Book Title: Ghasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Author(s): Rupendra Kumar
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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चातुर्मास - काल में व्याख्यान के समय उपासकदशांगसूत्र का वांचन होता था, सूत्रों का अथ आप इस प्रकार सरल और बहुअर्थगामनी भाषा में करते थे कि साधारण श्रोतागण के हृदय में उसके भाव अंकित हो जाते थे, वहां के लोगों की भी यही भावना रहती थी कि हमारे प्रान्त में सन्तों का आगमन विशेष नहीं होता है । बड़े भाग्य से विद्वान महाराज श्री पधारे हैं बार बार फिर हमें यह सुअवसर प्राप्त नहीं होनेवाला है, ऐसा सोचकर वे प्रतिदिन अधिक संख्या में व्याख्यान में उपस्थित होने लगे । व्याख्यान के समय सभी लोग कारोबार बन्द रखते थे । अजैन जनता भी बडी संख्या में महाराज श्री के व्याख्यान का लाभ लेती थी।
इसी चातुर्मास में एक समय की बात है - किन्हीं श्रावक के घर एक व्यक्ति बहुत ही अंधिक बीमार था । उसके घर वाले एक व्यक्ति ने महाराज श्री के पास आकर उसे मांगलिक श्रवण कराने की प्रार्थना की। महाराज श्री आवक की प्रार्थना पर मांगलिक सुनाने उस आवक के घर चले। मार्ग में कुछ बहने रुदन करती हुई महाराज श्री को सामने मिली । महाराज श्री ने साथवाले श्रावक को आश्वसन करते हुए कहा- आवकजी, मैं जिसे मांगलिक सुनाने जारहा हूँ उस भाई का रोग मांगलिक के डर से भयभीत होकर रूदन करता हुआ जा रहा है। वह भाई जल्दि ही अच्छा होगा । महाराज श्री उसके घर पधारे तो यहां का वातावरण गम्भीर था। सबके चेहरे उदास थे। ऐसा लग रहा था कि वह व्यक्ति कुछ ही घंटों का महमान है। महाराज श्री ने आश्वासन देते हुए उसे मांगलिक सुनाया । और सब को ॐ शान्ति का पाठ करने को कहा। मुनि श्री वापीस स्थानक में लौट आये । सायंकाल तक में तो वह व्यक्ति संपूर्ण स्वस्थता का अनुभव करने लगा। प्रभु की कृपा से दो तीन दिन के बाद तो वह संपूर्ण स्वस्थ हो गया । उस श्रावक की महाराज श्री के प्रति असीम श्रद्धा बढी । सेवाभावी श्रीलालचन्दजी म० का स्वर्गवास:
मुनि श्री की शिक्षण समय में अनन्य सहायक सेवा मूर्ति श्री लालचन्दजी महाराज इस चातुर्मास में बहुत ही अस्वस्थ थे । इन्होने महाराज श्री के अध्ययन काल में बडी सेवा को थी । महाराजश्री का भी इनके प्रति बडा स्नेह था। वे स्नेह से इन्हें सदा 'लाला' “लाला" कहकर पुकारते थे ! इनकी अस्वस्थ अवस्था में मुनिश्री ने बड़े मनोयोग से सेवा की । ये भी ऋण से उऋण होना चाहते थे ! मुनिश्री की सेवा ने और स्थानीय श्रावकों की अभूत पूर्व भक्ति जन्य सेवा से भी मुनिजी स्वास्थ्य लाभ नहीं प्राप्त कर सके। उत्तरोत्तर प्रकृति बिगडती ही चली गई। एक दिन इन सब के मोह भाव को छोड़ कर दोर्घ यात्रा के लिए चल पडे । लालचन्दजी महाराज के स्वर्गवास के बाद वहां के आवक लोग अंत्येष्टि की तैयारी करने लगे । गांव के किसानों ने श्मशान यात्रा में बाजा, ढोल बजाने से इनकार कर दिया। सारे गाँव
सामने मुभि जैन लोग विवश बन गये । कैसे क्या करना, किसी को कुछ भी सूझ नहीं रहा था । मुनि श्री को भावकों के हृदय की विवशता जानने में आई तो उसी समय गांव के तलाटी (मुखिया) को मुला कर बातचित की। मुनिश्री से तलाटी अत्यन्त प्रभावित था। तलाटी ने गाँव के जैनों से कहा- तुम बाजे वालों को बुलाओ। और माजा बजाओ। मैं वस्वं आप के साथ चलूँगा । देखता हूँ तुम्हें कौन रोकता। अत्यन्न प्रसन्न हुए और बडे ही ठाट तथा उमंग से बाजेवालों के साथ स्मशान तक चला। मुनि श्री के शोक सभा का आयो
तलाठी का उत्साहवर्धक सहयोग से सभी जैन स्व० मुनी श्री की पालखी निकली । तलाटी स्वयं पार्थिव शरीर की दाह क्रिया चन्दन काष्ट आदि से की। स्मशान भूमी पर ही aa किया । जिसमें अनेक वक्ताओं ने भाषण देकर अपनी श्रद्धांजलि व्यक्त की ने एवं अन्य सन्तों ने प्रवचन देकर मुनि श्री लालचन्दजी महाराज के गुण गान सेवा भावी मुनिश्री लालचन्दजी महाराज के विषय में कहा
स्थानक में महाराजश्री
किये । महराजश्री ने
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