Book Title: Ghasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Author(s): Rupendra Kumar
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
तीसरे दिन भगवान ने श्वेतपुर के राजा 'पुष्प के घर परमान्न (खीर) से पारणा किया ।
17
वहां से विहार कर चार मास के बाद भगवान उसी उद्यान में आये मादरवृक्ष के नीचे कार्योत्सर्ग कर कार्तिक सुदी तीज ३. के दिन मूल नक्षत्र में चार घनघाती कर्म को नष्ट कर केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त किया । देवों द्वारा समवशरण की रचना हुई । भगवान ने उपदेश दिया । भगवान का उपदेश श्रवण कर वराह आदि ८८ व्यक्तियों ने दीक्षा ग्रहण कर गणधर पद को प्राप्त किया । भगवान के परिवार में ८८ गणधर थे जिनमें मुख्य गणधर का नाम 'वराह' था । दो लाख २००००० साधु एवं एक लाख बीस हजार १२००००० साध्वियाँ थी । आठ हजार चार सौ ८४०० अवधज्ञानी थे । १५०० पंदरह सो चौदह पूर्वधारी । ७५०० सात हजार पांच सो मनः पर्ययज्ञांनी, ७५०० सात हजार पांचसो केवल शानो १३००० तेरह हजार वैक्रिय लब्धिवाले, २२९०००. दो लाख उन्नतीस हजार श्रावक और ४७२००० चार लाख बहोतर हजार श्राविकाएं थी ।
T
1
आयुष्यकाल की समाप्ति निकट आने पर भगवान समेतशिखर पर एक हजार सुनियों के साथ पधारे। यहाँ एक मास का अनशन कर कार्तिक कृष्णा नवमी को मूल नक्षत्र में अठ्ठाइस पूर्वांङ्ग और चार मास कम एक लाख पूर्व तक तीर्थङ्कर पद भोगकर मोक्ष पधारे ।
बाद
भगवान के निर्वाण के आद कुछ समयतक तो धर्मशासन चलता रहा, किन्तु बाद में हुण्डा अक्सर्पिणी काल के दोष से श्रमणधर्म विच्छेद हो गया । एक भी साधु न रहा । लोग वृद्ध श्रावकों से धर्में का स्वरूप जानते थे । भक्त गण वृद्ध आवकों की अर्थ-धन से पूजा करने लगे । इस प्रकार धीरे धीरे धार्मिक शिथिलता बढनेलगी यह शिथिलता भगवान श्रीशीतलनाथ के तीर्थ प्रवर्तन तक अनवरत रूप से चलती रही। इस काल में ब्राह्मणों का ही भरत क्षेत्र पर धार्मिक आधिपत्य रहा। इस प्रकार छ तीर्थङ्कर छ तीर्थकरों के [शितलनाथ से शान्तिनाथ के अन्तर में इसी प्रकार बीच बीच में तीर्थच्छेद होता रहा और मिथ्यात्व बढता रहा ।
१० भगवान श्री शीतलनाथ:
Jain Education International
4
पुष्करार्द्ध द्वीप के वज्र नामक विजय में 'सुसीमा' नाम की नगरी थी । वहाँ पद्मोत्तर नाम के राजा राज्य करते थे । उन्हें संसार की असारता का विचार करते हुए वैराग्य उत्पन्न हो गया । उन्होंने अस्ता नाम के आचार्य के समीप दीक्षा धारण की दीक्षा लेकर वे कठोर तप करने लगे। तीर्थङ्कर नामकर्म उपार्जन के बीस स्थानों में से किसी एक का आराधन कर उन्होंने तीर्थकर नामकर्म कां उपार्जन किया । अन्त समय में अनशन करके प्राणत नाम के देवलोक में उत्पन्न हुए । भद्दिलपुर नामके नगर में दृढरथ नाम के राजा राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम नन्दा था। पद्मोत्तर मुनि का जीव प्राणत कल्प से चवकर वैशाख कृष्णा छट के दिन पूर्वाषाढा नक्षत्र के योग में महारानी नन्दा के उदर में आया । उत्तम गर्भ के प्रभाव से महारानी ने चौदह महास्वप्न देखे । गर्मकाल के पूर्ण होने पर माघकृष्णा द्वादशी के दिन पूर्वाषाढा नक्षत्र के योग में श्रीवत्स के चिह्न से चिह्नित सुवर्णकान्ति वाले पुत्रको जन्म दिया । भगवान के जन्मते ही समस्त लोक में अत्यंत प्रकाश फैल गया । इन्द्रादिदेवों ने भगवान का जन्मोत्सव किया । बाद में दृढरथ महाराजा ने भी पुत्र जन्मोत्व किया । जब भगवान माता के गर्भ में थे तब दृढरथ राजा के शरीर में दाह, उत्पन्न हो गया था । अनेक उपचार करने पर भी वह शान्त नहीं हुआ । किन्तु महारानी के स्पर्श करते ही दाह रोग शान्त हो गया । इस लिये माता पिता ने अपने बालक का नाम 'शीतलनाथ" रखा अनेक धात्री देव और देवियों के संरक्षण में भगवान युवा हुए। उनका अनेक राजकुमारियों के साथ विवाह किया गया । दृढधर महा राजा शीतलनाथ कुमारको राज्य भार संभला कर संयमी व्रती बन गये । पचास हजार वर्ष तक अपने अतुल पराक्रम से राज्य
•
4
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org