी एसा रोहा । एव लोयते य, सत्तमे य, तणुवाए एव घणवाए घणोदही सत्तमा । पुढवी, एव लोयते एक्केक्केण सजोयव्वे इमेहि ठाणेहि तजहा
ओवासवायघणउदही,पुढवी दीवा य सागरा वासा । नेरइयाई अत्थिय समया कम्माइ लेस्साओ ॥१॥ दिट्ठी दसण णाणा सन्न सरोरा य योग उवओगे । दव्व-पएसा पज्जव अद्धा कि पुव्वि लोयते ।।२।।
मेभि स्थान तद्यथा-अवकाश-वात-घनो-दधि-पृथ्वी-द्वीपाश्च सागरा:, वर्षाणि, नैरयिकादिः अस्तिकाय , समया , परमाणुः, लेश्या , ॥१॥ दृष्टय., दर्शनानि, ज्ञानामि, सज्ञा., शरीराणि च, योगा, उपयोगी द्रव्यप्रदेशाः, पर्यवा., प्रद्धा , कि पूर्व लोकान्तम् ॥२॥ पूर्व भदन्त । लोकान्त, पश्चात्सर्वाद्धा । यथा लोकान्तेन सयोजितानि सर्वाणि स्थानानि एतानि, एवमलोकान्तेनापि सयोजयितव्यानि सर्वाणि । पूर्व भदन्त ! सप्तम-मवकाथान्तर पश्चात्सप्तमः तनुवात., एव सप्तममवकाशान्तर सर्व सम सयोजयितव्य यावत् सर्वाद्धया। पूर्व भदन्त ! सप्तम तनुवातः पश्चात् सप्तमो धनवातः ? एतदपि तथैव नेतव्य यावत् सर्वाद्धा। एवमुपरितनभेकक सयोजयता यद् यद् अधस्तन तत्तद् छड्डयिता नेतव्य यावद् अतीतानगताद्धा, पश्चात्सर्वाद्धा, यावद् अनानुपूर्वी, एषा रोह | तदेव भदन्त !, तदेव भदन्त ! इति यावद् विहरनि ।
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(५६)
पुव्वि भते | लोयते, पच्छा सव्वद्धा ? जहा लोयतेण सजोइया सव्वे ठाणा एते एव अलोयतेण वि सजोएव्वा सव्वे ।
पुव्वि भते । सत्तमे उवासतरे, पच्छा सत्तमे तणुवाए? एव सत्तम उवासतर सव्वेहि सम सजोएयब्व जाव सव्वद्धाए।
पुव्वि भते। सत्तमे तणवाए,पच्छा सत्तमे घणवाए? एय पि तहेव नेयव्व जाव सव्वद्धा,एव उवरिल्ल क्केक्क सजोयतेण जो-जो हिठिल्लो त-त छड्डतेण नेयव्व जाव अतीय-अणागयद्धा पच्छा सव्वद्धा जाव अणाणुपुव्वी एसा रोहा सेव भते! सेव भते । त्ति जाव विहरइ ।
(भगवती सूत्र शतक १, उद्देशक ६)
सस्कृत-व्याख्या 'पगइभद्दए त्ति' स्वभावत एव परोपकारकरणशील ‘पगइमउए त्ति' स्वभावत एव भावमार्दविक, अतएव 'पगइ-विणोए' त्ति तथा 'पगइ-उवसते' त्ति क्रोधोदयाभावात, 'पगइ-पयणु-कोहमाणमायालोभे' सत्यपि कषायोदये तत्कार्याभावात् प्रतनुक्रोधादि-भाव , 'मिउमद्दवसपन्ने' ति मृदु यन्मार्दवम्-प्रत्यर्थमहकृतिजयस्तत्सपन्न -प्राप्तो गुरूपदेशात् यः स. तथा, 'आलीणे' त्ति गुरुसमाश्रित' संलीनो वा 'भद्दए त्ति' अनुपतापको गुरुशिक्षागुणात् "विणीए' त्ति, गुरुसेवागुणात् 'भवसिद्धिया य' त्ति भविष्यतीति भवा,भवा सिद्धिनिर्वतिर्येषावते भसिद्धिका भव्या इत्यर्थ. । 'सत्तमे उवासतरे' त्ति
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( ५७ ) सप्तम-पथिव्या, अधोवाकाशमिति । सूत्र -सग्रहगाथे के ? 'तत्र 'सोवासे' ति सप्तावकाशान्त राणि 'वाय' त्ति तनुवाता, घनवाता 'घण-उदहि' त्ति घनोदधय सप्त, 'पुढवी' त्ति नरक-पृथिव्या सप्तव दीवा-जबूढीपादयोऽसख्याता असख्येया एव सागरा लवणादयः, 'वास' ति वर्षाणि भरतादीनि सप्तव 'नेरयाई' त्ति चविंशतिदण्डका. 'अत्थिय' त्ति अस्तिकाया. 'पचसमय' त्ति काल-विभागः कर्माण्यष्ट, लेश्या षट्, दृष्टयो-मिथ्यादृष्टयादयस्तित्र , दर्शनानि चत्वारि, ज्ञानानि पच, सज्ञाश्चतस्र , शरीराणि पच, योगास्त्रय, उपयोगी द्वौ, द्रव्याणि षट्, प्रदेशा अनन्ता , पर्यवा अनन्ता एव, 'अद्ध' त्ति अतीनाडा अनागताद्धा सर्वाद्धा चेति, 'कि पुग्वि लोयति' त्ति प्रय सूत्राभिलापनिर्देश. तथैव पश्चिम--सूत्राभिलाप दर्शयन्नाह'पुन्वि भते ! लोयते पच्छा सव्वद्धे' त्ति एतानि सूत्राणि शून्यज्ञानादिवादनिरासेन विचित्र--बाह्याध्यात्मिक--वस्तु-सत्ताभिधानानि ईश्वरादि-कृतत्व-निरासेन चानादित्वाभिधानार्थानीति ।।
हिन्दी-भावार्थ उस काल, उस समय श्रमण भगवान महावीर के शिष्य रोह नामक अनगार थे, जो कि प्रकृति-स्वभाव से भद्र, कोमल, विनीत और उपशान्त थे। क्रोध, मान, माया, लोभ को उन्होने कमजोर बना दिया था, वे मृदुता के भण्डार थे, गुप्तेन्द्रिय थे, सरलता और विनीतता के निधि थे, वे भगवान महावीर के सन्निकट कुछ मस्तक को झुकाए हुए खड़े होकर, तथा ध्यान रूप कोष्ठक को प्राप्त कर के सयम और तप के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विहरण कर रहे थे। एक बार उन्हे लोक, अलोक आदि के सम्बन्ध मे जिज्ञासा उत्पन्न हुई, तदनन्तर वे भगवान महावीर की सेवा में आए
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(५८) और भगवान को वन्दना-नमस्कार करने के अनन्तर निवेदन करने लगे___भगवन् ! लोक पहले है, अलोक पीछे है? या अलोक पहले है, लोक पीछे है ?
भगवान-रोह ! लोक और अलोक पहले भी है और पीछे भी अर्थात् ये दोनो पदार्थ शाश्वत है, नित्य है । इन मे कोई पहले हो और कोई पीछे, ऐसी बात नही है।।
रोह-भगवन् ! जीव पहले है कि अजीव पहले है ?
भगवान- रोह ! इसे लोक और अलोक के समान समझ लेना चाहिए।
इसी प्रकार, भव्य, अभव्य, सिद्धि (मुक्ति), असिद्धि (ससार), सिद्ध (मुक्त), प्रसिद्ध (ससारी) के सम्बन्ध मे भो समझ लेना चाहिए। ___ रोह-भगवन् ! अण्डा पहले है या मुर्गी ? मुर्गी पहले है या अण्डा ?
भगवान-रोह ! अण्डा कहा से उत्पन्न होता है ? रोह-भगवन् ! मुर्गी से। भगवान-रोह ! मुर्गी कहा से उत्पन्न होती है ? रोह-भगवन् ! अण्डे से।
भगवान-रोह ! जैसे अण्डा और मुर्गी इन दोनो में एक पहले है, एक पीछे है, ऐसा नही कहा जा सकता है, क्योकि ये दोनो ही शाश्वत है, नित्य है । वैसे ही लोक और अलोक आदि भी ऐसे ही है, शाश्वत है।
रोह-भगवन् ! लोकान्त पहले है, अलोकान्त पीछे है ? या अलोकान्त पहले है, लोकान्त पीछे है ?
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(५९) भगवान-रोह | लोकान्त और अलोकान्त, इन दोनों मे एक पहले है, दूसरा पीछे है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। क्योकि ये दोनो शाश्वत है, नित्य है।
रोह-भगवन् ! लोकान्त पहले है, *सप्तम अवकाशान्तर पीछे है? या सप्तम अवकाशान्तर पहले है, और लोकान्त पीछे है ? __ भगवान-रोह । लोकान्त और सप्तम अवकाशान्तर इन मे कोई पहले नही है, और कोई पीछे नही है। दोनो ही शाश्वत है, नित्य है। । इसी प्रकार लोकान्त, सप्तम तनुवात, सप्तम घनवात, सप्तम घनोदधि, और सप्तम नरक के सम्बन्ध मे भी समझ लेना चाहिए ।
इसी प्रकार लोकान्त के साथ आकाश, वात, (तनुवात, घनवात), घनोदधि, पृथ्विए (सात नरक), द्वीप, सागर, वर्ष (भरत आदि क्षेत्र), नैरयिक आदि २४ दण्डक, अस्तिकाय (धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय), समय (सब से सूक्ष्म काल), कर्म (ज्ञानावरणीय आदि अष्ठविध कर्म), छ लेश्याए (कृष्ण, नील आदि), तीन दृष्टियां (सम्यग्दृष्टि, मिथ्या-दष्टि, मिश्र___ *अवकाशान्तर आकाश को कहते है । लोकान्त और सप्तम नरक के मध्य मे स्थित आकाश को सप्तम अवकाशान्तर कहा जाता है। प्रथम नरक का आकाश -प्रथम आकाश-' और दूसरी नरक का आकाश-द्वितीय; इसी क्रम से आगेतीसरी का तीसरा, चौथी का चतुर्थ, पाचवी का पचम, छठी का षष्ठ और सातवी नरक का आकाश सप्तम आकाश कहा जाता है।
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(६०) दृष्टि), चार दर्शन (चक्षुर्दर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन), पाच ज्ञान, (मति, श्रुत आदि), चार सज्ञाए (आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, ये चार सज्ञाए), पाच शरीर (औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण), तीन योग (मन-योग, वचनयोग, काय-योग), दो उपयोग (दर्शनोपयोग, ज्ञानोपयोग), द्रव्यप्रदेश (द्रव्य के खण्ड), पर्याय (अवस्थाए), और अद्धा (काल) इन को जोड लेना चाहिए । अर्थात् ये सभी शाश्वत है, नित्य है, इन मे कोई पहले नहीं है, कोई पीछे नही है।
रोह-भगवन् ! लोकान्त पहले है, सद्धिा (भूत, वर्तमान, भविष्य, तीनो काल, सम्पूर्ण काल) पीछे है ?
भगवान-रोह | दोनो शाश्वत है, नित्य है, इन मे कोई पहले हो, कोई पीछे, ऐसी बात नही है ।
जिस प्रकार लोकान्त के साथ अवकाशान्तर आदि को जोडकर प्रश्नोत्तर किए गए है, उसी प्रकार अलोकान्त के साथ अवकाशान्तर आदि को जोड लेना चाहिए, प्रश्नोत्तर बना लेने चाहिए।
रोह-भगवन् ! सप्तम आकाश पीछे है, अथवा सप्तम तनुवात ?
भगवान-रोह ! दोनो शाश्वत है, नित्य है, कोई पहले पीछे नही है ? ___इसी प्रकार सप्तम आकाश के साथ घनवात, घनोदधि आदि से लेकर सर्वाद्धा तक, इन सभी को जोड़ लेना चाहिए।
रोह-भगवन् ! सप्तम तनुवात पीछे है, सप्तम घनवात पीछे नही है।
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(६१) भगवान-रोह । दोनो शाश्वत है, नित्य है, इन मे कोई पहले-पीछे नही है।
इसी प्रकार सप्तम तनुवात के साथ घनोदधि, पथ्वी आदि से लेकर सर्वाद्धा तक, इन सब का सयोजन कर लेना चाहिए।
वर्णनक्रम मे सब से पहले लोकान्त को रखा है, फिर अलोकान्त, पुन सप्तम आकाश को, इसी प्रकार उस के अनन्तर तनुवात, घनवात, घनोदधि आदि है, और अन्त मे सर्वाद्धा है। सर्वत्र प्रश्नोत्तरो मे ऊपर के बोल के साथ क्रमश. नीचे के बोलो को जोडा गया है। जैसे लोकान्त को अवकाशान्तर आदि से लेकर सर्वाद्धा तक, इन सभी के साथ जोडा गया है, तथा अवकाशान्तर को तनुवात आद से लेकर सर्वाद्धा तक,के साथ जोडा गया। इसी प्रकार ऊपर के बोल के साथ नीचे के सव बोलो को क्रमश जोड देना चाहिए, इसी क्रम से ऊपर के बोलो को छोडकर नीचे के बोलो के साथ शेष सभी बोलो का सयोजन करते चले जाना चाहिए। अन्त मे प्रश्नावली अद्धा तक चली जाती है।
मूल पाठ * जे वि य ते खदया ! जाव कि अणते सिद्धे ? त चेव जाव । दवओ ण एगे सिद्धे सअन्ते,खेत्तओ ण सिद्ध
* येऽपि च ते स्कन्दक | यावत् किमनन्तः सिद्ध.? तच्चैव यावद् द्रव्यत:-एक सिद्ध. सान्तः, क्षेत्रत:-सिद्धो असख्येयप्रदेशिकः असख्येयप्रदेशावगाढ', अस्ति पुनः तस्यान्त । कालत.-सिद्ध सादिरपर्यवसित., नास्ति पुन. तस्यान्तः । भावत.--सिद्धा. अनन्ता.
