Book Title: Jain Agamo me Parmatmavada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 97
________________ ( ८०, तोऽनन्त काल, अनन्ता उत्सपिण्यबसपिण्य कालत , क्षेत्रनाऽपार्द्धपुद्गलपरावर्त देशोन, एकवारमुपश्रेणि प्रतिपद्य तत्रावेदका भूत्वा श्रणिसमाप्तौ सवेदकत्वे सति पुनरेतायता वालेन श्रेणिप्रतिपत्ताववेदकत्वोपपत्ते । अल्पबहुत्वमाह-'एएसि ण भते । जीवा' इत्यादि--पूर्ववत् । प्रकारान्तरेण द्वैविध्यमाह- 'अहवे' त्यादि, अथवा द्विविधा सर्वजीवा. प्रज्ञप्तास्तद्यथा-सकषायिकाश्च अकषायिकाश्च, सह कपाया येषा यैर्वा ते सकाषाया त एव अकषायिकाः प्राकृतत्वात् स्वार्थे इक्प्रत्यय , एव न विद्यन्ते कषाया येषा ते अकषाया , २ एवाकषायिका । सम्प्रात कायस्थितिमाह-'सकसाइयम्से' त्यादि, सकषायिकस्य विविधस्यापि सचिट्ठणा कायस्थितिरन्तर च यथा सवेदकस्य, प्रकषायिकस्य द्विविधभेदस्यापि कायस्थितिरन्तर च यथाऽवेदकस्य तच्चैवम् –'सकसाइए ण भते । 'सकसाइय' ति कालतो केवचिर होइ ? गोयमा । सकसाइए तिविहे पन्नत्ते, तजहा-अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए, साइए वा सपज्जवसिए, तत्थ जे से साइए सपज्जवसिए से जहण्णण अतोमुहत्त, उक्कोसेण अणत काल-अणता प्रोसप्पणिउस्सप्पिणीओ कालतो खेत्ततो अवड्ढपोग्गलपरियट्ट देसूण, अकसाइए ण भते ! अकसाइय त्ति कालो केवचिर होइ ? गोयमा ! अकसाइए- दुविहे पण्णत्ते, तजहा-साइए वा अपज्जवसिए, साइए वा सपज्जवसिए, तत्थ ण जे साइए सपज्जवसिए से जहण्णण एक्क समय उकोसेण अंतोमुहुत्त । सकसाइयस्स ण भते ! अतर कालतो केवचिर होइ ? गोयमा । अणाइयस्स अपज्जवसियस्स नत्थि प्रतर, अणाइयस्स सपज्जवसियस्स नत्थि अतर, साइयस्स सपज्जवसियस्स जहण्णेण एक्क समय उक्कोसेण अतोमुहुत्त, अकसाइयस्स ण भते । केवइय काल अतर होइ ? साइयस्स

Loading...

Page Navigation
1 ... 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125