Book Title: Jain Agamo me Parmatmavada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 35
________________ ( १८ ) मानकालेन पिण्डित - गुणित सर्वाद्धापिण्डित, तथाऽनन्तगुणमिति, तदेव - प्रमाण किलासद्भावकल्पनयैकैकाकाशप्र देशे स्थाप्यते इत्येव सकललोकालोकाकाशानन्तप्रदेशपूरणेनानन्त भवति, न च प्राप्नोति मुक्ति सुख - नैव मुक्तिसुखसमानता लभते श्रनन्तानन्तत्वात्सिद्धसुखस्य, विविध देवसुखमित्याह - अनन्ताभिरपि 'वर्गवगाभि.' वर्गवर्गर्वेगितमपि तत्र तद्गुणो वर्गो यथा द्वयोर्वर्गश्चत्वारः तस्यापि वर्गो वर्गवर्गों यथा षोडश एवमनन्तशो वर्गितमपि । चूर्णिकारस्त्वाह- अनन्तैरपि वर्गवर्गे - खण्डखण्डे खण्डित सिद्धसुख तदीयानन्तानन्ततमखण्डसमतामपि न लभते इत्यर्थं । ततो नास्ति तन्मानुषादीना सुख यत्सिद्धानामिति प्रकृतम । हिन्दी- भावार्थ देवताओं के त्रैकालिक सुख को एकत्रित कर के यदि अनन्त गुणा किया जाए, तो भी वह मुक्ति-सुख के ग्रनन्तवे भाग की समता नही कर सकता है । मूल पाठ * # सिद्धस्स सुहो रासी सव्वद्धापिण्डिओ जइ हवेज्जा | सोऽनतवग्गभइओ सव्वागासे ण माएज्जा ॥ १५॥ संस्कृत - व्याख्या सिद्धसुखस्यैवोत्कर्षणाय भङ्गयन्तरेणाह - ' सिद्धस्स' गाहा, सिद्धस्य मुक्तस्य सम्बन्धी 'सुख' सुखाना सत्को 'राशि' समूह. सुखसघात इत्यर्थ:, 'सर्वाद्धापिण्डित' सर्वकालसमयगुणितो यदि भवेद् श्रनेन चास्य कल्पनामात्रतामाह—–सोऽनन्त वर्गभक्तो - अनन्त वर्गापवर्तित सन् समीभूत * सिद्धस्य सुखो राशिः सर्वाद्धापिण्डितो यदि भवेद् । सोऽनन्त वर्गभक्त सर्वाकाशे न मायात् || ,

Loading...

Page Navigation
1 ... 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125