Book Title: Ghasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Author(s): Rupendra Kumar
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 454
________________ ४२३ श्रावक वर्ग पूज्यश्री के दर्शन के लिए आता था और अपने को धन्य मानता था । १६ वर्ष से आप सरसपुर में बिराजकर निरंतर साहित्य निर्माण का कार्य करते रहे । ८८ वर्ष की अवस्था में भी आपकी अप्रमत्त अवस्था को देखकर आश्चर्य होता था । तपस्वीजी श्री मदनलालजी महाराज अपने जीवन के अन्तिम समय तक बराबर निष्ठापूर्वक आपको सेवा करते रहें । मगज को अस्थिरता का दौरा कभी कभी हुआ करता था । छेले समय में भी उन्हें यही दोरा हो गया फिर भी आपने अंतीम अवस्था में तीन दीन चौविहार उपवास कर ता. १७-४-७२ को स्वर्गवास हो गये । तपस्वीजी के स्वर्गवास से आपके हृदय को अत्यन्त आघात लगा । क्योंकि तपस्वीजी का गुरुदेव पर अथाग प्रेम था । पूज्य श्री के प्रत्येक कार्य में ये बडी निष्ठा के साथ सहयोग प्रदान करते रहते थे। उनके अचानक स्वर्गवास से पूज्यश्री के हृदय में अत्यंत दारुण वेदना होती थी । संसार की स्थिति विचित्र है । सुख दुःख हर्ष शोक के चक्कर फंसे हुए प्राणी क्षण क्षण में विपरित अनुभव करते रहते हैं । शरीर की क्षणभंगुरता का अनुभव कर पूज्यश्री ने अपने मन को शांत किया । समयज्ञ पं. मुनिश्री सतत सेवा में लीन थे हि । पूज्यश्री का शरीर दिन बदिन कमजोर होता जाता था फिर भी मनोबल बडा हिम्मतवान था । चलने फिरने की शक्ति कम होती गई फिर भी पन्द्रह दिनों में तेले तो चालू हि थे । बहुत बार मुनिश्री विनंति करते तो भी अपने ध्येय से कभी पीछे न हटे । अत्यन्त कमजोरी देखकर डॉ. का उपाय भी करने में श्रीसंघ ने कमि न रखी । बरडियाजी सा० का सारा परिवार सोलह वर्ष से सेवा करने में हर तरह कटीबध थे । पूज्यश्री के परमभक्त महानसेवा भावी श्रीरसीकलालभाई शाह जिन्होंने पूज्य आचार्य महाराज कि सेवा में व शास्त्रों के कार्य में सदा तन मन धन से संलग्न रहते हैं । गीरधरनगर के सेठ श्रीरमणलालभाई जीवराजभाई शास्त्रो के तत्व के अच्छे रसीक हैं। उनका सारा परिवार महाराज श्री का कृपा पात्र है । इन्होंने भी खूब उपचार करवाये फिर भो कुछ जोर नहीं चला । सेठ श्री भोगीलालभाई और उनका परिवार तथा सरसपुर श्री संघ तो अपूर्व सेवा बजा हि रहा था। सारा अमदाबाद आदर्श भावना वाला है। साधु साध्वीजी सतत सेवा में पधारते रहते थे । सरसपूर एक भव्य तीर्थधाम जैसा लगने लगा । १-१-७३ आचार्यश्री के शरीर में ज्वर का प्रारम्भ हो गया । यह समाचार वायु की गति से अहमदाबाद में फैल गये । महाराज श्री की व्याधि का पता चलते ही यहाँ के श्रीसंघ के सर्व आगेवान श्रावकगण बडे डॉक्टर को लेकर पूज्यश्री की सेवा में पहुँच गये। डॉकटरों ने पूज्य श्री की शांरीरिक गम्भीरता को देख उन्हें ऑक्सीजन पर रखना उचित समझा । तत्काल ऑक्सीजन की व्यवस्था कि गई । आचार्य श्री कि इच्छा न होने पर भी अनेक प्रयत्न करने बाद भी यह प्रयत्न फलदायी न हो सका । अवस्था सुधरने के बजाय उत्तरोत्तर बिगडती गई । ऐसी भयानक वेदना के समय भी आचार्यश्री के मुख पर अपार शान्ति एवं सोम्यता के दर्शन होते थे । घबराहट बढती जाती थी किन्तु आंखों में एक अलौकिक दिव्यता प्रतीत होती थी । वही लौ थी जो दिये बुझने के पूर्व एक बार पूर्ण प्रकाश के साथ जल उठती है । ता० १-१-७३ को पं० मुनिश्री ने पूज्यश्री से पूछा । आप श्री के दिल में जो भी भावना हो सो फरमादें । दिलमें न रह जाय । तब पूज्य श्री ने फरमाया कि यह शास्त्रों का कार्य जो चल रहा है वह अधूरा न रह जाय ? मुनिश्रीने अर्ज कि की आप निश्चिन्त रहें कार्य सम्पूर्ण करने का प्रयत्न करेंगे। मुनि श्री ने कहा कि आपश्री हमको छोड़कर कहां पधार रहें हों ? तव बोले कि छठे स्वर्ग में कब ? रात्रि में इस प्रकार आचार्यश्री की इस अवस्था को देखकर पं० मुनिश्री कन्हैयालालजी महाराज ने पूज्य श्री से पूछा “क्या आपको संथारा करवा दें" इस पर पूज्यश्री ने हकारात्मक उत्तर दिया । इस पर श्री संघ से पूछकर पूज्यश्री को यावज्जीवन का चौविहार संथारा करा दिया | मुख पर तेज चमक रहा था । उस समय वे त्याग मुर्ति बनकर उत्थान मार्ग में लग रहे थे । संथारा अंगीकार करने के छह सात दिन पूर्व ही आपने अन्नाहार का त्याग कर दिया था । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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