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( ६२ ) असखेज्जपए सिए असखेज्जपदेसोगाढे, अत्थि पुण से अन्ते, कालओ ण सिद्धे सादीए अपज्जवसिए, नत्थि पुण से अन्ते. भावओ ण सिद्धे अणन्ता णाणपज्जवा, अणन्ता दसणपज्जवा जाव अणन्ता अगुरुलहुयपज्जवा नत्थि पुण से अन्ते, सेत्त दव्वओ सिद्धे सअन्ते, खेत्तओ सिद्धे सअन्ते, कालओ सिद्धे अणन्ते, भावओ सिद्धे अणन्ते ।
—- भगवती सूत्र शतक २, उद्देशक १ हिन्दी - भावार्थ
हे स्कन्दक | सिद्ध अनन्त है, परन्तु द्रव्य से एक सिद्ध सान्त है, क्षेत्र से एक सिद्ध असख्यात - प्रदेशिक है, और प्रख्यात प्रदेशावगाढ है काल से एक सिद्ध सादि है, अनन्त है, उसका अन्त नही होता है, भाव से एक सिद्ध की अनन्त ज्ञानपर्याय, अनन्त दर्शन - पर्याय यावत् अनन्त अगुरुलघुपर्याय है, इन का कभी अन्त नही होता है ।
साराश यह है कि द्रव्य और क्षेत्र से एक सिद्ध सान्त है, किन्तु काल और भाव से एक सिद्ध अनन्त है ।
मूल पाठ
+ गत्तेण साइया, अपज्जवसिया विय ।
ज्ञानपर्यंवा', अनन्ताः दर्शनपर्यंवा: यावद् अनन्ता अगुरुलघुपर्यंवा, नास्ति पुन तस्यान्त । समाप्त द्रव्यत. – सिद्ध सान्तः, क्षेत्रत. सिद्ध. सान्त., कालत. – सिद्धोऽनन्तः, भावत - सिद्धोऽनन्तः ।
+ एकत्वेन सादिका, पर्यवसिता श्रपि च ।
पृथक्त्वेन अनादिका, अपर्यवसिता श्रपि च ॥
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(६३) पुहत्तेण अणाइया, अपज्जवसिया वि य ।
-उत्तराध्ययन सूत्र, अ० ३६/६६
सस्कृत-व्याख्या एकत्वेनासहायत्वेन ते सादिका अपर्यवसिता अपि च यत्र हि काले ते सिध्यन्ति स तेषादि नतु कदाचित् मुक्ते. भ्रश्यन्ति, अतो न पर्यवसानमिति । पृथक्त्वेन-बहुत्वेन सामस्त्यापेक्ष्येति । यावत् अनादिका अपर्यवसिता अपि च नहि कदाचिद् ते नाभूवन् न भविष्यन्ति चेति ।
हिन्दी-भावार्थ एक सिद्ध की अपेक्षा सिद्ध सादि अनन्त है, और बहुत्व की अपेक्षा सिद्ध अनादि अनन्त है। * परमात्मा एक है *
मूल पाठ * एगे सिद्धे।
-स्थानागसूत्र स्थान १, सू० ४६
संस्कृत-व्याख्या 'एगे सिद्धे' सिध्यति स्म कृतकृत्यो भवेत्, सेधतिस्म वा समगच्छदपुनरावृत्त्या लोकाग्रमिति सिद्धः । सित वा बद्ध वा कर्म मात-दग्ध यस्य स निरुक्तात्-सिद्ध., कर्मप्रपचनिर्मुक्त., स चको द्रव्यार्थतया पर्यायार्थतस्त्वनन्तपर्याय इति, अथवा सिद्धानामनन्तत्वेपि तत्साम्यदेकत्व अथवा कर्मशिल्प-विद्यामत्र-योगागमार्थयात्राबुद्धितप.कर्मक्षयभेदेनानेकत्वेप्यस्यकत्व सिद्ध शब्दाभिधेयत्वसाम्यादिति ।
* एक. सिद्धः।
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( ६४ )
हिन्दी - भावार्थ
सख्या की अपेक्षा से सिद्ध अनन्त होने पर भी सिद्ध-जीवो की ज्ञान, दर्शन आदि गुणसम्पदा समान होने के कारण "सिद्ध एक है" ऐसा कहा जाता है ।
मूल पाठ
1
णत्थि सिद्धो असिद्धी वा णेव सन्न निवेसए अस्थि सिद्धी असिद्धी वा, एव सन्न निवेस || १ || णत्थि सिद्धी निय ठाण, णेव सन्न निवेसए । अतिथ सिद्धी निय ठाण, एव सन्न निवेस ||२||
- सूत्रकृताग सूत्र श्रु० २ ० ५, गा० २५-२६
,
संस्कृत - व्याख्या
--
सिद्धि प्रशेषकर्मच्युतिलक्षणा तद्विपर्यस्ता चासिद्धिर्नास्तीत्येव नो सज्ञा निवेशयेद्, प्रपित्वसिद्धेः ससार - लक्षणायाश्चतुविध्येनानन्तरमेव प्रसाधिताया अविगानेनास्तित्व प्रसिद्ध, तद्विपर्ययेण सिद्धेरप्यस्तित्वमनिवारितमित्यतोऽस्ति सिद्धिरसिद्धिर्वेत्येव सज्ञा निवेशयेदिति स्थितम्, इदमुक्त भवति -- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकस्य मोक्ष - मार्गस्य सद्भावात्मक्षयस्य च पीडोपशमादिनाऽध्यक्षेण दर्शनादत. कस्यचिदात्यन्तिककर्म - हानि - सिद्धेरस्ति सिद्धिरिति तथा चोक्तम् " - - दोषाकरणयोर्हानि
,
* नास्ति सिद्धिरसिद्धिर्वा नैव सज्ञा निवेशयेत् ।
2
अस्ति सिद्धिरसिद्धिर्वा एव सज्ञा निवेशयेत् ॥ नास्ति सिद्धि निज स्थान, नैव सज्ञा निवेशयेत् । श्रस्ति सिद्धि निज स्थान, एव सज्ञा निवेशयेत् ।।
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(६५)
नि शेषाऽस्यतिशायनी । क्वचिद् यथा स्वहेतुभ्यो, बहिरन्तर्म-- लक्षयः ।।१॥" इत्यादि, एव सर्वज्ञसद्भावोऽपि सभवानुमानाद् द्रष्टव्य , तथाहि--प्रभ्यस्यमानाया प्रज्ञाया व्याकरणादि (ना) शास्त्र-सस्कारेणोतरोत र-वृद्ध या प्रज्ञातिशयो दृष्ट , तत्र कस्यचिदत्यन्तातिशयप्राप्ते सर्वज्ञत्व म्पादिति मभवानुपानम्, न चैतदाशङ्कनीय, तद्यथा-- ताप्यमानमुदकमत्यन्तोष्णतामियान्नाग्निसाद्भवेत् तथा
दशहस्तान्तर व्योम्नि, यो नामोरप्लुत्य गच्छति ।
न योजनमसी गन्तु, शक्तोऽभ्यास-शतैरपि ॥१। इति, दृष्टान्तदाष्र्टान्तिकयोरसाम्यात्, तथाहि---ताप्यमान जल प्रतिक्षण क्षय गच्छेत्, प्रज्ञा तु विवर्द्धते यदि वा प्लोषोपलब्धेरव्याहतमग्नित्व, तथा प्लवनविषयेऽपि पूर्वमर्यादाया अनतिक्रमाद्योजनोत्प्लवनाभाव , तत्परित्यागे चोत्तरोत्तर वृद्धया प्रज्ञाप्रकर्षगमनवद्योजनशतमपि गच्छेदित्यतो दृष्टान्तदाष्टान्तिकयोरसाम्यादेतन्नाशङ्कनीयमिति स्थितम्, प्रज्ञावृद्धेश्च बाधकप्रमाणाभावादस्ति सर्वज्ञत्व-प्राप्तिरिति । यदि बा अञ्जनभृतसमुद्गदृष्टान्तेन जीवाकुलत्वाज्जगतो हिसाया दुर्निवारत्वात्सिद्धयभावः, तथाचोक्तम्
जले जीवा स्थले जीवा , आकाशे जीवमालिनि । जीवमालाकुले लोके, कथ भिक्षुरहिसक ? ॥१॥ इत्यादि, तदेव सर्वस्यैव हिसकत्वात्सिद्धयभाव इति, तदेतदयुक्त, तथाहि-सदोपयुक्तस्य पिहिताश्रवद्वारस्य पञ्चसमिति-समितस्य त्रि-गुप्तिगुप्तस्य सर्वथा निरवद्यानुष्ठायिनो द्विचत्वारिंशद्दोषरहितभिक्षाभुज ईर्यासमितस्य कदाचिद् द्रव्यतः प्राणिव्यपरोपणेऽपि तत्कृतबन्धाभाब. सर्वथा तस्यानवद्यत्वात्, तथा चोक्तम्-"उच्चालियसि पाए," इत्यादि प्रनीत, तदेव कर्मबन्धाभावात्सिद्धे. सद्भावोऽव्याहतः, सामग्रयभावादसिद्धिसद्भावोऽपीति ॥२५॥ साम्प्रतं
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( ६६ )
सिद्धाना स्थाननिरूपणायाह - ' णत्थि सिद्धि, त्यादि, सिद्ध अशेषकर्म च्युति - लक्षणाया निज स्थानम -- ईषत्प्राग्भाराख्य व्यवहारतो निश्चयतस्तु तदुपरियोजन - कोशषड्भाग तत्प्रतिपादकप्रमाणाभावात् स नास्तीत्येव सज्ञा नो निवेशयेत्, यतो बाधकप्रमाणाभावात्, साधकस्य चागमस्य सद्भावात्तत्सत्ता दुर्निवारेति । अपिच - प्रपगतशेषकल्मषाणा सिद्धाना केनचिद् विशिष्टेन स्थानेन भाव्य तच्चतुर्दशरज्ज्वात्मकम्य लोकस्याग्रभूत द्रष्टव्य, न च शक्येत वक्तुम काशवत् सर्वव्यापिन सिद्धा इति यतो लोकालोकव्याप्याकाश, न चालोके परद्रव्यस्य तस्याकाशमात्ररूपत्वात्, लोकमात्र- व्यापित्वमपि नास्ति,
सभव
--~
}
विकल्पानुपपत्ते तथाहि-- सिद्धावस्थाया तेषा व्यापित्वमभ्युपगतमुतप्रागपि न तावत् सिद्धावस्थाया, तद् व्यापित्वभवने निमित्ताभावात्, नापि प्रागवस्थाया, तद्-भावे सर्वससारिणा प्रतिनियतसुख-दु खानुभवो न स्यात्, न च शरीराद्व हिरवस्थितमवस्थानमस्ति तत्सत्ता निबन्धनस्य प्रमाणस्याभावात्--अत. सर्वव्यापित्व विचार्यमाण न कथचिद् घटते, तदभावे च लोकाग्रमेव सिद्धाना स्थान, तद्गतिश्च 'कर्मविमुक्तस्योर्ध्व गति' रिति कृत्वा भवति, तथा चोक्तम् --
लाउ एरडफले अग्गी धूमे य उसु धणु विमुक्के । गई पुव्वपोगेण एव सिद्धाण विगई
॥१॥
तदेवमस्ति सिद्धिस्तस्याश्च निज स्थानमित्येव सज्ञा निवेशयेदिति ||२६||
हिन्दी- भावार्थ
,
सिद्धि (मुक्ति) नही है, और असिद्धि (ससार ) नही है, ऐसी धारणा नही रखनी चाहिए, प्रत्युत सिद्धि और प्रसिद्धि दोनों है, इस प्रकार की भावना रखनी चाहिए ।
जीव का निज-स्थान मुक्ति नही है, ऐसी धारणा भी नही रखनी चाहिए, किन्तु यही समझना चाहिए कि जीव का
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(६७) निज स्थान मुक्ति ही है।
मल पाठ * एगे भव? ,दुवे भव?, अक्खए भव', अव्वए भव', अवट्ठिए भव' , अणेगभूय-भाव-भविए भव? सोमिला एगे वि अह जाव अणेगभूयभावभविए वि अह । से केणठेण भन्ते । एव वुच्चइ जाव भविए वि अहं ? सोमिला | दव्वट्ठयाए एगे अह, नाणदसणट्ठयाए दुविहे अह, पएसट्ठयाए अक्खए वि अह, अव्वए वि अह, अवट्ठिए वि अह,उवओगट्ठयाए अणेगभूय भावभविए वि अह, से तेणठेण जाव भविए वि अह ।
-भगवतीसूत्र शतक १८, उद्देशक १०
सस्कृत-व्याख्या ‘एगे भव' मित्यादि, एको भवानित्येकत्वाभ्युपगमे भगवतात्मन. कृते श्रोत्रादिविज्ञानानामवयवाना चात्मनोऽनेकतोपलब्धित एकत्व ___ * एको भवान् ?, द्वौ भवान् ?, अक्षयो भवान् ?, अव्ययो भवान् ?, अवस्थितो भवान् ?, अनेक-भूत-भाव-भविको भवान् ? सोमिल । एकोऽप्यह यावद् अनेक--भूत--भाव--भविकोऽप्यहम् । तत्केनार्थेन भदन्त | ऐव उच्यते, यावद् भविकोऽप्यहम् ? सोमिल । द्रव्यार्थतया एकोऽहम्, ज्ञानदर्शनार्थतया द्विविधोऽहम्, प्रदेशार्थतया अक्षयोऽप्यऽहम्, अव्ययोऽप्यहम्, अवस्थितोऽप्यहम्, उपयोगार्थतया अनेकभूतभावविकोऽप्यहम्, तत्तेनार्थेन यावद् भविकोऽप्यहम् ॥
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( ६८ )
दूषयिष्यामीति बुद्धया पर्यनुयोग सोमिलभट्टेन कृत, द्वौ भवानिति च द्वित्वाभ्युपगमेऽहमित्येकत्वविशिष्टस्यार्थस्य द्वित्वविरोधेन द्वित्व दूषयिष्यामीति बुद्धया पर्यनुयोगो विहित, 'अक्खए भव' मित्यादिना व पदत्रयेण नित्यात्मपक्षः पर्यनुयुक्तः, 'प्रणेग भूय- भावभविए भव' ति प्रनेके भूता. - श्रतीता भावा-सत्तापरिणामा भव्याश्च भाविनो यस्य स तथा, अनेन चातीत-भविष्यत्सत्ताप्रश्नेनानित्यतापक्ष पर्यनुयुक्त, एकतरपरिहं तस्यैव दूषणायेति, तत्र च भगवता स्याद्वादस्य निखिलदोषगोचराति-क्रान्तत्वात्तमवलम्ब्योत्तरमदायि- एगे विग्रह' मित्यादि, कथमित्येतत् ? इत्यत आह- दव्वट्ट्याए एगोऽह, ति जीवद्रव्यस्यैकत्वेनैकोऽह न तु प्रदशार्थतया, तथाहि अनेकत्वान्ममेत्यवयवादीनामनेकत्वोपलम्भो न बाधक, तथा कञ्चित्स्वभावमाश्रित्यैकत्व सख्या विशिष्टस्यापि पदार्थस्य स्वभावान्तरद्वयापेक्षया दित्वमपि न विरुद्ध मित्यत उक्त'नाणदा दुवे व ग्रह' ति, न चैकस्य स्वभावभेदो न दृश्यते, एको हि देवदत्तादि पुरुष एकदैव तत्तदपेक्षया पितृत्व-पुत्रत्व भ्रातृत्वादीननेकान् स्वभावान् लभत इति, तथा प्रदेशार्थं तयाऽसखेय प्रदेशतामाश्रित्याक्षतो यह सर्वथा प्रदेशांना क्षयाभावात्, थाव्ययोऽप्यह कतिपयानामपि च व्ययाभावात् किमुक्त भगति ? – अवस्थिताप्यहनित्योऽप्यहम् प्रसख्येयप्रदेशिता हि न कदाचनापि व्यपैति श्रतो नित्यताऽभ्युपगमेsपि न दोष, तथा 'उवओोगट्टयाए त्ति विविधविषयानुपयोगानाश्रित्यानेकभूतभाव-भविकोऽप्यहम् अतीताना
कथञ्चिदभिन्नाना
तोह
कालयोरनेक-विषय-बोधानामात्मनः
भूतत्वात् भावित्वाच्चेत्य नित्यपक्षोऽपि न दोषायेति ।
हिन्दी - भावार्थ
भगवतीसूत्र मे सोमिल ब्राह्मण और भगवान महावीर के सवाद का वर्णन आता है । आगे का वर्णन उसी सवाद का
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(६९)
एक भाग है
सोमिल-भदन्त । आप एक है? दो है? अक्षय है? अव्यय है ? अवस्थित (नित्य) है ? भूतकालोन और भविष्यत्कालीन अनेक पर्यायो वाले है ? ___भगवान-सोमिल । मै एक भी हू, यावत् अनेक पर्यायो वाला भी है।
सोमिल- भदन्त । किस आपेक्षा से आप ऐसा फरमाते
__भगवान-सोमिल । द्रव्य की अपेक्षा से मै एक हू, ज्ञान, दर्शन की अपेक्षा से मैं दो प्रकार का ह, आत्मप्रदेशो की अपेक्षा से अक्षय (क्षयरहित) हूँ, अव्यय (व्यय-नाशिक नाश से रहित) ह, एव अवस्थित-नित्य भी है। उपयोग की अपेक्षा से मै अनेक भूत ओर भावी पर्यायो वाला हू।
इसलिए हे सोमिल | मै एक भी हू, यावत् अनेक पर्यायो वाला भी है।
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परिशिष्ट नं. १
मूल पाठ * से कि त सव्वजीवाभिगमे ?
