Book Title: Jain Agamo me Parmatmavada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 33
________________ (१६) विध शरीरो से रहित है, उन के आत्मप्रदेश सघन हे, पोलार से रहित है, दर्शन ओर ज्ञान के उपयोग से युक्त है, वे साकारोपयोग-ज्ञानोपयोग वाले है, तथा निराकारोपयोग-दर्शनोपयोग वाले है । यही सिद्धो का स्वरूप है । मूल पाठ * केवलणाणुवउत्ता जाणति सव्वभावगुणभावे । पासति सव्वओ खलु केबलदिट्ठोहि अणताहि ।।१२।। सस्कृत-व्याख्या ‘उवउत्ता दसणे य णाणे य" त्ति यदुक्त, तत्र ज्ञानदर्शनयोः सर्वविषयतामुपदर्शयन्नाह–'केवल' गाहा, केवलज्ञानोपयुक्ताः सन्त न त्वन्त करणोपयुक्ताः, भावतस्तदभावात्, जानन्ति सर्वभावगुण-भावान्, समस्तवस्तुगुणपर्यायान्, तत्र गुणा – सहवर्तिन', पर्यायास्तु-क्रमवर्तिन इति, तथा पश्यन्ति 'सर्वत. खलु' सर्वत एवेत्यर्थ केवलदृष्टि भिरनन्ताभि -केवलदर्शनैरनन्तरित्यर्थ , अनन्तत्वात् सिद्धानामनन्तविषयत्वाद्वा दर्शनस्य केवलदृष्टिभिरनन्ताभिरित्युक्तम्, इह चादो ज्ञानग्रहण प्रथमतया तदुपयोगस्थाः सिध्यन्तीति ज्ञापनार्थमिति । हिन्दी-भावार्थ सिद्ध भगवान केवल ज्ञानोपयोग से सब पदार्थों के गुण और पर्यायो को जानते है, एव अनन्त केवल-दर्शनोपयोग से सभी पदार्थो के गुण और पर्यायो को देखते है। * केवलज्ञानोपयुक्ता जानन्ति सर्वभावगुणभावान् । पश्यन्ति सर्वतः खलु केवलदृष्टिभिरनन्ताभि ||

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