Book Title: Ghasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Author(s): Rupendra Kumar
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवान महावीर को अलौकिक पुरुष मानकर अध्यापक बालक महावीर को लेकर राजा सिद्धार्थ के पास आया और बोला-भगवान महावीर स्वयं अलौकिक ज्ञानी हैं । उन्हें पढाने की आवश्यकता नहीं । भगवान श्रीमहावीर ने बाल्य अवस्था को पारकरने पर यौवनवय बुद्धि की प्रशंसा सुनकर अनेक देश के राजाओंने राजकुमार महावीर के साथ अपनी राजकन्याओं का वैवाहिक सम्वन्ध जोड़ने के लिये सन्देश भेजे किन्तु विरक्त श्रीमहावीर ने उन्हें वापिस लौटा दिये । अन्त में अपनी अनिच्छा होते हुए भी भोगावली कर्म कों शेष जानकर एवं माता पितों तथा बडे भाई की आज्ञा को शिरोधार्य कर वसन्तपुर के राजा समरवोर की रानी पद्मावती के गर्भ से उत्पन्न राजकुमारी यशोदा के साथ शुभ मुहूर्त में पाणि ग्रहण किया ।
राजकुमार महावीर यशोदा के साथ सुख पूर्वक रहने लगे । कालान्तर से उन्हें प्रियदर्शना नामकी पुत्री हुई । प्रियदर्शना जब युवा हुई तब उसका विवाह क्षत्रियकुण्ड के राजकुमार जमालि के साथ कर दिया गया ।
राजकुमार श्रीवर्धमान स्वभाव से ही वैराग्य शील और एकान्त प्रिय थे । उन्होंने माता पिता के आग्रह से ही गृहवास स्वीकार किया । जब भगवान महावीर २८ वर्ष के हुए तब उनके माता पिता का स्वर्गवास हो गया । माता पिता के स्वर्गवास के बाद भगवान ने अपने बडे भ्राता नन्दिवर्द्धन से कहा-भाई : अब मै दीक्षा लेना चाहता हूँ । नन्दिवर्द्धन ने कहा भाई ! घाव पर नमक न छिडको । अभी माता पिता का वियोग का दुःख तो भूले ही नहीं कि तुम भी मुझे छोडने क बात करने लगे । जब तक हमारा स्वस्थ मन न हो जाय तब तक के लिये घर छोडने की बात मत करो । भगवान श्रीमहावीर ने कहा तुम मेरे बडे भ्राता हो अतः तुम्हारी आज्ञा का उल्लंन करना उचित नहीं किन्तु गृहवास में रहने की मेरी अवधि बता दो । नन्दिवद्धन ! भाई ! कम से कम दो वर्ष तक ।
वर्धमान-अच्छा, पर आज से मेरे लिये कुछ भी आरंभ समारंभ मत करना । नन्दिवर्धन ने भगवान की बात मान ली । भगवान महावीर गृहस्थवेश में रह कर भी त्याग मय जीवन विताने लगे। वे अचित धोवन व गर्म पानी पीते थे। निदोष भोजन ग्रहण करते थे । रात्रि को वे कभी नहीं खाते थे । जमीन पर सोते थे और ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते थे। भगवान की दीक्षा की बात जानकर सारास्वत आदि नौ लोकान्तिक देव भगवान के पास आये और उन्हें प्रणाम कर कहने लगे-हे क्षत्रियवर वृषभ ! आपकी जय हो विजय हो ! हे भगवान् ! आप दीक्षा ग्रहण करें ? लोक हित के लिये धर्मचक्र का प्रवर्तन करें । ऐसा कह कर वे देव स्वस्थान चले गये । उसके पश्चात् भगवान ने वर्षीदान देना प्रारंभ कर दिया । वे प्रतिदिन १ करोड ८ लाख सुवर्ण मुद्रा का दान करने लगे। इस प्रकार एक वर्ष की अवधि में ३ अरब ८८ करोड ८० लाख स्वर्ण मुद्रा का दान दिया । वर्षीदान की समाप्ति के बाद भगवान नन्दिवर्धन तथा अपने चाचा सुपार्श्व के पास आये और बोले अब मै दीक्षा के लिये आपकी आज्ञा चाहता हूँ । तब नन्दिवर्धन ने एवं सुपार्वं ने साश्रुनयनों से भगवान को दीक्षा लेने की आज्ञा दे दी ।
__सौधर्म आदि इन्द्रों के आसन चलायमान होने से उन्हें भी भगवान के दीक्षा का समय मालूम हो गया । सभी इन्द्र अपने अपने देव देवियों के असंख्य परिवारों के साथ क्षत्रिय कुण्ड आये और भगवान का दीक्षा भिषेक किया । नन्दिवर्धन ने भी भगवान को पूर्वाभिमुख बिठला करके दीक्षा भिषेक किया । उसके बाद भगवान ने स्नान किया चन्दन आदि का लेप कर दिव्य वस्त्र और अंलकार परिधान किये ।
देवों ने पचास धनुष लम्बी ३६ धनुष उँची और २५ धनुष चौडी चन्द्रप्रभा नाम की दिव्य पालखी तैयार की। यह पालखी अनेक स्तभों से एवं मणिरत्नों से अत्यन्त सुशोभित थी । भगवान इस पालखी में पूर्वदिशा की ओर मुख करके सिंहासन पर बैठ गये । प्रभु की दाहिनी ओर हंस लक्षण युक्त
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