Book Title: Jain Agamo me Parmatmavada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 79
________________ ( ६२ ) असखेज्जपए सिए असखेज्जपदेसोगाढे, अत्थि पुण से अन्ते, कालओ ण सिद्धे सादीए अपज्जवसिए, नत्थि पुण से अन्ते. भावओ ण सिद्धे अणन्ता णाणपज्जवा, अणन्ता दसणपज्जवा जाव अणन्ता अगुरुलहुयपज्जवा नत्थि पुण से अन्ते, सेत्त दव्वओ सिद्धे सअन्ते, खेत्तओ सिद्धे सअन्ते, कालओ सिद्धे अणन्ते, भावओ सिद्धे अणन्ते । —- भगवती सूत्र शतक २, उद्देशक १ हिन्दी - भावार्थ हे स्कन्दक | सिद्ध अनन्त है, परन्तु द्रव्य से एक सिद्ध सान्त है, क्षेत्र से एक सिद्ध असख्यात - प्रदेशिक है, और प्रख्यात प्रदेशावगाढ है काल से एक सिद्ध सादि है, अनन्त है, उसका अन्त नही होता है, भाव से एक सिद्ध की अनन्त ज्ञानपर्याय, अनन्त दर्शन - पर्याय यावत् अनन्त अगुरुलघुपर्याय है, इन का कभी अन्त नही होता है । साराश यह है कि द्रव्य और क्षेत्र से एक सिद्ध सान्त है, किन्तु काल और भाव से एक सिद्ध अनन्त है । मूल पाठ + गत्तेण साइया, अपज्जवसिया विय । ज्ञानपर्यंवा', अनन्ताः दर्शनपर्यंवा: यावद् अनन्ता अगुरुलघुपर्यंवा, नास्ति पुन तस्यान्त । समाप्त द्रव्यत. – सिद्ध सान्तः, क्षेत्रत. सिद्ध. सान्त., कालत. – सिद्धोऽनन्तः, भावत - सिद्धोऽनन्तः । + एकत्वेन सादिका, पर्यवसिता श्रपि च । पृथक्त्वेन अनादिका, अपर्यवसिता श्रपि च ॥

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