Book Title: Jain Agamo me Parmatmavada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 65
________________ (४८) मूल पाठ * निव्वाण ति अबाह ति सिद्धी लोगग्गमेव य । खेम सिव अणावाह, ज तरति महेसिणो । सस्कृत-व्याख्या निर्वाति कर्माग्निविध्यापनाच्छीतीभवन्त्यस्मिन्निति निर्वाण इति शब्द स्वरूपप्रदर्शको यत्रापि नास्ति तत्राग्यध्याहार्य तत 'उच्यते इत्यध्याहृत्य' निर्वाणमिति यदुच्यते, अबाधमिति यदुच्यते, सिद्धिरिति यदुच्यते, लोकाग्रमिनि यदुच्यत इति व्याख्येयम् । क्षेम शिवमनाबाधमिति च प्राग्वत् । यदिति यत् स्थान 'विभक्तिव्यत्ययाद्' यत्र स्थाने वा तरन्ति प्लवन्ते गच्छन्तीत्यर्थो महर्षयो महामुनय. । हिन्दी-भावार्थ जिस स्थान को महर्षि लोग प्राप्त करते है, उस स्थान को निर्वाण, अबाध, सिद्ध, लोकाग्र, क्षेम, शिव और अनाबाध कहा जाता है। मूल पाठ + त ठाण सासयवास, लोगग्गमि दुरारुह । ज सम्पत्ता न सोयन्ति, भवोहन्तकरा मुणी ॥ -उत्तराध्ययन प्र. २३-८४ * निर्वाणमिति अबाधमिति सिद्धिः लोकाग्रमेव च । क्षम शिवमनाबाध, यत्तरन्ति महर्षयः ॥ + तत्स्थान शाश्वतवास, लोकाग्रे दुरारोह । यत् सम्प्राप्ता न शोचन्ति, भवौधान्तकरा. मुनय ॥

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