Book Title: Ghasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Author(s): Rupendra Kumar
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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दूत के मुख से यह बात सुनकर महाराज अश्वसेन यवनराज पर अत्यन्त क्रुद्ध हुए । उन्होंने दूत से कहा-तुम जाओ ! मैं यवनराज को पराजित करने के लिए शीघ्र ही सेना के साथ आ रहा हूँ। दूत महाराज का सन्देश लेकर चला गया । महाराज अश्वसेन ने अपनी सेना को युद्ध प्रयाण का आदेश दे दिया । महाराज स्वयं युद्ध के लिये तैयार हो गये ।
जब श्रीपार्श्वकुमार को इस बात का पता लगा तो वे स्वयं पिता के पास आये और कहने लगेपिताजी ! मेरे होते हुए आप को युद्ध स्थल पर जाने की आवश्यकता नहीं है। मैं स्वयं युद्ध स्थल पर जाकर कलिंगराज को पराजित करूगा ।” पार्श्वकुमार के विशेष आग्रह को देखकर पिता ने उन्हें युद्ध स्थल पर जाने की आज्ञा दे दी।
श्रीपार्श्वकुमार ने अपनी विशाल सेना के साथ कुशलस्थल की ओर प्रयाण कर दिया । चलते-चलते वे कुशलस्थल पहुचे । वहाँ उन्होंने अपनी छावनी डाल दी। तुरंत ही दूत को बुलाकर उसे यवनराज के पास भेजा और कहलवाया-यदि तुम अपनी खैरियत चाहते हो तो शीघ्र ही तुम अपनी सेना के साथ वापिस लौट जाओ वरना युद्ध के लिए तैयार हो जाओ । पार्श्वकुमार का सन्देश सुनकर प्रथम तो यवनराज क्रुद्ध हुआ किन्तु उसे जब पार्श्वकुमार की शक्ति का पता चला तो वह नम्र हो गया । उसने पार्श्वकुमार के साथ सन्धि करली और अपनी सेनो के साथ वापस लौट चला ।।
घेरा उठ जाने पर कुशलस्थल के निवासी बडी प्रसन्नता का अनुभव करने लगे । शहर के हजारों निवासियों ने अपने रक्षक पार्श्व कुमार का स्वागत किया राजा प्रसेनजित भी अनेक तरह की भेटें लेकर सेवा में उपस्थित हुआ और प्रार्थना करने लगा है राजकुमार ! आप मेरी कन्या को ग्रहण कर मुझे उपकृत करें ! पार्श्वकुमार ने कहा- मैं पिताजी को आज्ञा से कुशस्थल का रक्षण करने के लिये आया था विवाह करने नहीं । अतः आपके इस अनुरोध को पिता की बिना आज्ञा के स्वीकार करने में असमर्थ हूँ ।
पार्श्वकुमार अपनी सेना के सॉथ बनारस लौट आये । प्रसेनजित् भी अपनी कन्या को लेकर बनारस गया महाराज अश्वसेन ने पार्श्वकुमार का विवाह प्रभावती के साथ कर दिया ।
दिन पार्श्वकमार अपने झरोखे में बैठे हुए थे । उस समय उन्होंने देखा लोगों के टोले बनारस के बाहर जा रहे हैं उनमें किसी के हाथ में पुष्यों के हार किसी के हाथ में खाने की वस्तु और किसी के हाथ में पूजा को सामग्री थी । पूछने पर पता चला कि नगर के बाहर एक कठ नामका तपस्वी आया है, और वह पंचाग्नि तप की कठोर तपस्या कर रहा है । उसी के लिए लोग भेंट ले जा रहे हैं । पार्श्वकुमार भी उस तपस्वी को देखने के लिए अपनी माता वामादेवी के साथ गये !
यह कठ तपस्वी कमठ का जीव था । जो सिंह के भव से मरकर अनेक योनियों में भ्रमण करता हुआ एक गांव में एक गरीब ब्राह्मण के घर जन्मा उसका जन्म होने के थोडे दिन के बाद उनके मातापिता की मृत्यु हो गई । वह अनाथ बालक कठ तापसों के सत्संग में आया और तापस बनगया । तापस बनकर वह कठोर तप करने लगा । वह अपने चारों ओर आग जलाकर बीच में बैठता और सूर्य को आतापना लेता। उसकी कठोर तपस्या को लोग बडी तारीफ करमें लगे ।
श्रीपार्श्वकुमार कठ के पास पहुँचे । उन्होंने अवधिज्ञान से देखा कि तापस की धूनी के एक लक्कड में नाग का जोडा झुलुस रहा है । वे बोले-तापस ! यह तुम्हारा कैसा तप कि जिसमें अंशतः भी दया धर्म नहीं । तुम्हारा यह अज्ञान तप मुक्ति का कारण नही हो सकता । जिसमें दया है वही वास्तव में धर्म है । दयाशून्य धर्म विधवा के श्रृंगार जैसा निरर्थक है । हे तापस ! यह जो तुम पांचाग्मि तप तप रहे हो वह वास्तव में हिंसा ही कर रहे हो | इस प्रकार के अज्ञान तप से तुम्हारा कल्याण नहीं हो सकता।
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