Book Title: Ghasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Author(s): Rupendra Kumar
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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धन्य माना । स्थानीय श्रावकों ने कुचेरा में चातुर्मास करने की प्रार्थना की । श्रावकों की तीव्र भावना देखकर आपने चातुर्मास की स्वीकृति कुचेरा में करने की दे दी।
कुचेरा से आप विहार कर पार्श्वनाथ फलौदी पधारे । वहां से आप विहारकर बलुंदा आये । बलंदा के प्रसिद्ध दानवीर सेठ छगनमलजी मूथा (वेगलोर निवासी) ने आपकी बडी सेवा की । इनके आग्रह से आप कुछ दिन बलुन्दा में बिराजे और श्रावकों को प्रवचन पीयूष का पान कराते रहें । बलुन्दा से विहार करते हुए आप मारवाड के आस पास के क्षेत्रों को पावन कर चातुर्मासार्थ कुचेरा पधारे । वि. सं. १९९१ का चातुर्मास कुचेरा
सेमल का चातुर्मास पूर्ण करके आपने अपने मुनिवृन्द के साथ मारवाड की ओर विहार कर दिया। विहार के समय मध्यवर्ती छोटे बडे स्थानों में आपका अहिंसा धर्म का प्रचार बराबर चलता रहा । सर्वत्र आपके जाहिर प्रवचन होने लगे । अनेक जागिरदारों ने ठाकुरों ने राजपूतों ने आपके प्रवचन से प्रभावित हो जीवहिंसा, शिकार, मद्यपान, जुआ, परस्त्रीगमन आदि दुर्व्यसनों का त्याग किया ।
मारवाड प्रान्त में विहार करते समय कुचेरा का संघ कई बार महाराज श्री की सेवा में उपस्थित हुआ और अपने यहां चातुर्मास करने को विनती की । कुचेरा संघकी तीव्र भक्ति-भाव को देखकर महाराज श्री ने कुचेरा क्षेत्र में चातुर्मास करने की स्वीकृति फरमा दी चातुर्मास की स्वीकृति से संघ को बडा आनन्द हुआ ।
इस प्रकार आप मारवाड के विभिन्न क्षेत्रों को पावन करते हुए आप पण्डित श्री मनोहरलालजी बायज महान तपस्वी योगनिष्ठ मुनि श्री सुन्दरलालजी महाराज शास्त्राभ्यासी मुनिश्री समीरमलजी महाराज प्रिय ब्याख्यानी पं. श्री कन्हैयालाल जी महाराज, तपस्वी मुनिश्री केशुलालजी महाराज, वैयावृत्ति मनिश्री मंगलचन्दजी महाराज, लघु तपस्वी मुनिश्री मांगोलावजी महाराज आदिठाणा के साथ कुचेरा में चातुर्मासार्थ प्रवेश किया । प्रखर विद्वान पण्डित प्रवर मुनि श्री के चातुर्मास से स्थानीय संघ में जो उत्साह दृष्टि गोचर होता था वह अभूत पूर्व था ।
यहां के संघ के अग्रणी श्रीयुत सेठ मोहनमलजी सा. सेठ मोतीचन्दजी, कालूरामजी, भेरुबगसजी, श्री जबरचन्दजो, मिलाप चन्दजी, मनोहरलालजी बोहरा, अमोलक चन्दजी, इन्द्रचद्रजी, गेलडा वचनमलजी,अमोल कचन्दजी, जपरीलालजो हस्तीमलजी सुराणा, जसवन्तमलजी, हेमचन्दजी, हंसराजजी, केसरीमलजी, भण्डारी, तेजमल जो, रामलाल जो नेमिचन्दजी, बादरमलजी, गुलाबचन्दजी, नहार, बगतावरमलजी, मातीलालजी, हीरालालजी, जवरीलाल जी, इन्द्रचंदजी जबरचंदजी के सरीमलजी हेमराजजो बेताला आदिसर्व श्रीसंघ का अभत पूर्व उत्साह चातुर्मास को रौनक में अभिवृद्धि करने लगा।
__ महान तपस्वी श्री सुन्दरलालजी, महाराज, लघुतपस्वी श्री केशुलालजी एवं तपस्वी श्री मांगीलालजी महाराज जैसे तपस्वी रत्नत्रय की उपस्थिति में तो कुचेरा नगर तपो भूमि बन गया था। इन तपस्वीमनियों ने अपनी सुदीर्घ तपस्या प्रारम्भ करदी ।
जैन धर्म में तपस्या को बहुत बड़ा महत्त्व दिया है । तपस्या मानव जीवन को शुद्ध करने का अत्यन्त उपयोगी साधन है । तपस्या से काम क्रोध, मान, एवं इंद्रियों के विषय का सर्वथा शमन होता है। साबुन आदि से जैसे कपडे का मेल छूट जाता है और कपडा शुद्ध एवं शुभ्र बनता है वैसे ही तपस्या से आत्मा को कर्मरूपी मेल साफ हो जाता । आत्माशुद्ध एवं शुक्ल ध्यानमय बन जाता है । इहलौकिक एवं पारलोकिक अनेक सिद्धियां तपसे ही प्राप्त होती है। चक्रवर्ती जब छ खंड पर विजय प्राप्त करने के लिए जाते हैं
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