सव्वजीवेसु ण इमाओ णव पडिवत्तीओ एवमाहिज्जति । एगे एवमाहसु-दुविहा सव्वजोवा णण्णत्ता, जाव दसविहा सव्वजीवा पण्णता। तत्य जे से एवमाह सु दुविहा सव्व-जोवा पण्णत्ता,ते एवमाहसु तजहा-सिद्धा य असिद्धा य इति।
*अथ कोऽसौ सर्वजीवाभिगमः ?
सर्वजीवेषु इमा नवप्रतिपत्तय एवमाख्यायन्ते,-एके एवमाहुद्विविधा सर्वजीवा' प्रज्ञप्ता यावद् दशविधा सर्वजीवा प्रज्ञप्ता । यत्र ये ते एवमाहु -द्विविधा सर्वजीवा प्रज्ञप्ता , ते एवमाहु , तद्यथा- सिद्धाश्च, असिद्धाश्च इति ।
सिद्धो भदन्त | 'सिद्ध' इति कालत कियच्चिर भवनि ? ___ गौतम । सादिरपर्यवसित । प्रसिद्धो भदन्न | 'असिद्ध' इति० ? गौतम ! असिद्धो द्विविधः प्रज्ञप्त. तद्यथा-अनादिको वा, अपर्यवसित , अनादिको वा सपर्यवमिन. । सिद्धस्य भदन्त । किय-कालमन्तर भवति ? गौतम ! सादिकस्य अपर्यवमितस्य नास्त्यन्तरम् । असिद्धस्य भदन्त । कियदन्तर भवति ? गौतम । अनादिकस्य अपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरम् । अनादिकस्य सपयवसितस्य नास्त्यन्तरम् । एतेषा भदन्त ! सिद्धानामसिद्धानाञ्च कतरे ? गौतम | सर्वस्तोका सिद्धा. प्रसिद्धा अनन्तगुणाः।
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( ७१ )
सिद्धे ण भते । सिद्धेत्ति कालतो केवचिर होति ? गोयमा । साती अपज्जवमिए ।
असिद्धेण भते । असिद्धेत्ति ० ? गोयमा | अमिद्धे दुविहे पण्णत्ते, तजहा - अणाइए वा अपज्जवसिए, अणातीए वा सपज्जवसिए ।
सिद्धस्स ण भते । केवतिकाल अतर होति १, गोयमा ! सातियस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अतर । असिद्धस्स ण भते । केवइय अतर होइ ? गोयमा । अणातियस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अतर, अणातियस्स सपज्जवसियस्स णत्थि अतर ।
एएसिण भते ! सिद्धाण असिद्धाण य कयरे २. ? गोयमा । सव्वत्थोवा सिद्धा असिद्धा अणतगुणा । - जोवाभिगम सूत्र २४४
संस्कृत-व्याख्या
'से कि त' मित्यादि, अथकोऽसौ सर्वजीवाभिगम ? सर्वजीवाः ससारिमुक्त-भेदा, गुरुराह - 'सव्वजीवेसु ण' मित्यादि, सर्वजीवेसु सामान्येत 'एता ' अनन्तर वक्ष्यमाणा नव प्रतिपत्तय 'एवम् ' प्रनन्तपदमानेन प्रकारेणाख्यायन्ते, ता एवाह - एके एवमुक्तवन्तोद्विविधा सर्वजीवा प्रज्ञप्ता । एक एवमुक्तवन्तस्त्रिविधा सर्व जीवा प्रज्ञप्ता, एव यावदेके एवमुक्तवन्तो दशविधा सर्वजीवा प्रज्ञप्ता |
तत्थे, त्यादि तत्र ये ते एवमुक्तवन्तो द्विविधा सर्वजीवा प्रज्ञप्तास्ते एवमुक्तवन्तस्तद्यथा - सिद्धाश्चासिद्धाश्च सित बद्धमष्टप्रकार कर्म्म
,
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(७२) ध्मात-भस्मीकत यैस्ते सिद्धा', पषोदरादित्वादिष्टरूपनिष्पत्ति , निर्दग्धकर्मेन्धना मुक्ता इत्यर्थ । 'असिद्धा' समारिण , च शब्दो स्वगतानेकभेदमदर्शनार्थी । सम्प्रति सिद्धस्य कायस्थितिमाह-सिद्धे ण, मित्यादि. सिद्धो भदन्त । सिद्ध इति---सिद्धत्वेन कालत कियच्चिर भवति ?, भगवानाह-गौतम । सिद्ध' सादिकोऽपर्यवसित , तत्र सादिता ससारविप्रमुक्तिसमये सिद्धत्वभावात्, अपर्यवसितता मिद्धत्वच्युते रसम्भवात् । प्रसिद्धविषय प्रश्नसूत्र सुगम ।
भगवानाह-गौतम | अमिद्धो द्विविध प्रज्ञप्तस्तद्यथा-अनादिकोऽपर्यवसित , अनादिक सपर्यवमित । तत्र यो न जातुचिदपि मत्स्यति अभव्यत्वात्तथाविधसामग्र यभावाद्वा सोऽनाद्यपर्यवसित , यस्तु सिद्धि गत सोऽनादिसपर्यवसित । साम्प्रतमन्तर विचिन्तयिषुराह - 'सिद्धस्स ण भते । , इत्यदि प्रश्न-सूत्र सुगम, भगवानाह-गौतम । सिद्धस्य सादिकस्यापर्यवसिनस्य नास्त्यन्तरम्, अत्र निमित्तकारणहेतुषु सर्वासा विभक्तीना प्रायोदर्शन, मिति न्यायात हेतो षष्ठी, ततोऽयमर्थ - यस्मात्सिद्ध सादिरपर्यवसितस्तस्मानास्त्यन्तरम्, अन्यथाऽपर्यवसितत्वायोगात् प्रसिद्ध -सूत्रे प्रसिद्धस्यानादिकस्यापर्यव-सितस्य नास्त्यन्तरम्, अपर्यवसितत्वादेवासिद्धत्वाप्रच्युते , अनादिक सपर्यवसितस्यापि नास्त्यन्तर, भूयोऽसिद्धत्वायोगात् साम्प्रत मेतेषामेवाल्पबहुत्वमाह --'एएऽसि ण' मित्यादि प्रश्न-सूत्र सुगम, भगवानाह --गौतम । सर्वस्तोका सिद्धा , प्रसिद्धा अनन्तगुणा , निगोदजीवानामतिप्रभूतत्वात् ।
हिन्दी-भावार्थ जीवाभिगम (जिस मे केवल ससारी जीवो का वर्णन है) के अनन्तर सर्वजीवाभिगम (जिस मे ससारी और मुक्त, दोनो प्रकार के जीवो का वर्णन है) का स्थान है । अनगार गौतम ने भगवान महावीर से पूछा-भदन्त । सर्वजीवाभिगम मे क्या
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।७३
वर्णन है। __भगवान बोले- गौतम सर्वजीवो का वर्णन करने वाली नव प्रतिपत्तिया (अध्ययन) कही गई है । जैसेकि___ कई एक ऐसा कहते है कि सब जाव दो प्रकार के होते है, यावत् दस प्रकार के होते है। जो यह कहते है कि जीव दो प्रकार के होते है,उन को मान्यता इस प्रकार है
१-सिद्ध, और २-असिद्ध अनगार गौतम बोले-भदन्त | सिद्ध भगवान की सिद्धत्व' रूप से कितनी स्थिति होती है ?
भगवान महावीर ने कहा - गौतम । सिद्ध भगवान की स्थिति एक सिद्ध की अपेक्षा से सादि अनत होती है ।
अनगार गौतम बोले-भदन्त ! असिद्ध जीवो (ससारी जीवो) की असिद्धत्व रूप से कितनी स्थिति होती है ? __ भगवान महावीर ने कहा-गोतम | असिद्धजीव दो प्रकार के कहे गये है, जैसेकि
१ अनादि-अनन्त, २. अनादि-सान्त अनगार गौतम बोले-भदन्त । काल की अपेक्षा से सिद्ध भगवान का कितना अन्तर होता है ? अर्थात् सिद्ध सिद्धत्व को छोडकर पुन कब सिद्ध बनते है ?
भगवान महावीर ने कहा-गौतम | सादि-अनन्त सिद्ध भगवान का कोई अन्तर नही होता है। अर्थात् सिद्ध भगवान सिद्धत्व से कभी रहित नहीं होते है।
अनगार गौतम बोले-भदन्त ! काल की अपेक्षा से प्रसिद्ध जीव का कितना अन्तर होता है ? अर्थात् असिद्ध जीव
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(७४)
असिद्धत्व को छोड कर पुन कब असिद्ध बनते है ?
भगवान महावीर ने कहा-गौतम | अनादि-अनन्त प्रसिद्ध जीव का अन्तर नही होता है। अर्थात् प्रसिद्ध जोव असिद्धत्व को छोड कर (सिद्धत्व को प्राप्त कर के) पुन असिद्धत्व को कभी प्राप्त नही होते है । क्योकि अनादि अनन्त होने के कारण वे असिद्धजीव प्रसिद्धत्व का कभी परित्याग ही नही कर पाते है। ___ इसी प्रकार अनादि सान्त प्रसिद्ध जीवो का भी अन्तर नहो होता है। क्योकि अनादि सान्त प्रसिद्ध जीव प्रसिद्धत्व का परित्याग करके अर्थात् सिद्धत्व को प्राप्त करके, पुन प्रसिद्धत्व को प्राप्त नही होते है, सिद्धदशा को छोड कर असिद्धदशा मे नही आते है। ___ अनगार गौतम बोले- भदन्त । इन सिद्ध और प्रसिद्ध जीवो मे कौन अल्प और कौन अधिक है ?
भगवान महावीर कहने लगे-गौतम | सब से कम सिद्ध जीव है, और सिद्ध जीवो से प्रसिद्ध जीव अनन्त गुणा अधिक होते है।
मूल पाठ * अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तजहासइदिया चेव अणिदिया चेव । ___ * अथवा द्विविधा. सर्वजीवा प्रज्ञप्ता । तद्यथा -सेन्द्रियाश्चैव अनिन्द्रियाश्चैव ।
सेन्द्रियो भदन्त | कालत. कियच्चिर भवति ? गौतम | सेन्द्रियो द्विविधः प्रज्ञप्त --अनादिको वा अपर्यवसितः, अनादिको वा सपर्यवसितः ।
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( ७५ सइदिए ण भने । कालतो केवचिर होइ ?
