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( ४६ ) १. ईषत्, २ ईषत्प्रारभारा, ३ तनू, ४. तनूतनू, ५ सिद्धि, ६ सिद्धालय. ७ मुक्ति, ८ मुक्तालय, ९ लोकाग्र १० लोकाग्रस्तूपिका, ११ लोकाग्रप्रनिबोधना, . १२ सर्वप्रागभूत-जोव-पत्त्व-सुखावहा ।
ईषत्प्राग्भारा पृथिवो श्वेत है, शखतल के समान विमल-निर्मल है, सोल्लिय (पुष्पविशेष), मृणाल-कमलनाल, दकरज-पानी की झाग, तुषार-अोसविन्दु, गोक्षीर-गाय का दूध, हार (मोतियो का हार के समान श्वेत वर्ण वाली है। छत्र को उलटा करके रखने से उस का जो आकार बनता है, वही आकार ईषत्प्राग्भारा पृथिवी का होता है। ईषत्प्राग्भारा पृथिवी सारी की सारी श्वेत सुवर्णमयी है, वह स्वच्छ है. श्लक्ष्ण-चिकनी है, मसृण है-इस्तरी किए हुए वस्त्र के समान कोमल है, घृष्ट है-घिसे हुए पाषाण के समान स्पर्श वाली है, मष्ट है-चीकनी है, चमकदार है, नीरज है-धूलिरहित है, निर्मल है-मलरहित है, निष्पक है, कीचड-रहित है। ___ईषत्प्रभागभारा पृथिवी स्निग्धछाया वाली है, किरणो से युक्त है, अच्छा-प्रभा, कान्ति वाली है, चित्ताकर्षक है, दर्शनयोग्य है, सुन्दर है, अत्यन्त सुन्दर है।
ईषत्प्राग्भारा पृथिवी के एक योजन ऊपर लोकान्त है। उस योजन के ऊपर के कोस के छठे भाग मे सिद्ध भगवान विराजमान है। वे सिद्ध सादि, अनन्त, जन्म, जरा, मृत्यु और योनि (उत्पत्तिस्थान) की अनेकविध वेदना से रहित है । ससार के कलकलीभाव (विषमता), पुनर्भव-पुन पुन उत्पन्न होना,