Book Title: Ghasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Author(s): Rupendra Kumar
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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लालजी कायस्थ आदि ने भी महाराजश्री से पांच तिथियों में शीलन्त्रत रखने का प्रण किया । महाराजश्री जहाँ भी पधारते अपने प्रभावशाली प्रवचन से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते हि थे । आपके प्रवचन से पत्थर दिल भी मोम बन जाता था ।
३ जून को आपने यहां से प्रातः विहार कर दिया । आपने नौ मील का विहार किया और आप सादीपल्ली नामक स्टेशन पर पधारे । यहां आपका प्रवचन हुआ। स्टेशनमास्टर रघुनाथजी, बाबू भगवानदासजी आदि ने पांच तिथियों में शीलवत पालने का नियम लिया । कुछ राजपूतों ने एवं मुसलमान भाईयों ने जीवहिंसा, शराब एवं मांस न खाने का प्रण किया । नाई और जाटों ने भी आपके प्रवचन से प्रभावित हो जीव हिंसा का त्याग किया। ___यहां से आपने ४ जून को प्रातः विहार किया और ७ सात मील का विहार कर आप जमराव जक्शन पधारे । स्टेशन पर ही आप बिराजे । व्याख्यान में सैकड़ों की संख्या में जनता उपस्थित हुई । “मित्ति मे सव्व भूएषु" इस विषय पर प्रवचन देते हुए फरमाया । दूसरों के लिए अपने सुख को बलिदान करने की प्रेरणा आपको जिस अनुभूति से प्राप्त होती है उसे करुणो कही जाती है । दूसरों के सुख में सुखी होना मैत्री है तो दूसरे के दुःख में दुखी होना करुणा है । मैं आप से एक बात पूछ लूं-"आप दूसरे के दुःख से दुखी होते हैं या दूसरे के सुख से दुखी होते हैं । दूसरे के दुःख में यदि आपको पीडा हो रही है तो समझलो आपके हृदय में मानवता का दीपक जगमगा रहा है । पर आज उलटी गंगा बह रही है । आज का मानव दूसरे के सुख से दुखी हो रहा है । दूसरे के आनन्द और उत्कर्ष को देख कर यदि हृदय में चूमन होती है तो याद रखीए हृदय में शैतानियत बोल रही है । आज सर्वत्र यह वृत्ति काम कर रही है। जब हृदय दूसरों को कष्ट में देखकर स्वयं पीडा का अनुभव करने लगे तब समझना मानवता आई है, क्योंकि दुसरों का दुःख अपना दुख तभी बन सकता है जब कि हृदय में विशालता हो । विचारों में पवित्रताहो । पवित्र हृदय के व्यक्ति की विचार धारा कितनी उदात होती है। एक पंक्ति में कवि बोल
"दयामय ऐसी मति हो जाय । टैक ॥ अपने सब दुःखों को सहलु, किन्तु पर दुःख देखान जाय ॥ दयामय ० "
यह सन्त हृदय के स्वर हैं । वे कहते हैं-प्रभो ! एसा हृदय हो कि अपना दुःख तो मैं हंसते हंसते सहसकूँ पर दूसरों का दर्द सह न सकूँ । हृदय की यह विशालता ही जीवन का आदर्श
, उपदेश नहीं आचरण चाहती है । करुणा के दो बून्द सूखे जीवन में हरियाली की बहार ला सकती हैं । करुणा, मैत्री जीवन का आनन्द का झरना हैं । निर्दय हृदय सूकी रेत है जहां स्नेह और सहानुभूति की सरलता और तरलता का अभाव है । जीवन का माधुर्य सहृदयता में रहता है । जिस दिन प्राणी के हृदय से दया और स्नेह की सरीता सूख जायेगी उस दिन संसार नरक हो जायगा । करता जीवन का कलंक है तो करुण जीवन का माधुर्य हैं । पहिले में विद्वेष की आग है तो दूसरे में शान्ति को स्वर है,। एक में जीवन का अंधकार है तो दूसरे में आत्मा का प्रकाश है । दया व करुणा ही धर्म का मूल है । सन्त तुलसीदासजी ने भी कहा है
दया धर्म का मूल है पाप-मूल अभिमान । तुलसी दया न छोडिए, जब लगि घट में प्राण ॥
इस प्रकार आपने करीब डेढ़ घंटे तक विश्व मैत्री करुणा और दया पर प्रवचन दिया । प्रवचन का प्रभाव जनता पर स्पष्ट लक्षित हो रहा था । प्रवचन समाप्त होते ही श्रीमान् अग्रवाल लखीरामजी ने एवं उनके छोटे भाई हजारीमलजी ने महिने की पांच तिथियों में रात्रि भोजन एवं हरिलीलोत्री का त्याग किया । तथा इन दोनों भाईयों ने शीलवत पालने का नियम लिया । टिकीट बाबू राजपूत सरदार फतेसिंहजी ने
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