________________
(९)
सस्कृत-व्याख्या अलोके प्रलोका काशास्तिकाये प्रतिहता -स्खलिता सिद्धा-मुक्ता', प्रतिस्खलन चेहानन्तर्यवृत्तिमात्र, तथा लोकाग्रे च पचास्तिकायात्मकलोकमूर्धनि च प्रतिष्ठिता-अपुनरागत्या व्यवस्थिता इत्यर्थ , तथा इहमनुष्यक्षेत्रे बोन्दि-तनु परित्यज्य तत्रेति लोकाने गत्वा सिझइ त्ति सिध्यन्ति निष्ठितार्था भवन्ति ।
हिन्दी-भावार्थ सिद्ध अलोक से प्रतिहत होते है, और लोक के अग्रभाग पर जा कर ठहरते है।
मनुष्य क्षेत्र मे शरीर छोडते है और लोकाग्रभाग पर सिद्धावस्था को प्राप्त होते है।
मूल पाठ * ज सठाण इह भवे, चयतस्स चरिमसमयम्मि । आसी य पएसघण, त सठाण तहि तस्स ॥३॥
सस्कृत-व्याख्या किञ्च-ज सठाण, गाहा व्यक्ता, नवर प्रदेशघनमिति त्रिभागेन रन्ध्रपूरणादिति हि' ति सिद्धि-क्षेत्रे 'तस्स' त्ति सिद्धस्येति ।
हिन्दी-भावार्थ सिद्ध आत्मा का इस मनुष्य क्षेत्र मे जो सस्थान (आकार) होता है, अन्तिम समय मे वह छोटा रह जाता है। छोटा हो
* यत्सस्थान मिहभवे, त्यजत चरमसमये ।
आसीच्च प्रदेशघन, तत्सस्यान तत्र तस्य ।।