Book Title: Ghasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Author(s): Rupendra Kumar
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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और रंक धनी और निर्धनी वृद्ध एवं बालक, तपस्वी व भोंगी, निरोगी व रोगी संसारी व संयमी स्त्री और पुरुष सर्व कोई कर सकते हैं । सीता और अंजना का जंगल में कौन साथी बना । द्रोपदी के चीर किसने बढाये ! सती सुभद्रा का गोरख कायम रखने में, चम्मा के द्वार खोलने में सहायक कोन बने ? अर्जुन का यश किसने कायम रखा । सतो कलावतो के हाथ कट जाने पर पुनः हाथ किसने लगाये । इन सबका जवाब होगा ईश्वर भक्ति की दिव्य शक्ति ने। मनुष्य जानता हुआ भी अपने मार्ग को भूल रहा । अपनी सत्ता व सुख बढाने इधर उधर भटकते फिरते हैं परन्तु यह नहीं जानता कि वह शक्ति मेरे पास मौजूद है । तो रोटी के मौजूद होते हुए भी क्यों भूखा मरूं, भरे सरोवर के होते हुए भी क्यों प्यासा मरूं ? अपनी वस्तु को लेते हुए कोई रोक सकता है ? ऐसा करने की किसी में भी ताकत नहीं । हम खुद ही भूल भुलैया में पड़े हुए हैं। हम संसार के मोह माया में फसना जानते हैं किन्तु माया के इस बन्धन को तोडना नहीं जानतें । शिकारी एक ओर जाल बिछाकर दूसरी ओर उन्हे मारने के लिए दोडता है । मृग शिकारो से बचने के लिए खुद इधर उधर दौडता है । मार्ग होते हुए भी भय से वह भ्रान्त हो जाता है और जाल को ही अपने त्राण का स्थान मानकर उसी की ओर दौडता है और जाल में फस जाता है। जाल से बच निकलने को शक्ति होते हुए भी यह भोला प्राणी अपनो इस शक्ति से अज्ञात रहता है और कुशलता पूर्वक जाल से बच निकलने के बजाय
और भी अधिक जाल में फस जाता है । यही स्थिति आज हमारी हो रही है । हम यह जानते हैं कि ईश्वर भजन व नाम स्मरण ही अशान्ति, दुःख, रोग, शोक रूप पारधी के जाल से मुक्त होने का मार्ग है और यह हमारे लिए खुला है । फिर भी वह इसी जाल में फसता चला जा रहा है । आत्मा में अनन्त शक्ति है अगर वह चाहे तो एक ही क्षण में संसार में फसाने वाले विषय कषाय, राग, द्वेष मिथ्यात्व, हिंसा. झूठ चोरी, मैथुन परिग्रह आदि के जाल से मुक्त हो सकता है । सज्जनों ईश्वर नाम में अपार शक्ति है । इसकी गहनता ज्ञानी के सिवाय अन्य कोई नहीं जान सकता । मैंने पहले भी कह दिया था कि पुरातन काल
कभी संकट मालूम होता तो वे ईश्वर भजन करते थे और सारे देश को संकट से मुक्त करते थे।
श्री शान्तिनाथ भगवान के जन्म के पूर्व जब वे अपनी माता के गर्भ में स्थित थे तब विश्वसेन राजा के देश में सर्वत्र महामारी ओर मृगो का भयंकर रोग फैल गया था । जिधर देखो उधर सर्वत्र हाहाकार हि हाहाकार दृष्टि गोचर होता था । मृतकों के ढेर स्मशान में पड़े रहते थे उन्हें जलाने के लिए कोई व्यक्ति नहीं मिलला था । इस भयंकर आपत्ति से त्राण पाने के लिए सभी देवी देवताओं को पूज चुके थे। और जो कुछ भी जिस किसी ने कहा वह लोगोंने किया किन्तु वे लोग ईस महामारी से अपने आपको, देश को नहीं बचा सके । तब सर्वने बिचार किया कि इस संसार में प्रजा के दुःख को दूर करने के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करने वाले राजा ही है । अतः हमें महाराजा के पास जाकर अपने संकट की कहानी सुनानी होगी। यह सोच कर नगर को प्रजा राजा के पास पहुंची और अश्र भोनी आखों से अपनी दर्द भरी कहानी राजा को सुनाई और महामारी से मुक्ति दिलवाने के लिए प्रार्थना की। प्रजा की प्रार्थना को सुन कर राजा का दयाई हृदय पिघला और प्रजा को आश्वासन देते हुए बोला-प्रजाजनों मैं आपको इस बिमारी से मुक्ति दिलवाने का अवश्य प्रयत्न करूंगा और जबतक आपका दुःख दूर नहीं होगा तबतक मैं अन्न जल भी नहीं ग्रहण करूंगा । प्रजा भी राजा के इस आश्वासन से आस्वस्थ हुई । इधर महाराजा उसी क्षण एकान्त में जाकर कायोत्सर्ग पूर्वक ईश्वर के ध्यान में लीन हो गया। और प्रभु से प्रार्थना करने लगा कि हे भगवन ! हे प्रभो ! आप हमारे रक्षक हैं। आप अपने दिव्य ज्ञान द्वारा हमारे दुःख को देख व मुझे वह शक्ति प्रदान कर कि जिससे मैं देश को इस महामारी से मुक्त करूं । इस प्रकार की भावना में तल्लीन हो गया । उस समय महाराणी भी महाराजा के पास आ पहुंची । महाराज को ध्यानस्थ देख वह भी प्रजा के दुःख को
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