Book Title: Jain Agamo me Parmatmavada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 36
________________ (१९) एवेति भावार्थ , 'सर्वाकाशे' लोकालोकरूपे न माया, अयमत्र भावार्य - इह किल विशिष्टाह्लाद-रूप सुख गृहयते, ततश्च यत प्रारभ्य शिष्टाना सुख-शब्दप्रवृत्तिस्तमालादमवधीकृत्य एकैकगुणवृद्धितारतम्येन तावदसावाह्लादो विशिष्यते यावदनन्तगुणवृद्ध या निरतिशयनिष्ठा गत8, ततश्चासावत्यन्तोपमातीतैकान्तिकौत्सुक्यविनिवृत्तिरूपः स्तिमिततममहोदधिकल्पश्चरमाह्लाद एव सदा सिद्धाना भवति, तस्माच्चारात् प्रथमाच्चोलमपान्तरालतिनो ये तारतम्येनाह्लादविशेषास्ते सर्वाकाशप्रदेशराशेरपि भूयासो भवन्तीत्यत. किलोक्त-सव्वागासे ण माएज्ज' त्ति, अन्यथा प्रतिनियतदेशावस्थितिः कथ तेषामिति सूरयोऽभिदधतीति । हिन्दी-भावार्थ एक सिद्ध के कालिक सुख को भी एकत्रित करके यदि उसे अनत विभागो मे विभक्त किया जाए, तो उस का एक भाग भी सारे आकाश मे नही समा सकता। मूल पाठ * जह नाम कोइ मिच्छो नगरगुणे बहुविहे वियाणतो । न चएइ परिकहेउ उवमाए तहि असंतीए ।।१६।। सस्कृत-व्याख्या अस्य च वृद्धोक्तस्याधिकृतगाथाविवरणस्याय भावार्थः- य ए सुखभेदास्ते सिद्ध - सुखपर्यायतया व्यपदिष्टाः, तदपेक्षया तस्य क्रमेणोत्कृष्यमाणस्यानन्ततमस्थानवतित्वेनोपचारात्, तद्राशिश्च किलासद्भावस्थापनया सहस्र समयराशिस्तु शत, सहस्र च शतेन गुणित जात *यथा नाम कोऽपि म्लेच्छ नगरगणान् बहुविधान् विजानन् । न शक्नोति परिकथयित उपमाया तत्र असत्याम् ॥

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