Book Title: Ghasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Author(s): Rupendra Kumar
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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आयु पूरी करके मर कर सातवीं नरक में तेतीस सागरोपम की आयुवाले नारक बने । यहां पर अनेक दुखों को भोगकर नरकायु पूरी कर ।
वहाँ से निकलकर त्रिपृष्टवासुदेव का जीव सिंह योनि में पैदा हुए । वहाँ भी अनेक प्राणियों की हिंसासे नरकायु बान्धकर पुनः नरक में उत्तपन्न हवा ।।
तेइसवां और चोविसवां भवः
तेईसवां भव में नयसार का जीव पश्चिम महाविदेह की राजधानी मूका नगरी में प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती राना हुआ । चक्रवर्ती के सम्पूर्ण सुख भोगकर इसने पोट्टीलाचार्य के पास दीक्षा ग्रहण की । दीर्घ तपश्चर्या की । अन्त में शुद्ध चारित्र पाल कर अन्तिम समय में संथारा कर ८४ लाख पूर्व का आयुष्य भोगकर स्वर्गगामी हुआ । और महाशुक्र कल्प में सर्वार्थ नामक महर्द्धिक देव बना ।
पच्चीसवाँ और छब्बीसवाँ भव :
छत्रा नाम की नगरी थी । वहाँ जितशत्र नाम के महापराक्रमी राजा राज्य करते थे । उनकी महारानी की कुक्षि में नयसार के जीव ने जन्म लिया । युवावस्था में इन्होंने पिता के स्वर्गवासी बनने के बाद राज्य प्राप्त किया । २४ लाख बर्ष तक राज्य करने के बाद नन्द राज ने पोट्टिलाचार्य के पास दीक्षा धारण की । दीक्षा लेकर आपने ग्यारह अंग सूत्रों का संपूर्ण अध्ययन किया । इसके बाद आपने कठोर तपश्चर्या की आराधना की । एक लाख वर्ष तक आपने निरन्तर मासखमण की तपश्चर्या की ।
इसके अतिरिक्त नन्द मुनि ने उत्कृष्ट भावना से अनेक प्रकार की कठोर तपश्चर्या की और तीर्थकर नामकर्म उपार्जन करने वाले बीस स्थानों की सम्यक् आराधना कर तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन किया । ये बीस स्थान ये है
१. अरिहन्त वत्सलता २. सिद्ध वत्सलता ३. प्रवचन- श्रुतज्ञान वत्सलता ४. गुरु-धर्मोपदेशकवत्सलता । ५. स्थविर- साठ वर्ष की उम्रवाले वय स्थविर, समवायांग के ज्ञाता सूत्र स्थविर, और बीस वर्ष की दीक्षावाले पर्याय स्थविर, ये तीन प्रकार के स्थविर साधु । ६. बहुश्रुत-दूसरों की अपेक्षा अधिक श्रुत के ज्ञाता । ७. तपस्वी-इन सातों के प्रति वत्सलता धारण करना अर्थात् इनका यथोयित सत्कार-सन्मा करना, गुणोत्कीर्तन करना । ८. बारंबार ज्ञान का उपयोग करना । ९. दशेन-सम्यकत्व । १० का विनय करना । छह आवश्यक करना । १२. उत्तरगुणो और मूलगुणों का निरतिचार पालन करना ।
क्षणलव- संवेग भावना एवं ध्यान करना । १४. तप करना । १५. त्याग- मुनियों को उचित सुपात्र दान देना । १६. वैयावृत्य करना । १७. समाधि-गुरु आदि को साता उपजाना । १८. नया-नया ज्ञान ग्रहण करना । १९. श्रुत की भक्ति करना । २०. प्रवचन की प्रभावना करना ।
- इस प्रकार नन्द मुनि ने अप्रमत्त भाव से शुद्ध संयम की अराधना की और समाधिपूर्वक काल करके प्राणतकल्प के पुष्पोत्तर नामक देव विमान में महार्द्धिक देव बने ।
सत्ताईसवाँ भवःभगवान श्रीमहावीर का जन्म:
भारत के इतिहास में विहार प्रान्त का गौरवपूर्ण स्थान हैं । इसी गौरव-गरिमा से सम्पन्न प्रान्त में वैशाली नाम की नगरी थी काल के अप्रतिहत प्रभाव से आज वैशाली का वह सुन्दर वैभव नहीं रहा फिर भी उसके खण्डहर आज भी विद्यमान हैं । गंगातट के उत्तरीय भाग अर्थात् हाजीपुर सबडिबिजन से करीब १३-१४ मील उत्तर में "बसाढ' नामका ग्राम है जो आज भी मौजूद हैं । इस गांव के उत्तर में एक बहुत बडा खण्डहर हैं। उसे लोग राजा विशाल का गढ कहते है । इस गढ के समीप एक विशाल अशोक स्तंभ है । पुरातत्ववेत्ताओं के मत से यही लिच्छवीयों की प्रताप भूमि वैशाली है ।
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