Book Title: Jain Agamo me Parmatmavada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 44
________________ (२७) दय', सह रूपेण-मूर्त्या वर्तन इति समासान्ते इन् प्रत्यये सति सरूपिण सस्थानवर्णादिमन्त सशरीरा इत्यर्थ, न रूपिणोऽरूपिणो-मुक्ता', सपुद्गला -कर्मादिपुद्गलवन्तो जीवा , सिद्धा , ससार-भव समापन्नका - आश्रिता ससारसमापन्नका -ससारिण नदितरे सिद्धाः शाश्वताः सिद्धा जन्ममरणादिरहितत्वाद्, प्रशाश्वता - ससारिण. तद्युक्तत्वादिति । हिन्दी-भावार्थ ससार मे जो कुछ है, उसे दो विभागो मे विभक्त किया जा सकता है । जैसे कि-- जीव ओर अजीव । जीव के दो-दो भेद होते है। जैसे कि-त्रस और स्थावर । सयोनिक (उत्पत्तिशील) और अयोनिक (उत्पत्तिर हित-सिद्ध), आयु वाले और आयु रहित (सिद्ध),-सेन्द्रिय इन्द्रियों वाले और प्रनिन्द्रिय-इन्द्रियो से रहित (सिद्ध), सवेदक-स्त्री, पुरुष आदि वेद से युक्त और अवेदक-वेद से रहित (सिद्ध) सरूपी-रूप, रस, गन्ध आदि से युक्त और अरूपी-रूप, रस आदि से रहित (सिद्ध), सपुद्गल-पुद्गल युक्त और अपुद्गल-पुद्गल से रहित (सिद्ध), ससारसमापन्नक-ससार मे रहने वाले और अससारसमापन्नक-जन्ममरण रूप ससार से विमुक्त (सिद्ध), शाश्वतनित्य (सिद्ध) और अशाश्वत-ससारी । मूल पाठ * अत्थि ण भते | अकम्मस्स गती पण्णायति ? हन्ता अस्थि । कहन्न भते ! अकम्मस्स गती पण्णायति? गोयमा । निस्सगयाए निरगणयाए गतिपरिणामेण *अस्ति भदन्त । अकर्मणो गति प्रज्ञायते ? हन्त अस्ति । s

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