Book Title: Ghasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Author(s): Rupendra Kumar
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 462
________________ ४३१ पावन जीवन युग युगान्तर तक मुमुक्षु जीवों का मार्गदर्शक बना रहेगा। मुनि कन्हैयालाल कमल टोंक (राजस्थान) श्री बर्द्धमान स्था. जैनसंघजोधपुर (राज.) श्रीमान् प्रमुख सा. । सरसपुर उपाश्रय, हमारे यहाँ पर प्रातः स्मरणीय बालब्रह्मचारी महामहीम आचार्य प्रवर श्री श्री १००८ पूज्य श्री हस्तीमलजी म. सा. आदि ठाना ६ सुख शान्ति पूर्वक विराजमान है । जैनागम विशारद परम पूज्य श्री १००८ श्री घासीलालजी महाराज सा. का अल्पकाल की अस्वस्थता के बाद संथारे पूर्वक स्वर्गवास के समाचार जानकर चतुर्विध संघ को महान् खेद हुआ । दिनाङ्क ४।१।७३ को व्याख्यान बन्द रहा । एवं जैन स्थानक घोडों के चौक जोधपुर में शोक सभा मनाई गई। शोक सभा में सर्व प्रथम श्रध्देय आचार्य श्री ने उपस्थित श्रावक संघ के समक्ष पूज्यश्री घासीलालजी म. सा. के शान्त-दान्त तपस्वी जीवन पर प्रकाश डालते हुए श्रद्धाज्जलि अर्पित की । और उपस्थित सभी ने चार लोगस्स का निर्वाण कायोत्सर्गकर स्वर्गीय आत्मा के चिर शान्ति की कामना की। पूज्य आचार्य श्री घासीलालजी महाराज सा जैसे महान स्थविर के स्वर्गवास से श्रमणसंघ की एक महान विभूति उठ गई है जिसकी निकट भविष्य में पूर्ति सम्भव प्रतीत नहीं होता। स्वर्गस्थ पूज्यश्री का अहिंसा प्रेम, साधनाशील जीवन और श्रुतसेवा की प्रबल लगन आदि सद्गुणों को श्रध्देय पूज्य आचार्य श्री आदि मुनि मण्डल भूल नहीं सकतें । स्वर्गस्थ पूज्य श्री अमर शान्ति के अधिकारी हो यही हार्दिक कामना है । मन्त्री स्था. श्रा. संघ जोधपुर आगमोद्धारक महापुरुष का स्वर्गवास हमारे यहाँ पूज्य बहुश्रुत श्री १००८ श्री समर्थमलजी महाराज सा० के सुशिष्य श्री वीरपुत्रजी म० (श्री धेवरचन्द्रजी महाराज सा.) पं. मुनि श्री रतनचन्द्रजी महाराज सा. आदि ठाना ४ विराजमान हैं। ता० ५।१।७३ को प्रातः काल श्री बादरमलजी सा० अन्याव से यह मालूम हुआ कि अहमदाबाद में पूज्य आचार्य श्री श्री १००८ श्री घासीलालजी महाराज सा० का संथारा पूर्वक स्वर्गवास हो गया । यह सुनकर हृदय को बडा आघात लगा । व्याख्यान तो बन्द रखा गया किन्तु श्री वीरपुत्रजी म. सा० ने पूज्य श्री के जीवन के सम्बन्ध में फरमाया कि पूज्जश्री घासीलालजी म. सा. अपने समय के अद्वितीय व्याख्याता, महाप्रतिभाशाली महान ज्योतिर्धर पूज्य श्री जवाहराचार्य के पाटवी ज्येष्ठ शिष्य थे । आपने छोटी उम्र में दीक्षा ली और ज्ञानाभ्यास में तल्लोन रहने लगे । मनोयोग पूर्वक एकाग्रता के साथ पूर्ण परिश्रम करके आप संस्कृत प्राकृत आदि सोलह १६ भाषा के धुरन्धर विद्वान बने । स्थानकवासी जैन समाज की मान्य आगम बत्तीसी पर अब तक स्थानकवासी मान्यता के अनुरूप संस्कृत टीका नहीं थी। इसलिए आपने बत्तीस ही आगमों पर संस्कृत में टीका लीखी । यह स्थानकवासी समाज के लिए महान् गौरव का विषय हैं । इस भगीरथ प्रयत्न को सम्पूर्ण पार पहुँचाने के कारण आपको आमोद्धारक कहना सर्वथा उपयुक्त है। इतने बड़े ज्ञानी होते हुए भी आपको किञ्चित मात्र भी अभिमान नहीं था । इसी कारण जब कहीं शास्त्रों का गूड रहस्य समझमें नहीं आता तो आप पूज्य बहुश्रुतजी म० सा० से समाधान प्राप्त करते थे, श्री बहुश्रुतजी म. सा. के समाधान से आपको पूर्ण सन्तोष हो जाता था । इसलिए श्री बहुश्रुतजी म. सा. के प्रति आपकी गाढ़ श्रद्धा थी अतएल आप बहुश्रुत श्री समर्थमलजी म. सा. को श्रुतकेवली' कहकर पुकारते थे । आप श्री बहुश्रुतजी महाराज सा० से उम्र में और दीक्षा में काफी बडे थे। फिर भी आप उनके प्रति बहुभान पूर्वक भक्तिभाव और श्रद्धा रखते थे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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