Book Title: Jain Agamo me Parmatmavada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 83
________________ ( ६६ ) सिद्धाना स्थाननिरूपणायाह - ' णत्थि सिद्धि, त्यादि, सिद्ध अशेषकर्म च्युति - लक्षणाया निज स्थानम -- ईषत्प्राग्भाराख्य व्यवहारतो निश्चयतस्तु तदुपरियोजन - कोशषड्भाग तत्प्रतिपादकप्रमाणाभावात् स नास्तीत्येव सज्ञा नो निवेशयेत्, यतो बाधकप्रमाणाभावात्, साधकस्य चागमस्य सद्भावात्तत्सत्ता दुर्निवारेति । अपिच - प्रपगतशेषकल्मषाणा सिद्धाना केनचिद् विशिष्टेन स्थानेन भाव्य तच्चतुर्दशरज्ज्वात्मकम्य लोकस्याग्रभूत द्रष्टव्य, न च शक्येत वक्तुम काशवत् सर्वव्यापिन सिद्धा इति यतो लोकालोकव्याप्याकाश, न चालोके परद्रव्यस्य तस्याकाशमात्ररूपत्वात्, लोकमात्र- व्यापित्वमपि नास्ति, सभव --~ } विकल्पानुपपत्ते तथाहि-- सिद्धावस्थाया तेषा व्यापित्वमभ्युपगतमुतप्रागपि न तावत् सिद्धावस्थाया, तद् व्यापित्वभवने निमित्ताभावात्, नापि प्रागवस्थाया, तद्-भावे सर्वससारिणा प्रतिनियतसुख-दु खानुभवो न स्यात्, न च शरीराद्व हिरवस्थितमवस्थानमस्ति तत्सत्ता निबन्धनस्य प्रमाणस्याभावात्--अत. सर्वव्यापित्व विचार्यमाण न कथचिद् घटते, तदभावे च लोकाग्रमेव सिद्धाना स्थान, तद्गतिश्च 'कर्मविमुक्तस्योर्ध्व गति' रिति कृत्वा भवति, तथा चोक्तम् -- लाउ एरडफले अग्गी धूमे य उसु धणु विमुक्के । गई पुव्वपोगेण एव सिद्धाण विगई ॥१॥ तदेवमस्ति सिद्धिस्तस्याश्च निज स्थानमित्येव सज्ञा निवेशयेदिति ||२६|| हिन्दी- भावार्थ , सिद्धि (मुक्ति) नही है, और असिद्धि (ससार ) नही है, ऐसी धारणा नही रखनी चाहिए, प्रत्युत सिद्धि और प्रसिद्धि दोनों है, इस प्रकार की भावना रखनी चाहिए । जीव का निज-स्थान मुक्ति नही है, ऐसी धारणा भी नही रखनी चाहिए, किन्तु यही समझना चाहिए कि जीव का

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