Book Title: Ghasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Author(s): Rupendra Kumar
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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अध्यापक ने सोचा- अब समय आ गया हैं । वेदार्थ की परम्परा यह हैं कि सिर काट डालने का प्रसंग आए तब कह देना चाहिए अब यह प्रसंग उपस्थित है, इसलिए मै तत्त्व बतला रहा हुँ । अध्यापक ने कहा - " तत्त्व आत् धर्म है ।" आर्हत् धर्म की वास्तविकता सुनकर वह प्रतिबुद्धि हुआ । शय्यंभव ने अध्यापक के चरणों में वंदना की और संतुष्ट होकर यज्ञ की सारी सामग्री उसे भेट में दे दी । वह मुनिद्रय के साथ आचार्य श्री प्रभवस्वामी की सेवा में पहुँचा । प्रभवस्वामी के उपदेश से प्रभावित हो कर जैनमुनि बन गया। शय्यंभव अठाईस वर्ष के थे । अपनी सगर्भा पत्नी को छोड़कर वे दीक्षित हो गये । दीक्षा लेकर उन्होंने गुरू चरणों में रहकर श्रुत साहित्य का अध्ययन किया और चर्तुदश पूर्वधर श्रुत केवली हो गये ।
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शय्यंभव की पत्नी ने पुत्र को जन्म दिया । उसका नाम 'मनक' रखा गया । यह आठ वर्ष का हो गया । एक दिन उसने अपनी मां से पिता के बारे में पूछा । माँ ने बताया- बेटा ! तेरे पिता मुनि बन गये । वे अब आचार्य हैं और अभी अभी चम्पा में विहार कर रहे हैं । 33 मनक ने मां से अनुमति ली और चम्पा नगरी जा पहुचा । आचार्य शौच जा करके आ रहे थे । बीच में ही मनक मिल गया । आचार्य के मन में उसके प्रति कुछ स्नेह भाव जागा और पूछा - " तू किसका बेटा है ? " मेरे पिता का नाम शय्यभव ब्राह्मण हैं" मनक ने प्रसन्न मुद्रा में कहा । आचार्य ने पूछा अब तेरे पिता कहा है ? मनक ने अहा वे अब आचार्य हैं और अब इस समय चम्पा में है " आचार्य ने पूछा तू यहाँ क्यों आया ? मनक के उत्तर दिया- मैं भी उनके पास प्रव्रज्या लूंगा । और उसने पूछा- क्या तुम मेरे पिता को जानते हो ? आचार्य ने कहा- मैं केवल जानता ही नहीं हूं किन्तु वह मेरा अभिन्न शिष्य । तूं मेरे पास प्रव्रजित हो जो । उसने यह स्वीकार कर लिया । आचार्य मनक को साथ में लिए अपने स्थान
चले आये और उसे उपाश्रय में ही प्रत्रजित कर लिया । आचार्य शय्यंभव ने अपने पुत्र को केवल ६ महिने का अल्पजीवि जानकर आत्म प्रवाद आदि पूर्व साहित्य से श्रीदशवैकालिक सूत्र की रचना की । दशवैकालिक सूत्र की रचना काल वीर सं. ८२ के आस पास है । आचार्य शय्यंभव ३४ वर्ष तक मुनि जीवन में रहकर वे २३ वर्ष तक युग प्रधान आचार्य पद पर प्रतिष्ठित रहें । इस प्रकार ६२ वर्ष की आयु में समाधिपूर्वक देह का त्याग कर वीर संवत् ९८ में स्वर्गवासी हुए । ५ - वें पट्टधर आर्य यशोभद्र—
आर्य यशोभद्र आचार्यशय्यंभव के शिष्य थे । आर्ययशोभद्र तुंगियायन गोत्र के क्रियाकांडी ब्राह्मण थे और प्रकाण्ड वेदाभ्यासी । उनके जीवन के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं होती है । तत्कालीन नंद राजवंश और उसके मंत्री - वंश पर इनका अच्छा प्रभाव था । महान प्रभावक आचार्य संभूतिविजय और भद्रबाहु स्वामी आपके प्रधान शिष्य थे । आर्य यशभद्र ने २२ वर्ष गृहस्थ दशा में ६४ वर्ष संयमी जीवन में और इसी में से ५० वर्ष युग प्रधान आचार्य पद पर व्यतीत किया । अन्ततः ८६ वर्ष की आयु पूर्णकर वीर सं. १४८ वर्ष में स्वर्गवासी हुए ।
६ - पधर आर्य संभूतिविजय --
आर्य यशोभद्र के स्वर्गवासी होने के बाद आप उनके पट्ट पर आसीन हुए। आर्य संभूतिविजय माठर गोत्रीय प्रसिद्ध ब्राह्मण थे। आप का विशाल शिष्य परिवार था । कल्पस्थविरावलो में आपके बारह प्रमुख शिष्यों के नाम इस प्रकार हैं- १ नन्दन भद्र २ उपनन्दन भद्र ३ तिष्य भद्र ४ यशोभद्र स्वप्न भद्र ६ मणिभद्र ७ पूर्णभद्र ८ स्थूलिभद्र ९ ऋजुमति जम्बू ११ दीर्घभद्र १२ और पाण्डुभद्र ।
आर्य संम्भूति विजय ४२ वर्ष गृहस्थ जीवन में ४८ बर्ष साधु जीवन में एवं आठ वर्ष युग प्रधान
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