गोयमा । सइदिए दविहे पण्णत्ते-अणातीए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए । अणिदिए सातीए वा अपज्जवसिए दोण्ह वि अतर नत्थि। सव्वत्थोवा अणिदिया, सइदिया अणतगुणा । ___ अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता तजहा-सकाइया चेव अकाइया चेव एव चेव,एव सजोगी चेव अजोगी चेव
प्रनिन्द्रिय सादिको वा अपर्यवसित । द्वयोरपि अन्तर नास्ति । सर्वस्तोका प्रनिन्द्रियाः, सेन्द्रिया अनन्तगुणा ।
अथवा द्विविधा सर्वजीवा' प्रज्ञप्ता , तद्यथा-सकारिकाश्चैव, अकायिकाश्चैव । एव चैव, एव सयोगिनश्चैव, अयोगिनश्चव तथैव । एब सलेश्याश्चैव अलेश्याश्चैव, सशरीराश्चैव अशरीराश्चैव । सस्थानम्, अन्तरम्, अल्पबहुत्वम्, यथा सेन्द्रियाणाम् ।
अथवा द्विविधा. सर्वजीवा प्रज्ञप्ताः । तद्यथा-सवेदकाश्चैव, अवेदकाश्चैव ।
सवेदको भदन्त । -सवे० । गौतम | सवेदक त्रिविध प्रज्ञप्तः। तद्यथा-अनादिक अपर्यवसित., अनादिक सपर्यवसित', सादिक सपर्यवसित. । तत्र य स सादिक सपर्यवसितत सो जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण अनन्त काल यावत्, क्षेत्रत अपार्ध पुद्गलपरिवतं देशोनम् ।
अवेदको भदन्त । अवेदक इति कालत कियच्चिर भवति ? गौतम ! अवेदको द्विविधः प्रज्ञप्त । तद्यथा-सादिको वा अपर्यवसितः, सादिको वा सपपर्यवसितः। तत्र य स सादिक सपर्यवसित. स जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण अन्तर्मुहूर्तम् ।
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(७६) तहेव । एव सलेस्सा चेव, अलेस्सा चेव, ससरोरा चेव, असरीरा चेव, सचिट्ठण अतर अप्पाबहुय जहा सइन्दियाण । __अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तजहा-सवेदगा चेव अवेदगा वेव।
सवेदए ण भते । सवे० ? गोयमा | सवेयए तिविहे पण्णत्ते, तजहा-अणादोए अपज्जवसिते, अणादीए सपज्जवसिए, साइए सपज्जवसिए । तत्थ ण जे से साइए सपज्जवसिए से जह० अतोमु० उक्को० अणत काल जाव खेत्तओ अवड्ढ पोग्गलपरियट्ट दसूण।।
अवेदए ण भते अवेयए ति कालओ केवचिर होइ? गोयमा | अवेद दुविहे पण्णत्ते तजहा-सातीए
सवेदकस्य भदन्त ! कियत्कालमन्तर भवति ? अनादिकस्य अपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरम् । अनादिकस्य सपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरम् । सादिकस्य सपर्यवसितस्य जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण अन्तर्मुहूर्तम् ।
अवेदकस्य भदन्त । कियन्त कालमन्तर भवति ? सादिकस्य अपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरम् । सादिकस्य सपर्यवसितस्य जघन्येन अन्तर्महुर्तम, उत्कर्षेण अनन्त काल यावद् अपाधं पुद्गलपरिवतं देशोनम् । अल्पबहुत्वम्-सर्वस्तोका अवेदकाः, सवेदका अनन्तगुणा. । एवं सकषायिणश्चैव, अकषायिणश्चैव । यथा सवेदकस्तथैव भणितव्य' ।
अथवा द्विविधाः सर्वजीवा । सलेश्याश्च, अलेश्याश्च । यथा असिद्धाः, सिद्धाः । सर्वस्तोका अलेश्या., सलेश्या अनन्तगुणा. ।
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(७७) वा अपज्जवमिते, साइए वा सपज्जवसिए, तत्थ ण जे से सादिए सपज्जवसिने से जहण्णेण एक्क समय उक्को० अतोमहुत्त।
सवेयगस्स ण भते | केवति-काल अतर होइ ?
अणादियस्स अपज्जवसियस्स णत्यि अतर, अणादि- । यम्स सपज्जवसियस्स नत्यि अतर, सादायस्स सपज्जवसियस्स जहण्णण एक्क समय, उक्कोसेण अतोमुहुत्त ।
अवेदगस्म ण भते | केवतिय काल अतर होइ ?,
सातीयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अतर, सातीयस्स सपज्जवसियस्स जह० अतोमु० उक्कोसेण अणत काल जाव अवड्ढ पोग्गतपरियट्ट देसूण । अप्पाबहुग-सव्वत्थोवा अवेयगा, सवेयगा अणतगुणा । एव सकसाई चेव अकसाई चेव २ जहा सवेयगे तहेव भाणियब्वे ।
अहवा दुविहा सव्वजीवा-सलेसा य अलेसा य जहा असिद्धा सिद्धा, सव्वत्थोवा-अलेसा, सलेसा अणतगुणा।
सस्कृत-व्याख्या अथवा द्विविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-सेन्द्रियाश्च-प्रनिन्द्रियाश्च, तत्र सेन्द्रियाः-ससारिण , अनिन्द्रिया:--सिद्धा. । उपाधिभेदात्पृथगुपन्यास । एव सकायिकादिष्वपि भावनीय, तत्र सेन्द्रियस्य कायस्थितिरन्तर चासिद्धवद्वक्तव्य, अनिन्द्रियस्य सिद्धवत्, तच्चवम्-'सइदिए
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( ७८ )
ण भते !' सइदिय त्ति कालतो केवचिर होइ? गोथमा। सइदिए दुविहे पण्णत्त, तजहा -- प्रणाइए वा अपज्जवसिए प्रणाइए वा सपज्जवसिए। प्रणिदिए ण भते । अणिदिए त्ति कालता केचिर होइ ? गोयम। । साइए अपज्जवसिए । सइदियस्स ण भते । कालो केवचिर अतर होइ ? गोयमा | प्रणाइयस्स अपज्जवसियस्स नत्थि अतर, प्रणाइयस्स सपज्जवसियस्स नत्थि अतर । अणिदियस्स ण भते । अतर कालतो केचिर होइ ? गोयमा । साइयस्स अपज्जवसियस्स नत्थि अतर' इति, अत्पबहुत्व सूत्र पूर्ववद्भावनीयम् । एव कायस्थित्यन्तराल्पबहुत्वसूत्राणि सकायिकाकायिकविषयाणि सय ग्यय गिविषयाण्यपि भावयितव्यानि, तच्चवम्-'अहवा विहा सव्वजोवा पण्णता, तजहा, सकाइया चेव अकाइया चेब, एव सजोगी वेव अजोगी चेत्र,तहेव एव सलेस्सा चेव प्रलेस्सा चेव ससरीरा चेव,असरीरा चेव सचिट्ठण
अतर अप्पाबय जहा सकाइयाण । भय प्रकारान्तरेण द्वैविध्यमाह'अहवे' त्यादि, अथवा द्विविधा सर्वजीवा प्रज्ञप्तास्तद्यथा-सवेदकाश्च अवेदकाश्च । तत्र सवेदकस्य कायस्थितिमाह 'सवेदए ण भते । इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगम,भगवानाह-गौतम सवेदकस्त्रिविध प्रज्ञप्तस्तद्यथा-अनाद्यपर्यवसित ,अनादिसपर्यवसित , सादिसपर्यवसितश्च, नत्रानाद्यपर्यवसितोऽभव्यो भव्यो वा तथाविधमामग्र यभावान्मुक्ति मगन्ता, उक्तञ्च--'भव्वावि न सिज्झति केइ' इत्यादि अनादिसपर्य वसितो भव्यो मुक्तिगामी पूर्वमप्रतिपन्नोपशमश्रेणि., सादिसपर्यवसित पूर्व प्रतिपन्नोपशमश्रेणि उपशमञणि पतिपद्य वेदोपशमोत्तरकालावेदकत्वमनुभूय श्रेणिसमाप्ती भवक्षयादपान्तराले मरणतो वा प्रतिपततो वेदोदये पुन सवेदकत्वोपपत्ते , तत्र पोऽसौ सादिसपर्यवसितो जघन्येनान्तर्मुहूर्त श्रेणिसमाप्तौ सवेदकत्वे सति पुनरन्तर्मुहूर्तेन श्रेणिप्रतिपत्ताबवेदव त्वभावात्, पाह-किमेकस्मिन्
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(७९)
जन्मनि वेलाद्वयमुपशमश्रेणिलामो भवति ? यदेवमुच्यते, सत्यमेतद्भवति, तथा चाह-मूलटीकाकार --"नैकस्मिन् जन्मनि उपशमश्रेणि क्षपकश्रेणिश्च जायते, उपशमश्रेगिद्य तु भवत्येवे" ति, तत एवमुपपद्यतेजघन्येनान्तर्मुहर्त मुत्कर्षतोऽनन्त काल, तमेव कालक्षेत्राभ्या निरूपयतिअनन्ता उत्सपिण्यवपिण्य एषा कालतो मार्गणा, क्षेत्रतोऽपार्द्धपुद्गलपरावर्त दशोनम्, एतावन कालादूर्ध्व पूर्वनिपन्नोपशभश्रेणेरवश्य मुक्त्यासन्नतया श्रेणिप्रतिपत्ताववेदकत्वभावात् । 'अवेदए ण भते । इत्यादि प्रश्नसून पाठसिद्ध, भगवानाह-गौतम । अवेदको द्विविध प्रज्ञप्तस्तद्यथा सादिको वाऽपर्यवसित [समयानन्तर] क्षीणवेद , सादिको वा सपर्यवसिन - उपशान्तवेद , तत्र योऽसौ सादिसपर्यवसिनोऽवेदक. स च जघन्येनैक समय, उपशमश्रेणि-प्रतिपन्नस्य वेदोपशमसमयानन्ते रऽपि मरणे पुन सवेदकत्वोपपत्ते., उत्कषतोऽन्तर्महुर्तमुपशान्तवेदश्रणिकाल, तत ऊर्ध्व श्रेणौ प्रतिपतने नियमत सवेदकत्वभावात् । अतर प्रतिपिपादयिषुराह-सवेदगस्स ण भते । इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगम, भगवानाहगौतम । अनादिक स्यापर्यवसितस्य सवेदकस्य नास्त्यन्त र, अपर्यवसिततया सदा तद्भावापरित्यागात् अनादिकस्य सपर्यवसितस्यापि नास्त्यन्तर, अनादिसपर्यवसितो ह्यपान्तराले उपशमश्रेणिमप्रतिपद्य भाविक्षीणवेदो न च क्षीणवेदस्य पुनः सवेदकत्व प्रतिपाताभावात्, सादिकस्य सपर्यवसितस्य सवदकस्य जघन्येनैक समयमन्तर, द्वितीयवारमुपशमश्रेणि प्रतिपन्नस्य वेदोपशमसमयानन्तर कस्यापि मरणसम्भवात्, उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्त द्वितीय वारमुपशमश्रेणि प्रतिपन्नस्योपशान्तवेदस्य श्रेणिसमाप्तेरूज़ पुन सवेदकत्वाभावात् । अवेदकसूत्रे सादिकस्यापर्यवसितस्यावेदकस्य नास्त्यन्तर, क्षीणवेदस्य पुन. सवेदत्वाभावात्, वेदाना निर्मूलकाषकषितत्वात् सादिकस्य सपर्यवसितस्य जघन्येनान्तर्मुह तं, उपशमश्रेणिसमाप्तौ सवेदकत्वे सति पुनरन्तर्मुहूर्तेनोपशमश्रेणिलाभतोऽवेदकत्वोपपत्ते , उत्कर्ष
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( ८०,
तोऽनन्त काल, अनन्ता उत्सपिण्यबसपिण्य कालत , क्षेत्रनाऽपार्द्धपुद्गलपरावर्त देशोन, एकवारमुपश्रेणि प्रतिपद्य तत्रावेदका भूत्वा श्रणिसमाप्तौ सवेदकत्वे सति पुनरेतायता वालेन श्रेणिप्रतिपत्ताववेदकत्वोपपत्ते । अल्पबहुत्वमाह-'एएसि ण भते । जीवा' इत्यादि--पूर्ववत् । प्रकारान्तरेण द्वैविध्यमाह- 'अहवे' त्यादि, अथवा द्विविधा सर्वजीवा. प्रज्ञप्तास्तद्यथा-सकषायिकाश्च अकषायिकाश्च, सह कपाया येषा यैर्वा ते सकाषाया त एव अकषायिकाः प्राकृतत्वात् स्वार्थे इक्प्रत्यय , एव न विद्यन्ते कषाया येषा ते अकषाया , २ एवाकषायिका । सम्प्रात कायस्थितिमाह-'सकसाइयम्से' त्यादि, सकषायिकस्य विविधस्यापि सचिट्ठणा कायस्थितिरन्तर च यथा सवेदकस्य, प्रकषायिकस्य द्विविधभेदस्यापि कायस्थितिरन्तर च यथाऽवेदकस्य तच्चैवम् –'सकसाइए ण भते । 'सकसाइय' ति कालतो केवचिर होइ ? गोयमा । सकसाइए तिविहे पन्नत्ते, तजहा-अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए, साइए वा सपज्जवसिए, तत्थ जे से साइए सपज्जवसिए से जहण्णण अतोमुहत्त, उक्कोसेण अणत काल-अणता प्रोसप्पणिउस्सप्पिणीओ कालतो खेत्ततो अवड्ढपोग्गलपरियट्ट देसूण, अकसाइए ण भते ! अकसाइय त्ति कालो केवचिर होइ ? गोयमा ! अकसाइए- दुविहे पण्णत्ते, तजहा-साइए वा अपज्जवसिए, साइए वा सपज्जवसिए, तत्थ ण जे साइए सपज्जवसिए से जहण्णण एक्क समय उकोसेण अंतोमुहुत्त । सकसाइयस्स ण भते ! अतर कालतो केवचिर होइ ? गोयमा । अणाइयस्स अपज्जवसियस्स नत्थि प्रतर, अणाइयस्स सपज्जवसियस्स नत्थि अतर, साइयस्स सपज्जवसियस्स जहण्णेण एक्क समय उक्कोसेण अतोमुहुत्त, अकसाइयस्स ण भते । केवइय काल अतर होइ ? साइयस्स
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(८५) अपज्जवसियम्म णत्थि अतर, साइयस्स सपज्जवसियस्स जहण्णण अतोमुहुत्त उक्कोसेण अनत काल जाव अवड्ढ पोग्गलपरियट्ट देसूण' मिति,अस्य व्याख्या पूर्ववत् । अल्मबहुत्वमाह-एएसि भते । जीवाण सकसाइयाण' मित्यादि प्राग्वत् । प्रकारान्तरेण द्वैविध्यमाह ।
हिन्दी-भावार्थ अथवा सर्वजीव दो प्रकार के कहे गये है । जैसेकि सेन्द्रिय और अनिन्द्रिय।
अनगार गौतम बोले-भगवन् ! सेन्द्रिय जीव काल से कब तक रहता है ? ___भगवान महावीर ने कहा-गौतम । सेन्द्रिय जीव दो प्रकार के होते है-१ अनादि-अनन्त, ओर २ अनादि सान्त । कितु अनिन्द्रिय (सिद्ध) जीव सादि-अनन्त होते है। दोनो प्रकार के जोवो के अन्तर नही होता है । सब से कम अनिन्द्रिय जीव होते है । इन की अपेक्षा सेन्द्रिय जीव अनन्त गुणा अधिक होते है।
अथवा सर्वजीव दो प्रकार के कहे गए है । जैसेकि सकायिक (पृथ्वी आदि काय वाले , अकायिक (काय से रहित, सिद्ध)। इसी प्रकार सयोगी (मन,वचन,काया के व्यापार वाले)
और अयोगी (सिद्ध), सलेश्य कृष्ण, नील आदि लेश्यारो वाले), और अलेश्य लेश्याओ से रहित-सिद्ध , सशरीर
औदारिक आदि शरीर वाले), और अशरीर (शरीर-रहित, सिद्ध)। ___सकायिक आदि सभी जीवो का सस्थान (अवस्थिति), अन्तर, और अल्पबहुत्व सेन्द्रिय जीवो के समान समझना
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(८२)
चाहिए।
अथवा सर्वजीव दो प्रकार के कहे गए है । जैसेकि सवेदक (स्त्री, आदि वेद वाले) और अवेदक (वेदरहित)।
अनगार गौतम बोले-भगवन् । सवेदक जीव कितने प्रकार के होते है ?
