Book Title: Jain Agamo me Parmatmavada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 21
________________ (४) मुक्त स्वय कृतभवश्व पराथशूर, स्त्वच्छासन-प्रतिहतेष्विह मोहराज्यम् ॥१॥ तथा च न विद्यते सगोमूतत्वाद्य स्य स तथा, तथा न स्त्री, नपुरुषो, नान्यथेति-न नपु सका केवल सर्वैरात्मप्रदेशै परि-समन्तात विशेषतो जानातीति-परिज्ञः, तण सामान्यत सम्यग् जानाति-पश्यति इति सज्ञा, ज्ञानदर्शनयुक्त इत्यर्थ । यदि नाम स्वरूपतो न ज्ञायते, मुक्तात्मा तथाप्युपमाद्वारेणादित्य गतिरिव ज्ञायत एवेति चेत् तन्न यत उपमीयते सादृश्यात् परिच्छिद्यते यया सोपमा-तुल्यता सा मुक्तान्मनस्तज्ज्ञानसुखयोर्वा न विद्यते,लोकातिगत्वात्तेषा, कुत एतदिति चेदाह-तेषा मुक्तात्मना या सत्ता सा अरूपिणी अरूपित्व च दीर्घादिप्रतिषेधन प्रतिपादितमेव । कि च न विद्यते पदम् – अवस्था विशेषो यस्य सोऽपद तस्य पद्यते-गम्यते येनार्थस्तत्पदम्-अभिधान तच्च नास्ति' न विद्यते वाच्यविशेषाभावात् तथाहि-योऽभिधीयते स शब्द-रूप-गन्ध-रसस्पर्शान्यतरविशेषेणाभिधीयते तस्य च तदभाव इत्येतद्दर्शयितुमाह-यदि वा दीर्घ इत्यादिना रूपादिविशेष-निराकरण कृतम्, इह तु तत्सामान्य-निराकरण कर्तु कामाह-स मुक्तात्मा न शब्दरूपः, न रूपात्मा, न गन्ध , न रस., न स्पर्ग । हिन्दी भावार्थमुक्तात्मा का स्वरूप बताने के लिए कोई भी शब्द समर्थ नही है । तर्क की वहा गति नही होती है । बुद्धि वहा तक जा नही सकती है। उसकी कल्पना नही की जा सकती है। वह मुक्तात्मा सकल कर्म रहित, सम्पूर्ण ज्ञानमय दशा मे विराजमान है। वह न लम्बा है, न छोटा है, न गोल है, न त्रिकोण है, न चौरस है, न मण्डलाकार है, न काला है, न नीला है, न लाल है। वह पीला और सफेद भी नहीं है। सुगन्ध और दुर्गन्ध

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