Book Title: Ghasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Author(s): Rupendra Kumar
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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से अनेक लोग आने लगे । धर्म-ध्यान व्रत प्रत्याख्यान आदि की नवीन परम्परा प्रारंभ हुई । प्रतिदिन ब्याख्यान के समय महाराज श्री का उपदेश सुनकर लोग अन्तरमुख होकर विचार करने लगे। संवत्सरी के दिन तो इतने लोग इकट्ठे हुए कि कहीं नहीं मा सकता । फिर भी महापर्व अत्यन्त शान्तिपूर्वक और बडे उन्साह से मनाया गया
महाराणा श्री भूपालसिंहजी सा. ने मुनि श्री का उपदेश को समोर बाग के महल में श्रवण करने की भावना प्रगट की । तदनुसार मुनिश्री समोर बाग के महल में पधारे। करीब एक घन्टा उपदेश श्रवण करने के बाद महाराणा साहेबने आपको विविध धार्मिक प्रश्न किये। महाराजश्री ने उनका सुन्दर जवाब दिया । आपके प्रश्नों के जवाब और उपदेश सुन महाराणाजी बडे प्रसन्न हुए । गतवर्ष की अपेक्षा उदयपुर का यह भव्य चातुर्मास अविस्मरणी रहेगा । चातुर्मास समाप्ति के बाद आपने विहार कर दिया । हजारों स्त्री पुरुषों ने दूर तक विहार में साथ चलकर अपनी श्रद्धा का परिचय दिया।
विहोर कर आप आयड (गंगुभे) राजकीय स्मशान स्थान पर कोठारीजो की वाडी में गत वर्ष की तरह इस वर्ष भी वहीं बिराजे । गंगूभेका स्थान ऐतितासिक स्थान है । महाराणा प्रताप के पुत्र राणा श्री अमरसिंहजी से लेकर अभी तक जितने भी राणा हुए उन सब की यहो अन्त्येष्ठी क्रिया की गई थी। मेवाड रक्षक दानवीर भामशाह की छत्री भी यहीं पर बनी हुई है । राणा परिवार सामन्त परिवार आदि राजकीय पुरुषों की अन्त्येष्ठी के स्थान पर विविध स्मारक बने हुए हैं । महाराजश्री इसी स्थान के समीप कोठारीजी की वाडी में विराजकर उपासकदशांगसूत्र की अधूरी टीका को पूर्ण की और वहां से विहार करके बेदला पधारे।
बेदलांगांव के बाहर कुण्ड की धर्मशाला में मुनिश्रीजी विराजे हुए थे । पं. मुनिश्री समीरमलजी महाराज एवं पं. श्री कन्हैयालालजी महाराज दोनों जंगल गये । वहां एक खटीक भेड-बकरों को चरा रहा था । सभी जानवर मृत्यु के घाट जाने के लिए थे । दोनों मुनियों ने पं. श्री घासीलालजी महाराज के पास जाकर निवेदन किया । उस समय मेवाड के दिवान श्री बलवन्तसिंहजी सा. कोठारी दर्शनार्थ आये हुवे थे । मुनिश्री ने उन जानवरों को अभयदान देने का संकेत किया । दीवानजी ने अपने कामदार को आज्ञा दे कर उन८०जानवरों को छुडाकर अमरशाला में भेज दिये ।
गर्मी के दिनों में पं. मुनिश्री जी घासीलालजी महाराज सेरा प्रान्त में विचरने के लिए अपनी मुनि मण्डली के साथ पधारे । गोगुन्दा के सुप्रसिद्ध श्री छगनलालजी सेठ मुनिश्री को प्रथम गृहस्थ अवस्था से ही जानते थे । दीक्षा के बाद भी मुनिश्री में उनकी प्रगाढ श्रद्धा थो । सं०१९८९ का चातुर्मास गोगुन्दा हो ऐसा वे मुनिश्री से बहुत समय से आग्रह करते रहें । उन्हों की प्रेरणा से गोगुन्दा श्री संघ कईबार बहुत बडी संख्या में स्थान स्थान पर विनंती करने को जाते रहे । अन्त में गोगुन्दा से लगभग ५०-६० व्यक्ति जब नान्दिसमा ग्राम जाकर अत्याग्रह किया तो मुनि श्री ने चातुर्मास की स्वीकृति पूज्यश्री जवाहरलालजी महराज की आज्ञा प्राप्त हो जाने पर देदी।
श्री छगनलालजी सेठ को अपनी इच्छा पूर्ति से बडी प्रसन्नता हुई । वे वहां से घर जा कर फिर एक देवालय पर गए। वहां शहद को (मधु) मखियां किसी के द्वारा छोड़े जाने पर सेठ छगनलालजी पर टूट पडी । उनके काटे लग जाने से वे दो तीन दिन में हि अपनी मधुर भावना को लेकर सदा के लिए चल बसे, उनके पुत्र परसरामजी सेठ जो पश्चिम रेल्वे में T.T.E है पूज्य श्री श्री सेवा का लाभ अन्तिम अवस्था तक खूब लेते रहें । १९-८९ का चातुर्मास गोगुन्दा में
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