भगवान महावीर ने कहा--गौतम ! सवेदक जीव तीन प्रकार के होते है। जैसेकि-१-अनादि-अनन्त, २-अनादिसान्त, ३-सादि-सान्त । इन मे से जो सादि-सान्त जीव है, उन की अवस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त, और उत्कृष्ट अनन्त काल तक है । यावत् क्षेत्र से *देशोन अपार्ध पुद्गल परिवर्तन तक है। ___ अनगार गौतम बोले-भदन्त । अवेदक जीव काल की अपेक्षा से कब तक रहता है ?
भगवान महावीर ने कहा-गौतम | अवेदक जीव दो प्रकार के कहे गये है । जैसेकि-१-सादि-अनन्त और २-सादिसान्त । इन मे से जो सादि सान्त है, उनकी जघन्य स्थिति एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की होती है।
अनगार गौतम बोले-भगवन् ! सवेदक जीव का अन्तर कितने समय का होता है ?
भगवान महावीर ने कहा-गौतम | अनादि-अनन्त तथा अनादि-सान्त सवेदक जीव का अन्तर नही होता है। कितु सादि-सान्त सवेदक जीव का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त का होता है ।
*पुद्गलपरिवर्तन के अर्थ के लिए देखो, श्री जैनसिद्धान्त बोससग्रह भाग ३, पृष्ठ १३८ ।
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(८३) अनगार गौतम बोले-भगवन् । अवेदक जीव का अन्तर कितने समय का होता है ? __भगवान महावीर ने कहा-गौतम | सादि-अनन्त अवेदक जीव का अन्तर नही होता है, किन्तु सादि-सान्त अवेदक जीव का अन्तर जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल का होता है । यावत् क्षेत्र से देशोन अपार्ध पुद्गलपरावर्तन का
होता है।
सवेदक और अवेदक जीवो का अल्प-बहुत्व इस प्रकार है
सब से कम अवेदक जीव है, और सवेदक इन से अनत गणा अधिक है। सकषायी और अकषायी जीवो का अन्तर सवेदक जीवो के समान समझना चाहिए।
अथवा सर्वजीव दो प्रकार के कहे गए है। जैसे कि-सलेश्य (कृष्ण आदि लेश्याओ वाले) और अलेश्य (लेश्याओं से रहित) । सब से कम अलेश्य है, सलेश्य इन से अनन्त गुणा अधिक होते है।
मूल पाठ *णाणी चेव अण्णाणी चेव । णाणी ण भते ! कालओ० ? २ दुविहे पण्णत्ते-सातीए वा अपज्जवसिए, सादीए वा सपज्जवसिए । तत्थ ण जे से सादीए सपज्ज
* ज्ञानिनश्चैव अज्ञानिनश्चैव । ज्ञानी भदन्त | कालत.. ? २ द्विविध. प्रज्ञप्त. । सादिको वा अपर्यवसित., सादिको वा सपर्यवसित. । तत्र य सादिक सपर्यवसित., स जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण षट्षष्टि-सागरोपमानि सातिरेकाणि । अज्ञानिनो यथा सवेदका ।
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1581
वसिते, से जहणेण अतोमुहुत्त उक्कोसेण छावोटूसागरोवमाइ सातिरेगाइ, अण्णाणी जहा सवेदया । गाणिस्स अंतर - जहणेण अतोमुहुत्त, उक्कोसेण अणत काल, अवड्ढ पोग्गल परियट्ट देसूण । अण्णाणियस्स दोह वि आदिल्लाण णत्थि अतर, सादियस्स सपज्जवसियस्स जहणेण अतोमुहुत्त, उक्कोसेण छावट्ठि सागरोवमाइ साइरेगाइ । अप्पाबहु सव्वत्थावा णाणो अण्णाणी अणतगुणा ।
अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता - सागरोवउत्ता य अणागारोवउत्ता य, सचिट्ठणा अंतर च जहणेण उक्कोसेण वि अन्तोमुहुत्त, अप्पाबहु सागरोवउत्ता
संखे ० ।
संस्कृत - व्याख्या
हवेत्यादि अथवा द्विविधाः सर्वजीवा प्रज्ञप्तास्तद्यथा - - सलेश्याश्च ज्ञानिनोऽन्तरम् — जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम उत्कर्षेण अनन्त कालम्, अपाध पुद्गल परिवर्त देशोनम् । अज्ञानिनो द्वयोरपि श्राद्ययोर्नास्त्यन्तरम् । सादिकस्य सपर्यवसितस्य जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण षट्षष्टि सागरोपमानि सातिरेकानि । अल्पबहुत्वम् — सर्वस्तोका ज्ञानिन, निनोऽनन्तगुणा ।
श्रज्ञा
अथवा द्विविधा सर्वजीवा प्रज्ञप्ता । साकारोपयुक्ताश्च नाकारोपयुक्ताश्च । सस्थानम्, अन्तर च जघन्येन उत्कर्षेणापि अन्तर्मुहूर्तम् । अल्पबहुत्वम् — साकारो० सख्य० ।
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(८५) अलेश्याश्च, तत्र सलेश्यस्य कायस्थितिरन्तर चासिद्धस्येव, अलेश्यम्य कायस्थितिरन्तर च यथा सिद्धस्य । अल्पबहुत्व प्राग्वत् ।
भूयः प्रकारान्तरेण द्वैविध्यमाह- अहवे त्यादि, अथवा द्विविधा सर्वजीवा प्रज्ञप्तास्तद्यथा-ज्ञानिनश्च अज्ञानिनश्च, ज्ञानमेषामस्तीति ज्ञानिन , न ज्ञानिनोऽज्ञानिन मिथ्याज्ञाना इत्यर्थ ।
सम्प्रति कायस्थितिमाह -- ‘णाणी ण' मित्यादि-प्रश्नसूत्र सुगमम् । भगवानाह-गौतम | ज्ञानी विविध प्रज्ञप्तस्तद्यथा-सादिको वा अपर्यवसित., स च केवली कवलज्ञानस्य साद्यपयवसितत्वात्, सादिको वा सपर्यवसिनो मतिज्ञानादिमान, मतिज्ञानादीना छाम्थिकतया सादिसपर्यवसितत्वात् । तत्थ ण' मित्यादि, तत्र योऽसौ सादिक सपर्यवसित स जघन्येनान्तमहत्तं, सम्यक्त्वस्य जघन्यत एतावन्मात्रकालत्वात् सम्यकत्ववतश्च ज्ञानित्वात् यथोक्तम्-सम्यग्दृष्टान मित्यादृष्टेविपर्यास' इति उत्कर्षत षष्ठषष्टि सागरोपमाणि सातिरेकाणि सम्यग्दर्शनकालस्याप्युत्कर्षत एतावन्मात्रत्वात्, अप्रतिपतितसम्यक्त्वस्य विजयादिगमनश्रवणात्, तथा च भाष्यम्
दो वारे विजयाइसु गयस्स तिन्निऽच्चुए अहव ताइ । अइरेग नर-भविय नाणाजीवाण सव्वद्धा* ॥ १॥
अण्णाणी ण भते। 'इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगमम् भगवानाह-गौतम । अज्ञानी त्रिविध प्रज्ञप्तस्तद्यथा-अनादिको वाऽपर्यसित , अनादिका वा सपर्यवसितः, तत्रानाद्यपर्यवसितो यो न जातुचिदपि सिद्धि गन्ता, अनादिसपर्यवसितो योऽनादिमिथ्यादृष्टि सम्यक्त्वमासाद्याप्रतिपतितसम्यक्त्व एव क्षषकश्रेणिं प्रतिपत्स्यते, सादिसपर्यवसित. सम्यग्दृष्टिभूत्वा जातमिथ्यादृष्टि: स जघन्येनान्तर्मुहूर्त सम्यक्त्वात् प्रतिपत्य पुनरन्त
*द्वौ वारौ विजयादिषु गतस्य अथवा त्रीनच्युते तानि । अतिरेको नर-भविक नानाजीवाना सर्वार्द्धा ॥ १॥
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(८६)
महर्तेन कस्यापि सम्यग्दर्शनावाप्ति-सम्भवात्, उत्कर्षेणानन्त कालं अनन्ता उत्सपिण्यवपिण्य कालत ,क्षेत्रतोऽपाध्दं पुद्गलपरावर्त देशोनम् । साम्प्रतमन्तर प्रतिपादयति- णाणिस्स ण भते !' इत्यादि, ज्ञानिनो भदन्त । अतर कालत' कियच्चिर भवति ?, भगवानाहगौतम | सादिकस्यापर्यवसितस्य नास्त्यन्तरम्, अपर्यवसितत्वेन सदा तद्भावापरित्यागात्, सादिकस्य सपर्यवसितस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, एतावता मिथ्यादर्शनकालेन व्यवधानेन भूयोऽपि ज्ञानाभावात्, उत्कर्षण अनन्त काल, अनन्ना उत्सपिण्य वसप्पिण्य कालत , क्षेत्रतोऽपार्द्ध पुद्गलपरावर्त देशोन, सम्यदृष्टे सम्यक्त्वात्प्रतिपतितस्यैतावन्त काल मिथ्यात्वमनुभूय तदनन्तरमवश्य सम्यक्त्वासादनात्-'अण्णाणिस्स ण भते ।' इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगम, भगवानाह-गौतम । अनाद्यपर्यवसितस्य नाम्त्यन्तरम्, अपर्यवसितत्वादेव, अनादिसपर्यवसिनस्यापि नास्त्यन्नर अवाप्तकेवलज्ञानम्य प्रतिपाताभावात् । सादिसपर्यवसानस्य जघन्येनान्तर्मुहूर्त, जघन्यस्य सम्यग्दर्शनकालस्यैतावन्मात्रत्वात्, उत्कर्षत षटषष्टि सागरोपमाणि सानिरेकाणि, एतावतोऽपि कालावं सम्यग्दर्शनप्रतिपाते सत्यज्ञानभावात् । अल्पबहुत्वसूत्र प्राग्वत् । प्रकारान्तरेण द्वैविध्यमाह - 'अहवे' त्यादि, अथवा द्विविधा सर्वजीवा प्रज्ञप्तास्तद्यथा-साकारोपयुक्ताश्च, अनाकारोपयुक्ताश्च । सम्प्रति कायस्थितिमाह'सागारोवउत्ता ण भते' इह छद्मस्था एव सर्वजीवा विवक्षिता, न केवलिनोऽपि विचित्रत्वात् सूत्रगते' रिति द्वयानामपि कायस्थितावन्तरे चैकसामयिकोऽप्युच्येत । अल्पबहुत्व-चिन्ताया सर्वस्तोका अनाकारोपयुक्ता., अनाकारोपयोगस्य स्तोककालतया पृच्छासमये तेषा स्तोकानामेवावाप्यमानत्वात् । साकारोपयुक्ताः सङ्ख्येयगुणा , अनाकारोपयोगाद्धात. साकारोपयोगाद्धायाः सङ्खयेयगुणत्वात् ।
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( ८७ )
हिन्दी- भावार्थ
अथवा सर्वजीव दो प्रकार के कहे गए है । जैसेकि ज्ञानो और अज्ञानी ।
अनगार गौतम बोले- भगवन् । ज्ञानी जोव कब तक रहते है ?
। ज्ञानी जीव दो
भगवान महावीर ने कहा- गौतम प्रकार के होते है । जैसेकि - सादि - अनन्त, और सादि - सान्त । इन मे जो जीव सादि - सान्त होते है, उनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक ६६ सागरोपम की होती है । अज्ञानी जीवो को सवेदक जीवो के समान समझना चाहिए । ज्ञानी जीवो का अन्तर जवन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट अनन्तकाल तक होता है । अनन्तकाल के भी अनन्त भेद होते है, किन्तु प्रस्तुत मे उस अनन्त का ग्रहण करना चाहिए जिसमे कुछ कम पार्ध पुद्गल परावर्तन जितना समय लग जाता है । पहले दो प्रकार के अज्ञानी जीवो का अन्तर नहा होता है, परन्तु सादि- सान्त अज्ञानी जीवो का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, और उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक ६६ सागरोपम तक होता है । इन जीवो का अल्पबहुत्व इस प्रकार है
सब से कम ज्ञानी जीव है । इन को अपेक्षा अज्ञानी जीव अनन्तगुणा अधिक है ।
अथवा सर्वजीव दो प्रकार के कहे गए है । जैसेकि - १ - साकारोपयुक्त (ज्ञानोपयोग वाले), २- अनाकारोपयुक्त ( दर्शनोपयोग वाले ) । टीकाकर के मतानुसार यहा सर्वजीव शब्द से छद्मस्थ जीवो का ही ग्रहण करना सूत्रकार को इष्ट है । उनके कथनानुसार यहा केवली और सिद्ध जीवो का ग्रहण नही करना चाहिए। इन दोनो प्रकार के जीवो का
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(८८)
अवस्थितिकाल और अन्तरकाल जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। इन का अल्पबहुत्व इस प्रकार है
सब से कम अनाकारोपयोग वाले जीव है, और साकारोपयोग वाले जीव इन की अपेक्षा सख्येय गुणा अधिक है ।
मूल पाठ अहवा दुविहा सव्वजोवा पण्गत्ता, तजहा-आहारगा चेव अणाहारगा चेव ।
आहारए ण भते | जाव केवचिर होति ?
गोयमा । आहारए दुविहे पण्णत्ते, तजहा--- छउमत्थआहारए य केवलिआहारए य ।
छउमत्थआहारए ण जाव केवचिर होति ?
