Book Title: Ghasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Author(s): Rupendra Kumar
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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कुलचन्द्र को राज देकर अन्य पैतीस राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण कर ३५ पैतीस ने गणधर पद प्राप्त किया । भगवान के शासन में गरुड शासन देवता और निर्वाणी शासन देवी हुई ।
भगवान के शासन में बासट हजार ६२००० साधु, इक्सट हजार छसो ६१६०० साध्वियां, पैतीस ३५ गगधर, आठ सौ ८०० चौदहपूर्वधर, ३००० तीन हजार अवधिज्ञानी, चार हजार ४००० मनः पर्यवज्ञानी, चार हजार तीनसो ४३०० केवली, छ हजार ६००० वैक्रियलब्धि वाले, दो हजार चारसो २४०० वादी २९०००० दोलाख नेड हजार श्रावक एवं श्राविकाएँ हुई ।
३९३००० तीन लाख तराणु हजार
भगवान ने अपना निर्वाणकाल समीप जानकर सम्मेत शिखर पर पदार्पन किया वहां नौ सौ मुनियों के साथ अनशन ग्रहण कर एक मासके अन्त में निर्वाणपद प्राप्त किया। वह दिन जेवदि प्रयोदशी का था भगवान की कुल आयु एक लाख वर्ष की थी। उनका शरीर ४० जैसा भगवान श्री धर्मनाथ के निर्वाण के बाद पौन पत्योपम न्यून तीन शान्तिनाथ का निर्वाण हुआ ।
१७ भगवान श्री कुंथुनाथ
जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह के आवर्तदेश में खनी नाम की एक महान नगरी थी। वहां सिंहावह नाम का राजा राज्य करता था । संवराचार्य के आगमन पर वह उनके दर्शन के लिए गया । उनका उपदेश सुनकर उसे संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न हो गया और उसने अपने पुत्र को राज्यगद्दी पर स्थापित कर दीक्षा ग्रहण की। वे दीक्षा लेने के बाद उच्चकोटि का तप और मुनियों की सेवा करने लगे जिससे उन्होंने तीर्थंकर नाम कर्मका उपार्जन कर लिया । अन्तिम समय में समाधि पूर्वक अनशन के साथ कालकर के सर्वार्थसिद्ध विमान में तेतीस सागरोपम की आयु वालें अहमीन्द्र देव बने ।
धनुष उंचा था और वर्ण स्वर्ण सागरोपम श्रीतने पर भगवान श्री
भारत वर्ष के हस्तिनापुर नाम के नगर में शूर नाम का महान प्रतापी राजा राज्य करता था । उनकी रानी का नाम श्री देवी थ। तेतीस सागरोपम का आयु पूरी कर सिंहावह देव का जीव श्रावणवदी नवमी के दिन कृतिकानक्षत्र के योग में श्री देवी के गर्भ में उत्पन्न हुआ। उत्तम गर्भ के प्रभाव से महा रानी ने चौदह महास्वप्न देखे । गर्भकाल पूर्ण होने पर महारानी ने बैशाखवदी चतुर्दशी के शुभ दिन कृतिका नक्षत्र के योग में अजगर चिह्नसे चिह्नित कंचन वर्णवाले महान तेजस्वी पुत्र रत्न को जन्म दिया । भगवान के जन्मने पर इन्द्रादि देवों ने उत्सव मनाया । गर्भकाल के समय श्रीदेवी ने कुंथुनाम का रखसंचय देखा था । अतः जन्म के बाद बालक का नाम कुंथनाथ रखा गया । यौवन वय के प्राप्त होने पर कुंपनाथ का अनेक राजकुमारियों के साथ विवाह हुआ । जन्म से तेइस हजार साढेसातसौ वर्ष के बाद राजा बने उसी के बल से छसौ वर्ष में विजय पाने के बाद आप विधिचक्रवर्ती पद पर रहने के बाद
और उतने ही वर्ष के बाद उनकी आयुधशाला में चक्ररत्र उत्पन्न हुआ
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उन्होंने भरतक्षेत्र के छ खण्डो पर विजय प्राप्त किया । छ खण्डों पर पूर्वक चक्रवर्ती पद पर अधिष्ठित हुए तेइसहजार सातसौपचास वर्ष तक इन्हें वैराग्य भाव उत्पन्न हुआ। लोकान्तिक देवों ने आकर भगवान से दीक्षा के लिए निवेदन किया । देवों की प्रार्थना पर भगवान ने दीक्षा लेने का दृढ निश्चय कर लिया और एक वर्ष तक नियमानुसार वर्षादान दिया । वर्षीदान देने के बाद वैशाख कृष्णा पंचमी के दिन अन्तिम प्रहर में कृतिका नक्षत्र के योग में एक हजार राजाओ के साथ दीक्षित हुए। उस दिन भगवान को परिणामों की उच्चता के कारण मनः पर्यव ज्ञान उत्पन्न हुआ | तीसरे दिन पष्ट तप का पारणा चक्रपुर के राजा व्य प्रसिंह के घर परमान्न से किया । देवों ने पांच दिव्य प्रकट किये ।
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