Book Title: Ghasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Author(s): Rupendra Kumar
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
वैशाली नगरी के यह ध्वंसावशेष करीब ढाई हजार वर्ष पहले की अनेक सुखद स्मृतियाँ जागृत करते है । यही गौतमबुद्ध और भगवान श्रीमहावीर जैसे महान क्रान्तिकारी पुरुषों की कर्मभूमि रही है, जिनके ज्ञान आलोक से सारा विश्व आज भी प्रकाशित है ।
वैशाली नगरी का नाम ही सूचित कर रही है कि किसी जमाने में यह बडी विशाल नगरी थी। रामायण में बताया गया हैं कि वैशाली बडी विशाल, रम्य, दिव्य और स्वर्गापम नगरी थी । जैनागमों में उसका वर्णन बडा भव्य है । बारयोजन लम्बी और नौ योजन चौडी; सुन्दर प्रासादों से सम्पन्न धन धान्य से समृद्ध और सब प्रकार के सुख सुविधाओं से युक्त; वैशाली अत्यन्त रमणीय नगरी थी । यह नगरी तीन बडी दिवारों से घिरी हुई थी। किल्ले में प्रवेश करने के लिए तीन बिशाल द्वार थे । संसार के समस्त गणतन्त्रों से पुरानी गणतन्त्रशासन प्रणाली उस समय वैशाली में प्रचलित थी । वहाँ का गणतन्त्र विश्व का सबसे पुराना गणतन्त्र था । उसे जन्म देने का श्रेय उसी नगरी को हैं । हैहय वंश के राजा चेटक इस गणतन्त्र के प्रधान थे । इनके नेतृत्व में वैशाली की ख्याति; समृद्धि एवं वैभव चरमसीमा तक पहुंच चुका था।
तत्कालीन भारत के प्रसिद्ध राजा शतानिक; चम्पा के राजा दधिवाहन, तथा मगध के सम्राट बिम्बिसार, अबन्ती के राजा चण्डप्रद्योतन; सिन्धुसौवीर के सम्राट उदायन और भगवान श्रीमहावीर के ज्येष्ठ भ्राता नन्दिवर्द्धन महाराजा चेटक के दामाद होते थे । इनके शासनकाल में प्रजा अत्यन्त सुखी थी।
वैशाली के पश्चिम भाग में गण्डकी नदी बहती थी उसके पश्चिम तट पर स्थित ब्राह्मणकुण्डपुर, अत्रिय कण्डपर. वाणिज्यग्राम: कमरिग्राम, और कोल्लागसन्निवेश जैसे अनेक उपनगर वैशाली की समद्धि बढा रहे थे ।
ब्राह्मणकुण्डपुर और क्षत्रियकुण्डपुर क्रमश: एक दूसरे के पूर्व और पश्चिम में थे । उन दोनों के दक्षिण और उत्तर ऐसे दो दो भाग थे । दोनों नगर पास-पास में थे, इनके बीच बहुसाल नामका उद्यान था।
ब्राह्मणकुण्ड का दक्षिण विभाग ब्रह्मपुरी के नाम से प्रसिद्ध था । उसमें अधिकांश ब्राह्मणों का ही निर्वास था । इसका नायक कोडालगोत्रीय ऋषभदत्तब्राह्मण था । वह वेदादि शास्त्रों में पारंगत था । उसकी स्त्री देवानन्दा जालन्धर गोत्रीया ब्राह्मणी थी । ऋषभदत्त और देवानन्दा भगवान श्री पार्श्वनाथ के शासनानुयायी थे । ___ उत्तर क्षत्रियकुण्ड पर करीब ५०० घर ज्ञातवंशीय क्षत्रियों के थे। उनके नायक थे महाराजा सिद्धार्थ वे सर्वाधिकार सम्पन्न राजा थे इनका काश्यप गोत्र था । महाराजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशला वैशाली के सम्राट चेटक की बहन एवं वासिष्ठ गोत्रीयाँ क्षत्रियाणी थी। वे दोनों भगवान श्री पार्श्वनाथ की श्रमण परम्परा को मानने वाले थे । इनके जेष्ठ पत्र का नाम नन्दिवर्द्धन था । नन्दिवर्द्धन का विवाह वैशाली के राजा चेटक की पुत्रीज्येष्ठा के साथ हुआ था ।
महामुनि नन्द का जीव 'प्राणत' कल्प के पुष्योत्तरविमान से चवकर आषाढ शुक्ला छठ के दिन हस्तोत्तरां नक्षत्र में चन्द्रमा का योग होने पर देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ में आया । उस रात्रि में देवानन्दा ने चौदह महास्वप्न देखे । स्वप्नदेखकर वह तुरन्त अपनी शय्या से उठी और ऋषभदत्त के शयन कक्ष में जाकर बोली हे प्राणनाथ ! मैंने चौदह महास्वप्न देखे हैं । ये शुभ हैं या अशुभ ? इनका फल क्या है ?
ऋषभदन्त ने मधुर स्वर में कहा—प्रिये ! तुमने उदार स्वप्न देखे हैं-कल्याणरूप, शिवरूप, धन्य मंगलमय और शोभा युक्त स्वप्नों को देखा है । इन शुभ स्वप्नों से तुम्हें पुत्रलाभ अर्थलाभ, और राज्य. लाभ होगा तुम सर्वांगसुन्दर, उत्तम लक्षणों से युक्त, त्रिलोक पूज्य पुत्र को जन्म दोगी" स्वप्न का फल
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org