गोयमा | जहण्णेण खुड्डाग भवग्गहण दुसमयऊण, उक्को० असखेज्ज काल जाव काल० खेत्तओ अगुलस्स
* अथवा द्विविधा सर्वजीवा प्रज्ञप्ताः। तद्यथा-आहारकाश्चैव, अनाहारकाश्चैव । आहारको भदन्त | यावत् कियच्चिर भवति ? गौतम । आहारको द्विविध प्रज्ञप्त । तद्यथा-छद्मस्थाहारकश्च, केवलि-पाहारकश्च । छद्मस्थाहारको यावत् कियच्चिर भवति ? गौतम! जघन्टेन क्षुल्लक भवग्रहण द्विसमयोनम, उत्कर्षेण असख्येयकाल यावत् काल०, क्षेत्रतोऽगुलस्य असख्येयभागम् । केवलि-माहारको यावत् कियच्चिर भवति ? गौतम | जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण देशोना पूर्नकोटि. । अनाहारको भदन्त । कियच्चिर ? गौतम ' अनाहारको द्विविध प्रज्ञप्त । तद्यथा-छद्मस्थानाहारकश्च, केवलि-अनाहारकश्च ।
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असखेज्जतिभाग |
( ८९ )
ण जाव केवचिर होइ ?
केवल आहार गोयमा । जहणेण अतोमुहुत्त उक्कोसेण देसूणा
1
yonist |
अणाहारए ण भते । केवचिर० ?
छद्मस्थानाहारको यावत् कियच्चिर भवति ०? गौतम । जघन्येन एकं समयम्, उत्कर्षेण द्वौ समयौ । केवलि - अनाहारको द्विविध प्रज्ञप्तः, तद्यथा - सिद्ध केवलि - अनाहारकश्च भवस्थकेवलि - अनाहारकश्च । सिद्धकेवल अनाहारको भदन्त । कालत कियच्चिर भवति ? सादिकोsपर्यवसित । भवस्थ के बलि- अनाहारको भदन्त । कतिविध प्रज्ञप्त ? भवस्थकेवलिमनाहारका द्विविव प्रज्ञप्त - सयोगिभवस्थ के वलि-अनाहारकरच,
योगि भवस्थ केवलि - अनाहारकश्च । सयोगी भवस्थकेवलि-प्रनाहारको भदन्त 1 कालत कियच्चिर० ? श्रजघन्यानुत्कर्षेण त्रीन् समयान् । श्रयोगिभवस्थ केवलि० जघन्येन श्रन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण श्रन्तर्मुहूर्तम् 1 छद्मस्थाहारकस्य कियन्तं कालमन्तरम् ० ? गौतम । जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण द्वौ समयौ । केवलि प्रहारकस्य अन्तरम् - अजघन्यानुत्कर्षेण त्रीन् समयान् । छद्मस्थानाहारकस्यान्तरम् — जघन्येन क्षुल्लक भवग्रहण द्विसमयोनम्, उत्कर्षेण प्रसख्येय काल यावद् अगुलस्यासख्येयभागम् ।
,
सिद्ध-केवलि-अनाहारकस्य सादिकस्य अपर्यवसितस्य नास्त्यन्तर, सयोगिभवस्थ-केवलि-अनाहारकस्य जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेणापि । अयोगिभवस्थकेवल-अनाहारकस्य नास्त्यन्तरम् । एतेषा भदन्त ! आहारकाणामनाहारकाणाञ्च कतरे कतरेभ्योऽल्पा बहवः ? गौतम ! सर्वस्तोका अनाहारका, प्राहारका असख्येयाः ।
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( ९०) गोयमा ! अणाहारए दुविहे पण्णत्ते, तजहाछउमत्थअणाहारए य केवलिअणाहारए य ।
छउमत्थअणाहारए ण जाव केवचिर होति ?
गोयमा? जहण्णेण एक्क समय उक्कोस्सेण दो समया । केवलिअणाहारए दुविहे पण्णत्ते, तजहासिद्ध-केवलिअणाहारए य भवत्थकेवलिअणाहारए य ।
सिद्ध-केवलि-अणाहारए ण भते ! कालओ केवचिर होति ?, सातिए अपज्जवसिए।
भवत्थकेवलि-अणाहारए ण भते । कइविहे पण्णत्ते?
भवत्थकेवलि-अणाहारए दुविहे पण्णत्ते-सजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए य अजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए य। ____सजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए ण भते | कालओ केवचिर होति ?,
अजहण्णमणुक्कोसेण तिण्णि समया। अजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए जह० अतो०, उक्को० अंतोमुहत्तं ।
छउमत्थआहारगस्स केवलिय काल अतरं० ?,
गोयमा ! जहण्णेण एक्क समय, उक्को० दो समया। केवलिआहारगस्स अंतर-अजहण्णमणुक्कोसेण तिण्णि समया । छउमत्थअणाहारगस्स अतर
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( ९१
जहण्णेण खुड्डागभवग्गहण दुसमयऊण उक्को०असखेज्ज काल जाव अगुलस्स असखेजतिभाग । सिद्ध केवलिअणाहारगस्स सातीयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अतर । सजोगिभवत्थकेवलिअणाहारगस्स जह० अतो० उक्कोसेण वि, अजोगिभवत्थकेवलिअगाहारगस्स णत्थि अतर।
एएसि ण भते । आहारगाण अगाहारगाण य कयरे २ हितो अप्पाबहु० ?
गोयमा । सव्वत्थोवा अणाहारगा, आहारगा असखेज्जा।
सस्कृत-व्याख्या 'अहवे' त्यादि, अथवा द्विविधा सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्तद्यथाआहारकाश्च अनाहारकाश्च । अधुना कायस्थितिमाह- 'पाहारगे ण भते ।' इत्यादि । प्रश्नसूत्र सुगम, भगवानाह-गौतम | पाहारको द्विविध प्रज्ञप्तस्तद्यथा-छद्मस्थाहारक केवल्याहारक , तत्र छद्मस्थाहारको जघन्येव क्षुल्लकभवग्रहण द्वि समयोन, एतच्च जघन्याधिकाराद्विग्रहेणागत्य क्षुल्लकभवग्रहणवत्सूत्पादे परिभावनीय, तत्र यद्यपि नाम लोकान्तनिष्कुटादावुत्पादे चतु सामायिकी पञ्चसामयिकी च विग्रहगतिर्भवति तथाऽपि बाहुल्येन त्रिसामयिक्येवेति तामेवाधिकृत्य सूत्रमिदमुक्नम् ।
इत्थमेवान्येषामपि पूर्वाचार्याणा प्रवृत्ति दर्शनात् उक्तञ्च-"एक द्वौ वा ऽनाहारक:"
(तत्त्वा० अ० २ सू० ३१)
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( ९२ )
इति, श्रिमामयिक्या च विग्रहगतावाद्यौ द्वो समयावनाह रक इति ताभ्या हीनमुक्त, उत्कर्षतोऽसङ्खचय - कालम्, अमङ्खयया उत्मप्पिण्यवसपिण्य कालत , क्षेत्रतोऽड गृलस्यासङ्खयेयो भागः, पिमुक्त भवति? - अड गुलमात्रक्षेत्राइ गलासङ्खयेयभागे यावन्त आकाशप्रदेशास्तावन्त: प्रतिसमयमेकैकपदेशापहारे यावता कालेन निर्लेपा भवन्ति तावत्य उत्सप्पिण्यवसपिण्य इति, तावन्त हि कालमविग्रहेणोत्पाद्यते, अविग्रहोत्पत्तौ च सततमाहार । केवल्याहारकप्रश्नसूत्र पाठसिद्ध, भगवानाह-गौतम जघन्टेनान्तर्मत, स चान्तकत् केवली प्रतिपत्तव्यः, उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, सा च पूर्वकोटयायुषो नववर्षादारभ्योत्पन्नकेवलज्ञानस्य परिभावनीया। अनाहारकविषय सूत्रमाह-'अनाहारए ण भते । इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगमम्, भगबानाह-गौतम । अनाहारको द्विविध प्रज्ञप्त -छद्मस्थोऽनाहारक: केवल्यनाहारकश्च । छदमस्थानाहारकप्रश्नसूत्र सुगमम् । भगवानाह- गौतम । जघन्यत एक समय, जघन्याधिकाराद्वि सामयिकी विग्रहगतिमपेक्ष्येतदवसातव्य, उत्कर्षतो द्वौ समयौ त्रिसामयिक्या एव विग्रहगतेर्बाहुल्येनाश्रयणात । आह च चूर्णिकृत्'यद्यपि भगवत्या चतु -सामयिकोऽनाहारक उक्तस्तथाऽप्यत्र नाङ्गीक्रियते, कादाचित्कोऽसौ भावो येन, बाहुल्यमैवाङ्गीक्रियते, बाहुल्याच्च समयद्वयमेवे' ति । केवल्यनाहारकसूत्र पाठसिद्ध, भगवानाह-गौतम । केवल्यनाहारको द्विविध. प्रज्ञप्तस्तद्यथा भवस्थकेवल्यनाहारक सिद्ध केवल्यनाहारक । सिद्धकेवलिअणाहारए ण भते ।' इत्यादि प्रश्न-सूत्र सुगमम् । भगवानाह-गौतम । सादिकापर्यवसितः, सिद्धस्य साद्यपर्यवसिततयाऽनाहारकत्वस्यापि तद्विशिष्टस्य तथाभावात् । 'भवत्थकेवलिअणाहारए ण भते।' इत्यादि प्रश्न-सूत्र सुगमम्, भगवानाह-गौतम । भवस्थकेवल्यनाहारको द्विविध प्रज्ञप्त - सयोगि भवस्थकेवल्यनाहारकोऽयोगिभवस्थकेवल्यनाहारकश्च, तत्रायोगिभवस्थकेवल्यनाहारकप्रश्नसूत्र
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( ९३ )
सुगम, भगवानाह - गौतम । जघन्येनाप्यन्तर्मुहर्त्तमुत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहर्त्तम्, प्रयोगित्व नाम हि शैलेश्यवस्था तस्या नियमादनाहारक औदारिकादिकाययोगाभावात्, शैलेश्यवस्था च जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्त, नवर जघन्यपदादुत्कृष्टमधिकमवसेयम्, अन्यथोभयपदोपन्यासायोगात् । ‘सजोगिभवत्थकेवलिप्रणाहारए ण भते ।" इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगम, भगवानाह – गौतम । अजघन्योत्कर्षेण त्रय समया, ते चाष्टसामयिक - केवलिसमुद्घातावस्थाया तृतीयचतुर्थपञ्मरूपाः तेषु केवलकार्म्मणकाययोगभावात् उक्तञ्च -
-
कार्म्मणशरीरयोगी चतुर्थ के पञ्चके तृतीये च । समयत्रयेऽपि तस्माद्भवत्यनाहारको नियमात् ॥ १॥
साम्प्रतमन्तर चिन्तयन्नाह - - छउमत्थाहारयस्स ण भते । ' इत्यादि । छद्मस्थाहारकस्य भदन्त । अन्तर कालत कियच्चिर भवति ? भगवानाह - गौतम । जघन्येक समयमुत्कर्षतो द्वो समयो, यात्रानेव हि कालो जघन्यत उत्कर्षतश्च छद्मस्थानाहारकस्य तावानाहारकस्यान्तरकालः, स च कालो जघन्येनैक समय, उत्कर्षतो बाहुल्यमङ्गीकृत्य व्यवह्रियमाणाया त्रिसामयिक्या विग्रहगती द्वौ समयावित्याहारकस्याप्यन्तर तावदिति । केवल्याहारकप्रश्नसूत्र सुगमम्, भगवानाह - गौतम ! अजघन्योत्कर्षेण त्रय. समया', केवल्याहारको हि सयोगिभवस्थ केवली, तस्य चानाहारकत्व त्रीनेव समयान् यथोक्त प्रागित्यन्तर केवल्याहारकस्य तावदिति । सम्प्रत्याहारकस्यान्तर चिचिन्तयिषु प्रथमतश्छद्म स्थानाहारकस्याह'छउमत्थाणाहारयस्स ण भते ! ' इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगमम्, भगवानाह —– गौतम । जघन्येन क्षुल्लकभवग्रहण द्विसमयोन, उत्कर्षतोऽसङ्खयेय काल यावदड, गुलस्यासङ्ख्येयो भागः, यावानेव हि छद्मस्थाहारकस्य कालस्तावानैव छद्मस्थानाहारकस्यान्तर, छद्मस्थाहारकस्य च जघन्यत कालोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतोऽसङ्खयेया उत्सप्पिण्यवसविण्यः कालत, क्षेत्रतोऽड गुलस्यासङ्ख्येयो भागः, एतावन्त काल सततमवि
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( ९४) ग्रहेणोत्पादसम्भवात्, ततश्छद्मस्थानाहारकस्य जघन्यत्र उत्कर्षतश्चेतावदन्तरमिति । अथ स्थाने २ क्षुल्लकभवग्रहणमित्युक्त तत्र क्षुल्लकभवग्रहणमिति क शब्दार्थ ?, उच्यते, क्षुल्ल लघुस्तोकमित्येकोऽर्थ , क्षुल्लमेव क्षुल्लकम्-एकायुष्कसवेदन कालो भवस्तस्य ग्रहण-सबन्धन भवग्रहण, क्षुल्लक च तद् भवग्रहण च क्षुल्लकभवग्रहण, तच्चावलिकातश्चिन्त्यमान षट्पञ्चाशदधिकमावलिकाशतद्वयम्, अथकस्मिन् प्रानप्राणे कियन्ति क्षुल्लक भवग्रहणानि भवन्ति ? उच्यते-किञ्चित्समधिकानि सप्तदश । कथमिति चेदुच्यते-इह मुहर्तमध्ये सर्वसङ्खयेया पञ्चपष्टि सहस्राणि पञ्चशतानि षट्त्रिशानि क्षुल्लकभवग्रहणाना भवन्ति, यत उक्त चूणौ -
पन्नट्ठिसहस्साइ पचेव सया हवति छत्तीसा ।
खुड्डागभवग्गहणा हवति अतोमुत्तमि ॥१॥ पानप्राणाश्च मुहूर्त त्रीणि सहस्राणि सप्तशतानि त्रिसप्तत्यधिकानि, उक्तञ्च- तिन्नि सहस्सा सत्त य सयाइ तेवत्तरि च ऊसासा।
एस मुहुत्तो भणियो सव्वेहि अणतनाणोहि ॥१॥ ततोऽत्र त्रैराशिकर्मावतार यदि त्रिसप्तत्यधिकसप्तशतोत्तरैस्त्रिभि सहस्र रुच्छ्वासाना पञ्चषष्टि सहस्राणि पञ्चशतानि दिशानि क्षुल्लकभवग्रहणाना भवन्ति तत एकेनोच्छ्वासेन किं लभामहे? राशित्रयस्थापना३७७३।६५५३६।१॥ अत्रान्त्यराशिना एककलक्षणेन मध्यराशेर्गुणनाज्जात स तावानेव, ‘एकेन गुणित तदेव भवतीति न्यायात्, तत आद्येन राशिना भागहरण, लब्धा. सप्तदश क्षुल्लकभवा शेषास्त्वशास्तिष्ठन्ति, तत्र त्रयोदश शतानि पञ्चनवत्यधिकानि, उक्तत्व
सत्तरस भवग्गहणा खुड्डाण भवति आणुपाणमि। तेरस चेव सयाइ पचाणइ चेव असाण ॥१॥ अर्थतावद्भिरशे कियत्य प्राबलिका लभ्यन्ते ? उच्यते, समधिकचतुर्नवति । तथाहि-षट्पञ्चाशदधिकेन शतद्वयेनावलिकाना त्रयोदश शतानि पञ्चनव तानि गुण्यन्ते, जातानि त्रीणि लक्षाणि सप्तपञ्चाशत्सहस्राणि शतमेक विंशत्यधिक ३५७१२०, छेदराशि: स
