Book Title: Ghasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Author(s): Rupendra Kumar
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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हुआ | आपने रात्रिभोजन के दूषणों का वर्णन करते हुए फरमाया - रात्रि का भोजन, अन्धों का भोजन है । केवल जैन धर्म ही नहीं संसार के सभी धर्म रात्रिभोजन का निषेध करते हैं । महाभारत के ज्ञान पर्व में कहा है
उलूक काक मार्जार-गृद्धशम्बर शूकराः अहि वृश्चिक गोधाश्च, जायंते रात्रिभोजनात् ॥१५॥ रात्र भोजन करने से जीव उल्लू कौवे विल्ली गिद्ध, सांभर, सर्व बिच्छू आदि योनियों में जन्म लेते हैं । मार्कण्डपुराण में तो यहां तक कहा है कि
नोदकमपि पातव्यं, रात्रावत्र युधिष्ठर ! तपस्विनां विशेषेण, गृहीणां च विवेकिनाम् ॥ युधिष्ठर ! विशेष कर के तपस्वीयों को तथा विवेकियों को रात्रि में जल-भी नहीं पीना चाहिए तो फिर रात्रि भोजन के लिए तो कहना हि क्या ? आज के युग के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ महात्मा गान्धी भी रात्रि भोजन को अच्छा नहीं समझते थे । करीब ४० वर्ष से जीवन पर्ययन्त रात्रि भोजन के त्याग के के व्रत को गान्धीजी बडी दृढता से पालन करते रहे । यूरोप में गये तब भी उन्होंने रात्रि - भोजन नहीं किया । धर्म शास्त्र और वैद्यक शास्त्र की गहराई में न जाकर यदि हम साधारण तौर पर होने वाली रात्रि भोजन की हानियों को देखे तब भी वह बडा हानि पद ठहरता है । भोजन में कीडी (चिउंटी) खाने में आ जाय तो बुद्धि का नाश होता है, जं खाई जाय मो जलोदर नामक भयंकर रोग हो जाता है । मक्खी चली जॉय तो वमन हो जाता है, छिपकली चली जाय तो भयंकर कोढ हो जाता है । शाक आदि में मिलकर बिच्छू पेट में चला जाय तो तालू को भेद डालता है । बाल गले में चिपक जाय तो स्वर भंग हो जाता है । इत्यादि अनेक दोष रात्रि भोचन में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होते हैं ।
संसार में छोटे छोटे बहुत से सूक्ष्म जीव जन्तु होते हैं जो दिन में सूर्य के प्रकाश में तो दृष्टि में आ सकते हैं परन्तु रात्रि में तो वे बिलकुल हि दिखाई नहीं देतें । रात्रि में मनुष्य की आंखे निस्तेज होती हैं । वे सूक्ष्म जीवों कों बराबर देख नहीं पाती । अतएव वे सूक्ष्म जीव भोजन में गिर कर जब जब दांतों के तले पिस जाते हैं और अन्दर पेट में पहुंच जाते हैं तो बडा ही अनर्थ करते हैं । रात्रि भोजन के समय जहरीले जीव जन्तु के पेट में पहुंचने से अनेकों की मृत्यु के उदाहरण मौजूद है । धर्म की दृष्टि से एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से रात्रि भोजन हानि प्रद ही सिद्ध हुआ है । पेट की खराबियां प्रायः रात्रि भोजन से ही होती है । अतः प्रत्येक मानव मात्र का कर्तव्य है कि वह रात्रि भोजन का सर्वथा त्याग करें
।
न रात्रि में भोजन बनावे और न खावें ।
इस प्रवचन का असर व्यासजो पर पडा और आपने सदा के लिए रात्रि भोजन का त्याग कर दिया । गांव वालों ने भी हिंसा न कर ने की प्रतिज्ञा की और पढा लिखकर महाराज श्री की सेवा में भेट किया । यहां श्रीमान् जगन्नाथजी दाहिमा ब्राह्मण स्कूल में शिक्षक थे । इन्होने भी महाराज श्री की बडी सेवा की । प्रात: होते ही १५ एप्रील को महाराजश्री ने अपनी मुनि मण्डली के साथ विहार कर दिया । आठ मील का विहार कर आप जोरावपुर पधारे । आहार पानी करके करीब चार बजे पुनः विहार कर दिया । कुछ सन्त तो दिन ही में खोंवसर गांव में पहुंच गये थे । तपस्वीजी श्री सुन्दरलालजी महाराज के धीरे धीरे चलनेके कारण महाराजश्रीजी एवं श्रीं समीरमलजी महाराज ठाने तीन गाम
से एक मील दूर जंगल एक वृक्ष के नीचे ही तालाब के किनारे रात्रि निवास किया ।
चैत्र शुक्ला १३ ता, १६ अप्रेल को प्रातः विहार कर महाराज श्री जी खींवसर पधारे । यहां लघु तपस्वीजी श्री मांगीलालजी महाराज के तेले का पारणा हुआ । मध्याह्न के समय महाराज श्री का सार्वजनिक प्रवचन हुआ । यहां श्रावकों के करीब १५-१६ घर हैं । धार्मिक लगन अच्छी है । महाराज श्री
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