Book Title: Jain Agamo me Parmatmavada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 31
________________ (१४) सस्कृत-व्याख्या अर्थते कि देशभेदेन स्थिता उतान्यथेत्यस्यामाशकायामाह-'जत्थ य' गाहा, यत्र च-यत्रैव देशे एक सिद्धो-नितस्तत्र देशे अनन्ता f म् ? -'भवक्षयविमुक्ता' इति भवक्षयेन विमुक्ता भवक्षयविमुक्ता', अनेन स्वेच्छया भवावतरणशक्तिमत्सिद्धव्यवच्छेदमाह । अन्योन्यसमवगाढा तथाविधाचिन्त्यपरिणामत्वाद्धर्मास्तिकायादिवदिति, स्पष्टा - लग्ना' सर्वे च लोकान्ते, अलोकेन प्रतिस्खलितत्वाद्, अतएव 'लोयग्गे य पइट्ठिया' इत्युक्त मिति । हिन्दी-भावार्थ सिद्ध-जीव भवक्षय (जन्म-मरण का नाश) के कारण मुक्त माने जाते है। जहा एक सिद्ध रहता है, वहीं अनन्त सिद्ध आत्माए निवास करती है। ये सब एक-दूसरे का अवगाहन कर रहे हैं, जिन प्राकाशप्रदेशो पर एक सिद्ध विराजमान हे, उन्ही पर अनन्त सिद्ध अवस्थित है। अनेक दीपको के प्रकाश जैसे एक-दूसरे के साथ रहते है, वैसे ही अनन्त सिद्ध-जीवो के आत्मप्रदेश परस्पर अवगाहन को प्राप्त हो रहे है। इस के अतिरिक्त, सभी सिद्धो के आत्मप्रदेश लोक के अन्त का स्पर्श भी कर रहे है। मूल पाठ * फुसइ अणते सिद्धे सव्वपएसेहि णियमसो सिद्धो। ते वि असखेज्जगुणा देसपएसेहिं जे पुट्ठा ॥१०।। * स्पृशति अनन्तान् सिद्धान्, सर्वप्रदेश. नियमतः सिद्ध. । तेऽपि असंख्येयगुणा. देशप्रदेश ये स्पृष्टा । -

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