Book Title: Jain Agamo me Parmatmavada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 41
________________ ( २४ ) णिच्छिण्णसव्वदुक्खा जाइजरामरणबधणविमुक्का । अव्वाबाह सुख अणुहोति सासय सिद्धा ॥ २१ ॥ अतुल सुहसागरगया अव्वाबाह अणोवम पत्ता । सव्वमणागयमद्ध चिट्ठति सुही सुह पत्ता ||२२|| संस्कृत - व्याख्या साम्प्रत वस्तुत सिद्धपर्यायशब्दान प्रतिपादयन्नाह - 'सिद्ध त्ति य' गाहा, सिद्धा इति च तेषा नाम कृतकृत्यत्वाद् एव बुद्धा इति केवलज्ञानेन विश्वावबोधात्, पारगता इति च भवार्णवपारगमनात् परपरगय त्ति - पुण्यबीजसम्यक्त्वज्ञानचरण क्रमप्राप्त युपाययुक्तत्वात् परम्परया गता परम्परगता उच्यन्ते, उन्मुक्त कर्मकवचा. सकलकर्मवियुक्वात्, तथा अजरा वयसोऽभावात्, अमरा ग्रायुषोऽभ वात् असगाश्च सकलक्लेशाभावादिति । 'णिच्छिण्ण' गाहा 'अतुल' गाहा व्यक्तार्थे एवेति । हिन्दी- भावार्थ सिद्ध, बुद्ध, पारगत, परम्परगत, उन्मुक्तकर्म कवच, अजर अमर, असग ये सब सिद्ध जीवो के पर्यायवाचक शब्द है । सिद्ध कृतकृत्य को कहते है । केवल ज्ञान के द्वारा विश्व को जानने वाले बुद्ध कहलाते है । ससार रूपी समुद्र से पार हुए को पारगत कहा जाता है । सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति, पुन सम्यग् ज्ञान की प्राप्ति, तदनन्तर सम्यक् चारित्र की प्राप्ति, इस परम्परा द्वारा जिस ने मोक्ष को प्राप्त किया है, उसे परम्परगत कहते है । सब प्रकार के कर्मो से रहित उन्मुक्त-कर्म-कवच, जरा आदि अवस्थाओ से रहित अजर, आयु से रहित अमर और सब प्रकार के क्लेशों से रहित असग कहलाते है ।

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