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आंतरिक सौंदर्य ... 427
सृष्टि और स्रष्टा एक हैं और अगर हम स्वयं भगवान ही हैं, तो फिर भगवान को पाने और खोजने की बात भी असंगत है! / खोज व्यर्थ है-यह बोध खोज-खोज कर थक जाने पर ही संभव / खोजने वाला जब चुक जाता है, तब विश्राम / खोजत खोजत हे सखी, रह्या कबीर हेराइ / परमात्मा खोजने वाले की अंतरात्मा है / जो अभी खोजने भी नहीं निकला है, वह थका नहीं है-वह रुक न सकेगा / जिसने पकड़ा ही नहीं, वह छोड़ेगा कैसे! / जब बाहर खोजने को कुछ नहीं बचता, तभी चेतना अंतर्गामी होती है / शास्त्र पढ़ कर ही उनकी व्यर्थता का बोध / गुरु और शास्त्र से नहीं मिलेगा-यह सदा से सदगुरु समझाते रहे हैं / ट्रेन पर चढ़ना भी पड़ता है, फिर उतरना भी पड़ता है / ज्ञान के पूर्व का अज्ञान / ज्ञान के गिर जाने के बाद का अज्ञान / कहीं न जाती चेतना स्वयं में प्रज्वलित हो उठती है / सीढ़ी पर चढ़ो-फिर ऊपर पहुंच कर सीढ़ी छोड़ दो / भोग के बाद त्याग; खोज के बाद विश्राम / भक्त का अपने ईष्ट-देव का दर्शन करना क्या परम ज्ञान की अवस्था है? / परम ज्ञान से पहले की अवस्था / भक्त और भगवान / परम अवस्था में न काली, नकृष्ण, न क्राइस्ट बचते / अद्वैत परम ज्ञान है / दृश्य और द्रष्टा दोनों खो गए, सिर्फ होश रह गया / रामकृष्ण की साधना काली और रामकृष्ण-केवल दो बचे / अद्वैत के गुरु ने कहा, तलवार उठाकर काली को काट डाल / भक्त की आखिरी हिम्मत / आखिरी छलांग-सीढ़ी भी छोड़ देना / मार्टिन बूबर की प्रसिद्ध किताब-आई एंड दाऊ / यहूदी, ईसाई और मुसलमान-आखिरी छलांग की हिम्मत नहीं करते / मंसूर की हत्या कर दी गई, क्योंकि वह अद्वैत की घोषणा कर रहा था / अद्वैत में छलांग के लिए द्वैत तक आना जरूरी/ भगवान की मूर्ति बनाना, उसकी पूजा करना, फिर एक दिन पानी में डुबा आना / बिना शरीर से सम्मिलित हुए क्या मन ही मन कीर्तन नहीं किया जा सकता? / अभी तुम्हारा शरीर और मन जुड़े हुए हैं / अभी तो शरीर से शुरू करें / प्रेम का और शराब का शरीर और मन दोनों पर प्रभाव / संत फरीद से एक जिज्ञासु का पूछना-जीसस को सूली लगी, मंसूर को टुकड़े-टुकड़े काटा गया / क्या उन्हें पीड़ा नहीं हुई / फरीद का उदाहरण-कच्चे नारियल और सूखे नारियल के खोल और गिरी की अवस्था / जीसस और मंसूर सूखे नारियल थे/कीर्तन में शरीर से सम्मिलित न होने के पीछे भय कारण है / दूसरे क्या कहेंगे? / मस्त आदमी से दुखी समाज ईर्ष्या करता है / एक पति ध्यान में मस्त होने लगे, तो पत्नी उन्हें पागल समझने लगी / आप शरीर में हैं, वहीं से शुरू करें / कुरूप स्त्री भी क्यों सुंदर पुरुष को पाना चाहती है? / कोई भी अपने को कुरूप नहीं मानता / स्वयं की कुरूपता का बोध-रूपांतरण का पहला चरण / अहंकार की कुरूपता / कुरूप व्यक्ति भी प्रामाणिक हो, तो एक आंतरिक सौंदर्य का जन्म / शरीर का सौंदर्य कोई महत्व का नहीं / शारीरिक सौंदर्य के बदलते हुए मापदंड सौंदर्य की अलग-अलग मान्यताएं-चीनी, अफ्रीकी, हिंदुस्तानी / भीतर का सौंदर्य ही असली बात है / मैं एक स्त्री के प्रेम में हूं, लेकिन वह मुझे प्रेम नहीं करती / उसे कैसे समझाऊं? / दो व्यक्तियों की धारणाओं का मेल होना बहुत मुश्किल है / प्रेम दो प्रेम मांगो मत / कृष्ण ने कहा, अर्जुन, तूने मेरा चतुर्भुज रूप देखा, यह अति दुर्लभ है / चार हाथ-काव्य-प्रतीक / परमात्मा हमें सब ओर से सम्हाले हुए है / विराटरूप देख कर अर्जुन बहुत घबड़ा गया है; अब उसे गहन प्रेम की सुरक्षा चाहिए / मां का ऐसा प्रेम जो इस जगत में भी रक्षा करे और उस जगत में भी / गर्भ में परम सुख में है बच्चा / मनोवैज्ञानिकों की मान्यता : गर्भ में अनुभव किए गए सुख का विस्तार है-मोक्ष की धारणा / शांति की आकांक्षा-गर्भ में मिले अनुभव के कारण / स्वर्ग में कल्पवृक्ष की कल्पना / आत्मघाती इच्छाएं / परमात्मा का चतुर्भुज रूप भक्त को ही उपलब्ध साधक को नहीं / साधक का सत्य-रूखा-सूखा / भक्त का अनुभव-काव्य का, प्रेम का, रस का / अरस्तू ने कहा है-परमात्मा परम गणितज्ञ है / मीरा के लिए परमात्मा परम नृत्य है / बुद्ध के लिए सत्य है-परम शून्य, शांति, मौन / महावीर के लिए चतुर्भुज रूप का कोई अर्थ नहीं है / भयभीत अर्जुन पूरे अस्तित्व को मां के रूप में देखना चाहता है। अनन्य भक्ति से चतुर्भुज रूप का अनुभव घटित / प्रेम में दूसरे पर भरोसा होता है / प्रेमी अपने को छोड़ सकता है / बोधकथाः नव विवाहित दंपति की जहाज-यात्रा; समुद्र में तूफान; वर निश्चित; सब परमात्मा पर छोड़ा है; जो होगा—मंगल ही होगा / पति, पत्नी, बच्चे–सबके प्रति जो प्रेम है उसकी गहराई ही प्रभु-प्रेम बनता है / कृष्ण कहते हैं, सारा प्रेम मुझे दे दे / प्रेम के सभी रूप प्रभु-प्रेम का स्मरण बन जाएं / तो स्वभावतः वैर-भाव न रह जाएगा / साधारणतः प्रेम टूटने पर घृणा बन जाता है / साधु-संतों की स्त्री-निंदा / कृष्ण कहते हैं, प्रेम इतना गहन हो जाए कि किसी के प्रति वैर-भाव न बचे / संसार से प्रेम को मत तोड़ना; संसार के प्राणों तक प्रेम को पहंचा देना।