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एव ३७७३, लब्धा चतुर्नवतिरावलिका. शेषास्त्वशा अवलिकायास्तिष्ठन्ति चतुर्विंशति शतानि अष्टपञ्चाशानि, छेद स एव २४५८/३७७३, एव यदा एकस्मिन्नानप्राणे प्रावलिका सङ्खयातुमिश्यन्ते तदा सप्तदश द्वाभ्या षट्पञ्चाशदधिकाभ्या शताभ्या गुण्यन्ते, गुणयित्वा चोपरितनाश्चतुर्नवतिरावलिका प्रक्षिप्यन्ते, तत पावलिकाना चतुश्चत्वारिंशत् शतानि-षट् चत्वारिशानि भवन्ति, उक्तञ्च
एक्को उ आणुपाणू, चोयालीस सया उ छायाला । आलियपमाणेण अणतनाणीहि निद्दिट्टो ॥१॥
यदि पुनर्महर्ते प्रावलिका सङ्ख्यातुमिप्यन्ते तत एतान्येव चतुश्चत्वारिशच्छतानि त्रिसप्तत्यधिकानि भवन्तीति सप्तत्रिच्छशतैस्त्रिसप्तत्यधिकंर्गुण्यन्ते, जाता एका कोटी सप्तषष्टिः शतसहस्राणि चतु सप्तति सहस्राणि सप्तशतानि अष्टापञ्चाशदधिकानि १६७७४७५८, येऽपि चावलिकाया अशाश्चतुर्विंशतिशतानि अष्टपञ्चाशदधिकानि २४५८ तेऽपि मुहूर्तगतोच्छ वासराशिना ३७७३ गुण्यन्ते, प्रस्यैव छेदस्य ते अशा इत्यावलिकानयनाथं तेनैव भागो ह्रियते, लब्धास्तावत्य एवावलिकाश्चतुर्विशतिशतान्यष्टापञ्चाशानि २४५८, तानि मूलराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जाता मूलराशिरेका कोटि सप्त्रषष्टिलक्षा. सप्तसप्तति सहस्राणि द्वे शते षोडशोत्तरे, एतावत्य प्रावलिका मुहूर्ते भवन्ति, यदि वा मुहूर्तगताना क्षुल्लकभवग्रहणाना पञ्चषष्टि-सहस्राणि पञ्चशतानि ट्विशानि एक्भवग्रहणप्रमाणेन षट्पञ्चाशेन शतद्व येनावलिकाना गुण्यन्ते तथाऽपि तावत्य एवावलिका भवन्ति, उक्तञ्च
“एगा कोडी सत्तट्टि लक्ख सत्तत्तरी सहस्सा य । दा य सया सोलहिया आवलियाप्रो मुहुत्तमि ॥१॥
एव च यदुच्यते 'सखेज्जाओ आवलियाओ एगे ऊसासनीसासे' इत्यादि तदतीव समीचीनमिति कृत प्रसड गेन, प्रकृत प्रस्तुमः। तत्र सयोगिभवस्थकेवल्यनाहारकस्यान्तरमभिधित्सुराह–'सजोगिभवत्थकेवलिनणाहारयस्स ण भते!' इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगमम्, भगवानाह
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( ९६ ) गौतम ! जघन्येनाप्यन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षेणाप्यन्तर्मुहूर्त समुद्घातप्रतिपत्तेरनन्तरमेवान्तर्मुहूर्तेन शैलेशीप्रतिपत्तिभावात् नवर जघन्यपदादुत्कृष्टपद विशेषाधिकमवसातब्य अन्यथोभयपदोपन्यासायोगात् अयागिभवस्थकेवल्यनाहारकसूत्रे नास्त्यन्तरम्, अयोग्यवस्थाया सर्वस्याप्यनाहारकत्वात् । एव सिद्धस्यापि साद्यपर्यवसितस्यानाहारकस्यान्तराभावो भावनीय , साम्प्रतमेतेषामाहारकानाहारकाणामल्पबहुत्वमाह- एएसि ण भते ।' इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगमम्, भगवानाह-गौतम सर्वस्तोका अनाहारका, सिद्धविन हगत्यापन्न समुद्घात-गतसयोगिकेवल्ययोगिकेवलिनामेवानाहारकत्यात् तेभ्य आहारका असङ्खयेयगुणा , अथ सिद्धेभ्योऽनन्तगुणा वनस्पतिजीवास्ते च प्राय आहारका इत्यनन्तगुणा कथ न भवति ? उच्यते, इह प्रतिनिगोदमसङ्खयेयो भाग. प्रतिसमय सदा विग्रहगत्यापन्नालभ्यते, अनाहारका. -
*विग्गहगइमावन्ना केवलिणो समुहया अजोगी य । सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारगा जीवा ॥१॥
इतिवचनात् ततोऽसट्टयेयगुणा एवाहारका घटन्ते नानन्तगुणा इति । प्रकारान्तरेण भूयो द्वैविध्यमाह ।
हिन्दी-भावार्थ अथवा सर्वजीव दो प्रकार से कहे गए है । जैसेकिआहारक और अनाहारक ।
अनगार गौतम बोले-भदन्त ! जीव आहारक कब तक रह सकते है ?
भगवान महावीर ने कहा-गौतम ! आहारक जीव दो प्रकार के होते है । जैसेकि-छद्मस्थ--आहारक, और केवलियाहारक ।
अनागोर-गौतम बोले-भदन्त । छद्मस्थ जीव आहारक * विग्रहगत्यापन्ना' केवलिन. समुद्धता अयोगिनश्च । सिद्धाश्चानाहारा: शेषा आहारका जीवा ॥शा
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( ९७) कब तक रहता है ?
भगवान महावीर ने कहा-गौतम ! जघन्य क्षल्लकभवग्रहण मे दो समय कम काल तक । क्षुल्लक भवग्रहण का अर्थ होता है-२५६ आवलिकाओ का एक भव करना । उत्कृष्ट काल यावत् असख्यात उत्सर्पिणो-अवसर्पिणो काल तक । क्षेत्र से अगुल के असख्यातवे भाग तक । अर्थात् अगुल के असख्यातमे भाग में जितने प्रकाश प्रदेश है उनमे से एक-एक आकाश-प्रदेश को एक-एक समय मे निकालने पर, जि ने समय मे सारे आकाश प्रदेश निकाले जासके उतने उत्सर्पिणो और अवसर्पिणी काल तक छदमस्थ जीव आहारक रहते है।
अनगार गौतम बोले-भदन्त । केवली भगवान आहारक कब तक रहते है ?
भगवान महावीर ने कहा-गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम करोड पूर्व काल तक ।
अनगार गौतम बोले-भदन्त । जीव अनाहारक कब तक रहते है ?
भगवान महावीर ने कहा-गौतम । अनाहारक जीव दो प्रकार के होते है । जैसेकि-छद्मस्थ अनाहारक और केवली अनाहारक । छद्मस्थ अनाहारक जघन्य एक समय तक, और उत्कृष्ट दो समय तक। केवली अनाहारक दो प्रकार के कहे गये है। जैसेकि-सिद्ध केवली अनाहारक, और भवस्थ केवली अनाहारक।
अनगार गौतम बोले-भदन्न । सिद्धकेवली जीव अनाहारक कब तक रहते है ?
भगवान महावीर ने कहा-गौतम सादि-अनन्त काल तक।
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( ९८ अनगार गौतम बोले-भदन्त । भवस्थ केवली जीव अनाहारक कितने प्रकार के होते है ?
भगवान महावीर ने कहा---गौतम । भवस्थकेवली अनाहारक जीव दो प्रकार के होते हे। जसेकि-सयोगी भवस्थ केवली अनाहारक और अयोगी भवस्थ केवली अनाहारक। __ अनगार गोतम बोले-भदन्त । सयोगो भवस्थ केवली जीव अनाहारक कब तक रहते है ?
भगवान महावीर ने कहा-गौतम । सयोगी भवस्थ केवली जीव जघन्य और उत्कृष्ट तीन समय तक अनाहारक रहते है। और अयोगीभवस्थ केवली जीव जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त अनाहारक रहते है ।
अनगार गौतम बोले-भदन्त । छद्मस्थ आहारक जीव का अन्तरकाल कितना होता है ? । ___ भगवान महावीर ने कहा-गौतम | जघन्य एक समय और उत्कृष्ट दो समय तक । केवलो आहारक जीव का अन्तरकाल जघन्य और उत्कृष्ट तीन समय तक होता है। छद्मस्थ अनाहारक जीव का अन्तरकाल-जघन्य दो समय कम क्षुल्लकभवग्रहण तक और उत्कृष्ट असख्यात काल तक होता है. यावत क्षेत्र की अपेक्षा अगूल का असख्यातवा भाग। सिद्धकेवली अनाहारक जीव सादि-अनन्त होते है, इसलिए उनका अन्तर नही होता है । सयोगीभवस्थ केवली अनाहारक जीव का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त ही होता है । अयोगी भवस्थ केवली अनाहारक जीव का अन्तर नही होता है। __ अनागार गौतम बोले-भदन्त ! इन आहारक और अनाहारक जीवो मे कौन अल्प है और कौन अधिक है ?
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( ९९ )
भगवान महावीर ने कहा- गोतम । सब से कम अनाहारक जीव होते है और आहारक जीव इन से असंख्यात गुणा अधिक होते है ।
मूल पाठ
*
अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तजहा
सभासगा अभासगा य ।
सभासए ण भते । सभासए त्ति कालओ केवचिर होति ?
गोयमा 1 जहणेण एक्क समय उक्कोसेण अतोमुहुत्त ।
o
* अथवा द्विविधा सर्वजीवा प्रज्ञप्ता । तद्यथा - सभाषका, प्रभाषकाश्च । सभाषको भदन्त । 'सभाषक' इति कालत कियच्चिर 1 भवति ? गौतम । जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण प्रन्तर्मुहूर्तम् । प्रभाषको भदन्त 1 ? गौतम । श्रभाषको द्विविध प्रज्ञप्त । सादिको वा पर्यसित, सादिको वा सपर्यवसित । तत्र य स सादिक सपर्यवसित, स जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण अनन्त कालम्, अनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो वनस्पतिकाल । भाषकस्य भदन्त । कियत्कालमन्तर भवति ? जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण श्रनन्त काल वनस्पतिकालः । प्रभाषकस्य सादिकस्य अपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरम् । सादिकसपर्यवसितस्य जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण अन्तर्मुहूर्तम् । अल्पबहुत्वम्सर्वस्तोका भाषा, प्रभाषका अनन्तगुणा ।
अथवा द्विविधा सर्वजीवाः । सशरीरिणश्च प्रशरीरिणश्च । अशरीरिणो यथा सिद्धा, स्तोका प्रशरीरिण । सशरीरिण अनन्तगुणाः ।
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( १००) अभासए ण भते ! ०? गोयमा | , अभासए दुविहे पण्णत्ते-साइए वा अपज्जवसिए, सातीए वा सपज्जवसिए, तत्थ ण जे से साइए सपज्जवसिए से जहः अतो० उक्को० अणत काल, अणता उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ वसस्सतिकालो। भासगस्स ण भते । केवतिकाल अतर होति ?
जह० अतो० उक्को० अतो० अणत काल वणस्सतिकालो । अभासग० सातीयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अतर, सातीयसपज्जवसियस्स जहण्णेण एक्क समय उक्को० अतो० । अप्पाबहु० सव्वत्योवा भासगा, अभासगा अणतगुणा ।
अहवा दुविहा सव्वजीवा, ससरीरी य असरीरो य । असरी री जहा सिद्धा, थोवा असरीरी,ससरीरी अणतगुणा।
सस्कृत-व्याख्या 'अहवे' त्यादि अथवा द्विविधा सर्वजीवा प्रज्ञप्तास्ताद्यथा भाषकाश्च प्रभाषकाश्च, भाषमाणा भाषका इतरेऽभाषकाः । सम्प्रति कायस्थितिमाह-'सभासए ण भते ।'– इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगमम् ।
भगवानाह-गौतम । जघन्येनैक समय भाषाद्रव्यग्रहणसमय एव मरणतोऽन्यतो वा कुतश्चित्कारणात्तद्वयापारस्याप्युपरमात्, उत्कर्षेणान्तर्मुहूत्तं, तावन्त काल निरन्तर भाषाद्रव्यग्रहणनिसर्गसम्भवात् । तत उर्ध्वं जीवस्वाभाव्यान्नियमत एवोपरमति । प्रभाषकप्रश्नसूत्र सुगमम्, भगवानाह-गौतम ! अभाषका द्विविध प्रज्ञप्तस्तद्यथा-सादिको वा
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अपर्यवसित सिद्ध , सादिको वा सपर्यवसित स च पृथिव्यादिः, तत्र योऽसौ सादि सपर्यवसित स जघन्यनान्तर्मुहत्तं, भाषणादुपरम्यान्तर्मुहर्तेन कस्यापि भूयोऽपि भाषणप्रवृत्ते , पृथिव्यादिभवस्य वा जघन्यत एतावन्मात्रकालत्वात्, उत्कर्षतो वनस्पतिकाल , स चानन्ता उत्सप्पिण्यवसप्पिण्य कालत , क्षेत्रताऽनन्ता लोका असङ्खयेया. पुद्गलपरावर्ताः ते च पूदगलपरावर्ती श्रावलिकाया असङ्खयेयो भाग. एतावन्त काल बनस्पतिष्वभाषकत्वात् । साम्प्रतमन्तर चिचिन्तयिषुराह-'भासगस्स ण भते !' इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगमम्, भगवानाह-गौतम ! जघन्येनान्तमहतमुत्कर्षतो वनस्पतिकाल , अभाषककालस्य भाषकान्तरत्वात् । प्रभाषकसूत्रे साद्यपर्यसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात, सादिसपर्यवसितस्य जघन्येनैक समयमुत्कर्षतोऽतर्मुहूत्र्त, भाषककालस्याभाषकान्तरत्वात्, तस्य च जघन्यत उत्कर्षतश्चैतावन्मात्रत्वात्, अल्पबहुत्वसूत्र प्रतीतम् । 'अहवे' त्यादि सशरीरा.-असिद्धा अशरीरा.-सिद्धाः, ततः सर्वाण्यपि सशरीराशरीरसूत्राणि सिद्धासिद्धसूत्राणीव भावनीयानि ।
हिन्दी-भावार्थ अथवा सर्वजीव दो प्रकार के होते है। जैसेकि-सभाषक और प्रभाषक।
अनगार गौतम बोले-भदन्त । सभाषक जीव सभाषकत्व रूप से कब तक रहते है ? ___ भगवान महावीर ने कहा-गौतम ! जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक । __ अनगार गौतम बोले-भदन्त ! अभाषक जीव अभाषकत्व रूप से कब तक रहते है ?
