Book Title: Jain Agamo me Parmatmavada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti
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(२१) तत प्रासाद - शृ गेषु, रम्येषु काननेषु च । वृतो विलासिनोसाथैर्भु क्ते, भोग-सुखान्यसौ ॥४॥ अन्यदा प्रावृष प्राप्तौ, मेघाडम्बरमण्डितम् । व्योम दृष्ट्वा ध्वनि श्रुत्वा, मेघाना स मनोहरम ॥५॥ जातोत्कण्ठो दृढ जातोऽरण्यवासगम प्रति । विजितश्च राज्ञाऽपि प्राप्तोऽरण्यमसौ तत ॥६॥ पृच्छन्त्यरण्यवासास्त, नगर तात! कोदृशम ? स स्वभावान् पुर सर्वान्, जानात्येव हि केवलम ॥७॥ न शशाक तका (तरा) तेपा, गदितु स कृतोद्यम । वने वने चराणा हि, नास्ति सिद्धोपमा यत (तथा) ॥८॥
हिन्दी-भावार्थ जैसे कोई म्लेच्छ (अरण्यवासी) नगर के बहुत से गुण। को जानता हुआ भी वहा उपमा के अभाव के कारण उन्हे कह नही सकता।
मूल पाठ * इय सिद्धाण सोक्ख अणोवम पत्थि तस्स ओवम्म । किचि विसेसेणेत्तो ओवम्ममिण सुणह वोच्छ ।।१७।।
सस्कृत-व्याख्या अथ दार्टान्तिकमाह - ‘इय' गाहा, 'इति' एवम् अरण्ये नगरगुणा इवेत्यर्थ , सिद्धाना सौख्यसनुपम वर्तते, किमित्थमित्याह--यतो नास्ति तस्यौपम्य, तथापि बालजनप्रतिपत्त ये किञ्चिद्विशेषेणाह- एत्तो' त्ति *इति सिद्धाना सौख्यमनुपम नास्ति तस्य औपम्य । किचित् विशेषेण इत औपम्यमिद शृणुत, वक्ष्यामि ॥
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