Book Title: Jain Agamo me Parmatmavada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti
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( ४४ )
हार - वण्ण' त्ति व्यक्तमेव, नवरम्, प्रादर्शतल दर्पणतल क्वचिच्छङ्खतलमिति पाठ आदर्शतलमिव विमला या सा तथा, 'सोल्लिय' त्ति कुसुमविशेष, 'सव्वज्जुण सुवण्णमई' त्ति श्रर्जुनसुवर्ण-श्वेतकाञ्चन, अच्छा आकाशस्फटिकमिव 'सह' त्ति श्लक्ष्णपरमाणुस्कन्धनिष्पन्ना श्लक्ष्णतन्तु निष्पन्न पटवत् 'लण्ड' त्ति मसृणा घुण्टितपटवत् 'घट्ट' त्ति घृष्टेव घृष्टा खरशानया पाषाणप्रतिमावत् 'मट्ठ' त्ति सृष्टेव मुष्टा सुकुमारशानया प्रतिमेव शोधिता वा प्रमार्जनिकयेव, अत एव 'णीरय' त्ति नीरजा – रजोरहिता 'णिम्मला' कठिनमलरहिता 'णिप्पक' त्ति निष्पका - आर्द्र मलरहिता अकलका वा 'णिक्ककडच्छाय' त्ति निष्ककटा-निष्कवचा निरावरणेत्यर्थ. छाया - शोभा यस्या सा तथा 'अकलकशोभा वा, 'समरीचिय' त्ति समरीचिका - किरणयुक्ता, अतएव 'सुप्पभ' त्ति सुष्ठु प्रकर्षेण च भाति शोभते या सा सुप्रभेति 'पासादीय' त्ति प्रासादो-मन प्रमोद प्रयोजन यस्या. सा प्रासादीया 'दरसणिज्ज' त्ति दर्शनाय - चक्षुव्यपाराय हिता दर्शनीया, ता पश्यच्चक्षुर्न श्राम्यतीत्यर्थः, 'अभिरूव' त्ति प्रभिमत रूप यस्याः सा अभिरूपा, कमनीयेत्यर्थः, 'पडिरूव' त्ति द्रष्टारं द्रष्टार प्रति रूप यस्या सा प्रतिरूपा, 'जोयणमि लोगते' त्ति इह योजनमुत्सेधागुलयोजनमवसेय तदीयस्यैव हि क्रोशषडभागस्य सत्रिभागस्त्रयस्त्रिंशदधिकधनु शतत्रयी प्रमाणत्वादिति, 'अणेगजाइ--जरा-मरण-- जोणिवेयण' अनेकजातिजरामरणप्रधानयोनिषु
दना यत्र स तथा त 'ससार - कलकलीभाव - पुणब्भव - गब्भ-वासवसही - पवचमइक्कता' ससारे कलङ्कलीभावेन श्रसमञ्जसत्वेन ये पुनर्भवा: - पौन पुन्येनोत्पादा गर्भवासवसतयश्च - गर्भाश्रयनिवासास्तासा यः प्रपचो - विस्तर, स तथा तमतिक्रान्ता. - निस्तीर्णा, पाठान्तरमिदम्, " प्रणेग - जाइ - जरा - मरण - जोणि ससार -- कलकली - भाव- पुणब्भवगब्भवास-वसहिपवचसमइक्का' त्ति अनेक जाति - जरामरण - प्रधाना
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