भगवान महावीर ने कहा-गौतम ! अभाषक जीव दो प्रकार के कहे गये है-सादि-अनन्त, और सादि-सान्त । इनमे
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(१०२) जो सादि-सान्त जीव है, उनका अवस्थितिकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट अनन्तकाल तक । अर्थात् अनन्त उत्सपिणिअवसर्पिणियों तक । जिस प्रकार वनस्पतिकाल अनन्त होता है, वैसे ही इन जीवो का भी अवस्थितिकाल अनन्त समझना चाहिए। __ अनगार गौतम बोले-भदन्त ! भाषक जीवो का अन्तर कितने काल का होता है ?
भगवान महावीर ने कहा-गौतम । जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट वनस्पतिकाल, अर्थात् अनन्तकाल तक होता है । प्रभाषक सादि-अनन्त जीवों का अन्तरकाल नही होता है। सादि-सान्त जीवो का अन्तरकाल जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त होता है। इन का अल्पबहुत्व इस प्रकार समझना चाहिए___ सब से कम भाषक जीव होते है। अभाषक जीव इन से अनन्त गुणा अधिक होते है।
अथवा सर्वजीव दो प्रकार के कहे गये है। जैसेकिसशरीरी और अशरीरी। अशरीरी जीवो को सिद्धो के समान समझना चाहिए । अशरीरी कम है, और सशरीरी इन से अनन्तगुणा अधिक होते है।
मूल पाठ अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता तंजहा-चरिमा चेव, अचरिमा चेव ।
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अथवा द्विविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः । तद्यथा-चरमाश्चैव अचरमाश्चैव । चरमो भदन्त ! चरम इति कालतः कियच्चिर भवति ?
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( १०३ )
चरिमे ण भते । चरिमेत्ति कालतो केवचिर हाति ?
गोयमा चरिमे अणादीए सपज्जवसिए । अचरिमे दुविहे - अणातीए वा अपज्जवसिए, सातीए अपज्जवसिते, दोह पि णत्थि अतर, अप्पाबहु सव्वत्थोवा अचरिमा, चरिमा अणतगुणा । सेत्त दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता । संस्कृत - व्याख्या
' अहवे' त्यादि, चरमाः - चरमभववन्तो भव्यविशेषा ये सेत्स्यन्ति, तद्विपरीता अचरमा:- अभव्या सिद्धाश्च । कार्यस्थितिसूत्रे चरमोऽनादिसपर्यवसितोऽन्यथा चरमत्वायोगात् । अचरमसूत्रऽचरमो द्विविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा - अनादिको वाऽपर्यवसितः, सादिको वाऽपर्यवसितः, तत्रानाद्यपर्यवसितोऽभव्य, साद्यपर्यवसित. सिद्ध: । साम्प्रतमन्तरमाह - 'चरिमस्स ण भते !' इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगम, भगवानाह — गौतम ! श्रनादिकस्य सपर्यवसितस्य नास्त्यन्तर, चरमत्वापगमे सति पुनश्चरमत्वायोगात्, अचरमस्याप्यनाद्यपर्यवसितस्य साद्यपर्यवसितस्य वा नास्त्यन्तरमविद्यमानचरमत्वात् । अल्पबहुत्वे - सर्वस्वोका अचरमाः,
प्रभव्याना सिद्धानामेव चाचरमत्वात्, चरमा अनन्तगुणाः, सामान्यभव्यापेक्षमेतत्, अन्यथाऽनन्तगुणत्वायोगात्, आह च मूलटीकाकार:चरमा अनन्तगुणाः, सामान्यभव्यापेक्षमेतदिति भावनीय, दुर्लक्ष्य:
गौतम | चरमो अनादिकः सपर्यवसितः । अचरमो द्विविधः –— श्रनादिको वा पर्यवसित, सादिकोऽपयवसितः । द्वयोरपि नास्त्यन्तरम् । अल्पबहुत्वम् - सर्वस्तोकाः प्रचरमाः, चरमा अनन्तगुणा । समाप्त द्विविधाः सर्वजीवा: प्रज्ञप्ता
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(१०४)
सूत्राणा विषयविभाग" इति । सम्प्रत्युपसहारमाह-'सेत्त दुविहा' ते एते द्विविधा सर्वजीवा , अत्र क्वचिद्विविधवक्तव्यतासग्रहणिगाथा
सिद्धसइदियकाए जोए वेए कसायलेसा य । नाणुवोगाहारा भाससरीरी य चरमो य ॥१॥
(वृत्तिकारो मलयगिरि ) हिन्दी-भावार्थ अथवा सर्वजीव दो प्रकार के कहे गए है । जेसे कि-चरम और अचरम ।
अनगार गौतम बोले-भदन्त ! चरम जीव चरमत्वरूप से कब तक रहते है ?
भगवान महावीर ने कहा-गौतम ! चरम जीव अनादिसान्त होते है। अचरम जीव दो प्रकार के होते है, जैसेकिअनादि-अनन्त और सादि-अनन्त । दोनो प्रकार के जीवो का अन्तरकाल नही होता है। इन जीवो का अल्पबहुत्व इस प्रकार है
सबसे कम अचरम जीव होते है, और चरम जीव इन से अनन्त गुणा अधिक माने गए है।
इस प्रकार सर्वजीवों की व्याख्या करने वाला प्रकरण समाप्त होता है।
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परिशिष्ट न० २ यजुर्वेद मे परमात्मा की अनन्तता
जैनदर्शन का विश्वास है कि कर्मो का आत्यन्तिक नाश कर लेने पर जीव मुक्ति को प्राप्त कर लेता है, परमात्मा बन जाता है, और फिर सदा के लिए मुक्ति मे ही वह विराजमान रहता है, उससे कभी वापिस नही आता है। दूसरे शब्दो मे, जैनदर्शन की दृष्टि से परमात्मा सादि-अनन्त है । परमात्मस्वरूप को जीव ने प्राप्त किया है, इस लिए वह सादि है, और परमात्मस्वरूप उस का सदा के लिए बना रहेगा, उस से कभी वह च्युत नहीं होगा, इसलिए वह अनन्त है। परमात्मा की इस अनन्तता को लेकर कुछ लोग जनदर्शन पर कई तरह के ऊलजलूल आक्षेप करते है। वे कहते है कि जैनदर्शन का परमात्मा कैदी है, मुक्ति की कैद मे वह सदा के लिए पडा रहता है, इसलिये वह बद्ध है, उसे स्वतन्त्र नहीं कहा जा सकता । लोगो का ऐसा कहना, समझना सर्वथा भ्रान्ति-पूर्ण है, क्योकि परमात्मा का अपने रूप मे स्थिर रहना, निजस्वभाव मे रमण करना, उसकी बद्धता या परतत्रता का कारण नहीं कहा जा सकता । बद्धता या परतत्रता का कारण परवशता होती है। स्वभाव-स्थिरता को कभी बद्धता या परतत्रता का रूप नही दिया जा सकता। यदि केवल स्वभाव-स्थिरता को ही बद्धता का प्रतीक मान लिया जायगा, फिर तो ससार का कोई भी तत्त्व स्वतन्त्र नही कहा जा सकता । क्योकि वस्तु का अपना कोई न
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( १०६) कोई स्वभाव अवश्य होता है, और उस मे वह अवस्थित भी रहता है। वैदिकदर्शनसम्मत परमात्मा को ही ले ले,वैदिकदशन के विश्वासानुसार वह जगत का निर्माण करता है। तो "जगत का निर्माण करना,परमात्मा का स्वभाव बन जाता है। वैदिकदर्शन के अनुसार जगत का निर्माण परमात्मा द्वारा ही होता है, इस लिए अपने स्वभाव मे स्थिर होने से उस जगत्कर्ता परमात्मा को भी बद्ध या परतत्र मानना पड़ेगा। पर जगत्कर्ता परमात्मा की बद्धता वैदिकदर्शन स्वय स्वीकार नही करता है। वस्तुस्थिति भी यही है। स्वभाव-स्थिर किसी एक तत्त्व पर बद्ध या परतत्र शब्द का प्रयोग नही हुआ करता । अत सदा के लिए मुक्ति मे विराजमान रहने के कारण जैनदर्शन के परमात्मा को भी बद्ध या परतत्र नही कहना चाहिए और नाही ऐसा समझना चाहिए। ___ इसके अलावा, वैदिक ग्रन्थो मे भी परमात्मा की अनन्तता को प्रकारान्तर से स्वीकार किया गया है। यजुर्वेद मे ऐसे अनेकों मत्र उपलब्ध होते है जो स्पष्ट रूप से परमात्मा की अनन्तता को अभिव्यक्त कर रहे है। पाठको की जानकारी के लिए हम यजुर्वेद के दो मत्रो को यहा उद्धृत करते है। वे मत्र ये है
* एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पूरुष । पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृत दिवि ।।
-यजुर्वेद अ० ३१,मत्र ३ * वैदिक यत्रालय, अजमेर से मुद्रित, तृतीयावृत्ति विक्रम सम्वत् १९६९, पृष्ठ १०४२
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। १०७) इस का भावार्थ करते हुए श्री दयानन्द सरस्वती लिखते है कि यह सब सूर्य,चन्द्र आदि लोक-लोकान्तर चराचर जितना जगत है, वह सब चित्र-विचित्र रचना के अनुमान से परमेश्वर के महत्त्व को सिद्ध कर उत्त्पत्ति, स्थिति और प्रलय रूप से तीनो काल मे घटने बढने से भी परमेश्वर के एक-एक चतुर्थाश मे ही रहता है, किन्तु इस ईश्वर के चौथे अश की भी अवधि को नही पाता और इस ईश्वर के सामर्थ्य के तीन अश अपने अविनाशी मोक्षस्वरूप मे सदैव रहते है । इस कथन से उस ईश्वर का अनन्तपन नही बिगडता किन्तु जगत् की अपेक्षा उस का महत्त्व और जगत् का न्यूनत्व जाना जाता है ।
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुष पादोऽस्येहा भवत्पुन । ततो विष्वङ व्यक्रामत्साशनानशने अभि ।।
- यजुर्वेद, अ० ३१ मत्र ४ श्री दयानन्द सरस्वती ने इस मत्र का भावार्थ इस प्रकार किया है
यह पूर्वोक्त परमेश्वर कार्यजगत् से पृथक् तीन अश से प्रकाशित हा एक अश अपने सामर्थ्य से सब जगत को बारबार उत्पन्न करता है, पीछे उस चराचर जगत् मे व्याप्त हो कर स्थित है । (पृष्ठ १०४३)
यजुर्वेद के इन मत्रो मे कहा गया है कि परमात्मा के तीन अश अपने अविनाशी मोक्षस्वरूप मे सदैव रहते है । यजुर्वेद का यह वर्णन जैनदर्शनसम्मत परमात्मा की अनन्तता के साथ स्पष्ट रूप से मेल खा रहा है। यह सत्य है कि जैनदर्शन यजुर्वेद की भाति परमात्मा के चार अश नही मानता है, और नाहो वह परमात्मा का जगत्कर्तृत्व स्वीकार करता है।
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________________ तिब्बती 11 ( 108) SLINI किन्तु यजुर्वेद के मत्रो द्वारा प्रस्तुत मे हम इतना हो व्यक्त करना चाहते है कि यजुवेद मे भी परमात्मा को अनन्त माना गया है और यजुर्वेदसम्मत परमात्मा के तीन अश अविनाशी मोक्ष मे सदा रहते है, वे कभी वहा से च्युत नही हो पाते। जब यजुर्वेदसम्मत परमात्मा की अनन्तता उसे बद्ध नही होने देती, उसे स्वतत्र बनाए रखती है, तो जैनदर्शन सम्मत परमात्मा की अनन्तता उसे बद्ध या परतत्र या कैदी कैसे बना सकती है ? उत्तर स्पष्ट है-कभी नहीं। गीता मे अकर्तृत्ववाद जैनदर्शन परमात्मा को जगत का निर्माता, भाग्यविधाता, तथा कर्मफलप्रदाता स्वीकार नहीं करता है। जैनदर्शन की यह मान्यता सर्वथा युक्तियुक्त और तर्कसंगत है। इस की छाया हमे भगवद्गीता में भी मिलती है / गीता के पाचवे अध्याय का पाचवा और छठा श्लोक देखिए न कर्तृत्व न कर्माणि, लोकस्य सृजति प्रभु / न कर्मफलसयोग, स्वभावस्तु प्रवर्तते // अर्थात्-ईश्वर जगत का निर्माता नही है, जीवो के कर्मो की रचना नहीं करता है और नाही वह कर्मफल का प्रदाता है / प्रकृति के स्वभाव से ही यह सब बातें हो रही है। नादत्ते कस्यचित्पाप, न चैव सुकृत विभुः। अज्ञानेनावृत ज्ञान, तेन मुह्यन्ति जन्तवः / / अर्थात्-ईश्वर किसो को पाप और पुण्य नही लगाता है, ज्ञान अज्ञान से आवृत हो रहा है, इसी कारण से जीव मोह को प्राप्त हो रहे है।